मैला प्रथा : अनदेखे भारत की तस्वीर

भारत सरकार ने न जाने कितनी बार संकल्प लिया कि अमुक तारीख तक मैला प्रथा का उन्मूलन कर दिया जाएगा। लेकिन इस प्रथा को तब से लेकर अब तक पूरा नहीं कर पाये। जाति-व्यवस्था की बारीकी समझने की इच्छा रखने वाले अध्येता इससे लाभ उठा सकते हैं। इस किताब में जगह-जगह से लिया गया चित्र, पाठकों को भी उसके बारे में सोचने पर मजबुर कर देता है और उसके मन को अपने पास खीच लेता है।

मैला ढोने के बजबजाते यथार्थ से मुठभेड़ करती भाषा सिंह की किताब 'अदृश्य भारत' प्रतिबद्ध लेखन की बेहतरीन बानगी है। यह भारत की अंतर्यात्रा, सामाजिक व्यवस्था के कुछ अनदेखे, अनकहे सच से साक्षात्कार कराती है। इस तरीके से कि आत्मा के उजले वितान (तंबू) पर मानव मल का (मानव सिर पर लदा) बोझ भारी पडऩे लगता है। वितान में बोझ थामने की कूवत वैसे भी कहां होती है। अंतश्चेतना को झकझोरती भारतीय समाज की अंदरूनी असलियत से रूबरू कराने वाली यह किताब लेखिका की सात वर्षों की मेहनत, फील्डवर्क और आत्मसंघर्षी सोच-विचार की परिणति है।

आजादी के छः दशक बीतने के बावजूद सिर पर मैला उठाने की अमानवीय प्रथा जारी है। किताब के आमुख में सफाई कर्मचारी आंदोलन के अखिल भारतीय नेता बेजवाड़ा विल्सन ने कुछ बुनियादी सवाल उठाए हैं। ये सवाल देश की संसदीय लोकतंत्र की कार्यप्रणाली व नीयत को प्रश्नांकित करते हैं। बेजवाड़ा जोर देकर कहते हैं कि जाति प्रथा ने पूरी सफाई कामगार जाति का अनुकूलन किया और उसे असुरक्षा के गहरे गड्ढे में धकेल दिया।

भारत सरकार ने 1993 में इस प्रथा पर कानूनी प्रतिबंध लगा दिया। बेजवाड़ा पूछते हैं कि प्रतिबंध के बावजूद यह प्रथा जारी क्यों है? भारत सरकार ने जाने कितनी बार संकल्प लिया कि अमुक तारीख तक इस प्रथा का उन्मूलन कर दिया जाएगा। लेकिन यह लक्ष्य कभी पूरा नहीं हुआ। निर्धारित तारीखें टलती रहीं, आगे बढ़ाई जाती रहीं।

भूमिका में भाषा सिंह ने इस किताब के तैयार होने की प्रक्रिया का ब्यौरा दिया है। जाति-व्यवस्था की बारीकी समझने की इच्छा रखने वाले अध्येता इससे लाभ उठा सकते हैं। मैला ढोने वालों पर स्टोरी करते-करते भाषा स्वयं उसी समुदाय की सदस्य बनती गईं। गुजरात की एक बैठक (जन सुनवाई) के दौरान उन्हें किसी ने 'माथु मैलू पत्रकार' कहा। इसका अर्थ हुआ कि 'मैला ढोने वाले' समुदाय की कोई लड़की। भाषा सिंह ने अपनी वामपंथी पृष्ठभूमि, बौद्धिक प्रशिक्षण के संदर्भ से इस समाज में 'डिक्लास' और 'डिकास्ट' होने की जरूरत पर जो टिप्पणी की है वह बहुत मूल्यवान है। लेखिका के अनुभवों की रोशनी में देखा जाए तो 'डिकास्ट' से बेहतर शब्द 'अवजातीकरण' ठहरता है। भाषा 'कास्ट सिस्टम' से बाहर नहीं आईं। वे जाति के पदानुक्रम में नीचे समझी जाने लगीं। यही अवजातीकरण है।

दस राज्यों में किए भाषा सिंह के इस फील्ड वर्क का परिणाम सिर्फ उनके व्यक्त्विांतरण के रूप में घटित नहीं होता। इस काम से, किताब के तमाम अध्यायों से गुजरने वाले का 'माइंडसेट' भी बदलता है। मैला उठाने के काम से जुड़ी शब्दावली, उपकरणों के नाम, मल विसर्जन से लेकर मल को ठिकाने लगाने तक की प्रक्रिया का आंखों देखा वर्णन भावकोष में, शब्दकोश में, परिवर्तनकामी अभियानों के विचारकोश में बहुत कुछ जोड़ता है। समाज भाषा विज्ञान में रुचि रखने वाले इस दस्तावेजीकरण से बहुत लाभ उठा सकते हैं। लेखिका सफाई कामगार समुदाय को सर्वत्र समग्रता में देखने का प्रयास करती हैं। वे उनके भोजन बनाने की विधि से लेकर उनकी राजनीतिक समझ, उनकी विश्व दृष्टि तक की पड़ताल करती चलती हैं। नए तथ्य, नई तफसीलें, नए बदलाव इस क्रम में उजागर होते दिखते हैं। दुनिया को देखने, उससे मुखातिब होने, उसे बदलने का तरीका इस पुस्तक से गुजरते हुए पुनर्परिभाषित होता चलता है।

ऐसा माना जाता है कि मल उठाने के काम में स्त्रियां ही लगी हुई हैं। लेकिन, कश्मीर में पुरुष भी यह काम करते हैं। वहां की बोली में यह काम 'टच पाजिन' कहा जाता है और इसे करने वाले वातल कहे जाते हैं। लेखिका के अनुसार 'कश्मीर जाकर ही पता चला कि वहां बड़े पैमाने पर शुष्क शौचालय हैं। शायद पूरे देश में सबसे ज्यादा।'

दिल्ली में लेखिका ने मैला उठाने का काम सुंदर नगरी, तिसर पिरता, मांडोली तथा नंदनगरी आदि में देखा। इसे उन्होंने 'संसद की नाक तले मैले में दबा कानून' नाम दिया। नंदनगरी की मीना की करुण कहानी दहला देती है। इसी काम की वजह से उसे इंफेक्शन हुआ और विकलांग बेटी पैदा हुई। बिहार के सत्ताइस जगहों पर 'मैनुअल स्केवेंजिंग' का काम फील्ड वर्क के दौरान पाया गया।

किताब के दूसरे खंड में भाषा सिंह ने इस प्रथा से जुड़े कानूनों तथा सरकारी नीतियों और दावों का विश्लेषण किया है। पूरी किताब में यथास्थान लेखिका द्वारा खींचे गए चित्र पाठकों को भी घटनास्थल पर पहुंचा देते हैं। इस काम के लिए भाषा सिंह की जितनी तारीफ की जाए कम है।

(लेखक साहित्य समीक्षक हैं।)

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