रियो+20 : अटकी रहीं जलवायु नियंत्रण की पुरानी योजनाएं

हरित कोष के मामले में अब तक यह साफ होना बाकी है कि कोष का धन कहां से आएगा। क्योतो करार के तहत राशि के संबंध में कोपेनहेगन में यह तय हो गया था कि औद्योगिक देश हर साल एक खरब डॉलर की मदद विकासशील देशों की देंगे। क्या हरित कोष का पैसा उसी राशि में से आएगा? या वह अलग कोष की तरह संचालित होगा? इस तरह के मुद्दे डरबन सम्मेलन में अनिर्णीत रह गए थे। रियो में उन्हें उठाया ही नहीं गया।

रियो द जनेरो, 23 जून। संयुक्त राष्ट्र का पर्यावरण सम्मेलन रियो +20 आज यहां संपन्न हो गया। ठीक बीस साल पहले पृथ्वी सम्मेलन नाम से दुनिया की आबोहवा को फिर से पटरी पर लाने की कवायद समंदर किनारे बसे इसी शहर में शुरू हुई थी। तब 178 देशों के राष्ट्राध्यक्ष यहां जमा हुए थे। अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश (बड़े वाले) और भारत के प्रधानमंत्री नरसिंह राव सहित। तब से अब तक ये प्रयास कई मंजिलें तय कर गए हैं। इसीलिए बीस साल होने पर संयुक्त राष्ट्र ने फिर उसी शहर में सबको जमा करने का निश्चय किया होगा।

लेकिन धीरे-धीरे कुछ देश अपनी जिम्मेवारी से आंख चुराने लगे हैं। मैंने हाल तक के कोपेनहेगन, कानकुन (मेक्सिको) और डरबन के सम्मेलन भी नजदीक से देखे हैं। हर दफा कोई ऐसा पेंच विकसित देशों की तरफ से आता है कि कोई नया कारगर समझौता संभव नहीं हो पाता। कोपेनहेगन में डेनमार्क की ओर से उछाले गए “डेनिश मसविदे” की छाया रही, तो डरबन में “डरबन मैंडेट” छाया रहा। डरबन ही अब तक का आखिरी सम्मेलन था। उसमें विकसित देशों की आपसी फूट सामने आई। यूरोपीय संघ चाहता था कि विकसित देशों को प्रदूषण घटाने का लक्ष्य बढ़ा कर बीस प्रतिशत कर देना चाहिए।

अमेरिका ने इस पहल पर कड़ी आपत्ति की। कोपेनहेगन में ओबामा ने खुद पहुंच कर विकसित देशों को लामबंद करने की कोशिश की। विकासशील देशों पर नकेल डालने के प्रयास भी देखे गए। हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को हवाई अड्डे के रास्ते से वापस आना पड़ा। लेकिन वहां ओबामा के नए समझौते के प्रयास को विकसित देशों का ही पूरा समर्थन नहीं मिला। केवल छब्बीस देश उसके लिए तैयार हो सके। पर न-न करते भारत, चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका वाले “बेसिक” गुट ने उस मसविदे को अपनी सहमति प्रदान कर दी। हालांकि वह बाध्यकारी नहीं था।

इस बार यहां रियो में ओबामा नहीं आए। न यूरोपीय संघ की धुरी बनी जर्मनी की चांसलर, न ब्रिटेन के प्रधानमंत्री। सब कुछ ठंडे-ठंडे निपट गया। इसकी वजह यही है कि भारत-चीन जैसे विकासशील देश अब विपक्षी ताकत नहीं रहे। वे खुद विकास के उसी रास्ते पर हैं। कोई नया मॉडल उनके सामने नहीं है। विकसित देशों का ज्यादा विरोध करना एक अर्थ में खुद अपना विरोध करने जैसा ही हो सकता है। थोड़ा विरोध किया जाता है तो लोक-लाज के लिए। अलबत्ता ज्यादा पिछड़े देश अब भी उनसे रहनुमाई की आस पालते हैं।

रियो में जिस चीज की परवाह नदारद दिखी वह था बहुचर्चित क्योतो करार। इसके अलावा चर्चित “ग्रीन क्लाइमेट फंड” को भी लोग जैसे भूल गए। क्योतो करार 1997 में हुआ था, पर सिरे चढ़ा 2005 में। संयुक्त राष्ट्र के 191 सदस्य देश उसे मानते हैं, अमेरिका को छोड़ कर। जहरीली गैसों का संसार में सबसे ज्यादा उत्सर्जन करने वाला अमेरिका शुरू से अलग है। बाद में कनाडा, खुद जापान आदि भी उसके रास्ते जाने की धमकी देने लगे। क्योतो करार के तहत तब एक सौ सत्तासी देशों ने यह वैधानिक बंदिश स्वीकार की थी कि खतरनाक गैसों का उत्सर्जन अपने यहां तय अवधि में एक निश्चित मात्रा में घटाएंगे। वैधानिक बंदिश इस मायने में कि उनके यहां प्रदूषण नियंत्रण की कार्रवाई को मापा जाएगा, तय लक्ष्यों के मामले में विफल रहे तो जुर्माना भुगतना होगा, विकासशील देशों को प्रदूषण घटाने के लिए विकसित देश आर्थिक और तकनीकी सहायता देंगे।

कोपेनहेगन में नए समझौते के तहत अमेरिका की शिरकत की संभावना पैदा हुई थी। ओबामा के वहां आने से उसे हवा मिली। पर उसके बाद उस मुद्दे को कोई दुबारा नहीं उठाता। क्या इसीलिए ओबामा रियो नहीं आए और हिलेरी क्लिंटन को भेज दिया। हो सकता है चुनावी राजनीति में वे नई आफत मोल न लेना चाहते हों, पर विकासशील देशों को अपनी मांग या आवाज उठाने से क्या किसी ने रोका था?

इसी तरह, कानकुन में एक हरित जलवायु कोष का प्रस्ताव सामने आया था। लंबी बैठकों की बहसें के बाद वह कोष स्थापित हो गया। तय हुआ कि प्रदूषण नियंत्रण की समस्याओं से जूझने के लिए इस कोष से विकासशील देशों को सीधे भुगतान होगा। चालीस देशों की एक क्रियान्वयन समिति बनी, जिसमें पच्चीस सदस्य विकासशील देशों के थे। बारह सदस्यों की संचालन समिति बनी। तय यह होना था कि कोष कैसे काम करेगा, भुगतान की प्रक्रिया क्या होगी, आदि। डरबन में इस पर कोई अंतिम निर्णय नहीं हुआ। और रियो में तो बात ही नहीं छिड़ी।

हरित कोष के मामले में अब तक यह साफ होना बाकी है कि कोष का धन कहां से आएगा। क्योतो करार के तहत राशि के संबंध में कोपेनहेगन में यह तय हो गया था कि औद्योगिक देश हर साल एक खरब डॉलर की मदद विकासशील देशों की देंगे। क्या हरित कोष का पैसा उसी राशि में से आएगा? या वह अलग कोष की तरह संचालित होगा? इस तरह के मुद्दे डरबन सम्मेलन में अनिर्णीत रह गए थे। रियो में उन्हें उठाया ही नहीं गया। जाहिर है, ऐसे में जलवायु संतुलन और प्रदूषण नियंत्रण की बातें सिद्दांत रूप में तो ठीक हैं, पर अमली जामा पहनाने में उन्हें पता नहीं कितने विराट सम्मेलनों का और इंतजार करना होगा।

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