परंपराओं में ही है जल संकट का समाधान

water crisis
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जलसंकट का बड़ा कारण केवल बढ़ती खपत या आबादी नहीं है, हमें नई विधियों को पुरानी परंपराओं के साथ समावेश करके ही जल व्यवस्था पर मंथन करना चाहिए, जिसका मुख्य आधार वर्षा जल ही है। जलसंकट की वजह यह तो नहीं मानी जा सकती कि हमारे पास पर्याप्त पानी नहीं है, क्योंकि हमारे यहां किसी भी तरह के पानी का स्रोत वर्षा ही है। और वर्षा प्रायः हर वर्ष बराबर मात्रा में होती है। फिर भी पानी का संकट है। सदियों से भारत का समाज जलसंकट का सामना करता रहा है। और ढेरों परंपरायें विकसित की हैं जलसंकट से निजात के लिए। इन्हीं परंपराओं में हीं जलसंकट का समाधान छिपा है बता रहे हैं अनिल जोशी।

देश में जलसंकट पूरे जोरों पर है। हर जगह त्राहि-त्राहि मची है। विडंबना है कि यह मात्र गर्मियों का ही किस्सा नहीं, बल्कि पूरे वर्ष की विपदा बन गई है। हालात इस तरह बिगड़ रहे हैं कि जहां पानी के संकट का प्रश्न ही नहीं होना चाहिए था, वहां भी पानी की मारामारी शुरू हो गई है। राजस्थान, दिल्ली व मध्य भारत के अनेक राज्यों में पानी के अपर्याप्त स्रोतों के कारण जलसंकट समझ में आता है, मगर हिमालयी राज्यों में, जहां तमाम नदियां बहती हैं, इस संकट की बात गले नहीं उतरती। सच्चाई यह है कि अकेले उत्तराखंड के 16,000 गांवों में आधे से ज्यादा गांव जलसंकट से हलकान हैं।

हिमाचल प्रदेश में सिरमोर जिले की 26 ग्राम सभाएं पूरे वर्ष पानी का ही रोना रोती हैं। कुछ ऐसा ही हाल अन्य हिमालयी राज्यों, जैसे कि जम्मू-कश्मीर, मणिपुर, मेघालय आदि में भी है। मौजूदा जलसंकट की वजह यह तो नहीं मानी जा सकती कि हमारे पास पर्याप्त पानी नहीं है, क्योंकि हमारे यहां किसी भी तरह के पानी का स्रोत वर्षा ही है। और वर्षा प्रायः हर वर्ष बराबर मात्रा में होती है। लिहाजा वर्षा को ही केंद्रित कर जल नियोजन होना चाहिए, ताकि इस संकट का समाधान निकल सके। दरअसल, हमारी जल नीति कभी खरी नहीं उतरी। एक तो 1982 में बनी जल नीति का अवलोकन लंबे समय तक (करीब 20 वर्षों तक) नहीं हो सका, फिर बाद में जो नीति बनी, वह भी ज्यादातर खोखली-सी ही है। मसलन, जल नीति में प्राथमिकता के अनुसार पीने का पानी सबसे ऊपर है, फिर सिंचाई, ऊर्जा व अन्य उपयोगों का स्थान तय किया गया है, लेकिन हालात इसके एकदम उलट हैं।

उत्तराखंड का ही उदाहरण लें, तो गंगा-यमुना के इस राज्य में लगभग 8,000 से ज्यादा गांव पेयजल संकट से गुजर रहे हैं। टिहरी बांध के जलागम के चारों तरफ के गांवों में पानी की भारी किल्लत है। हिमाचल प्रदेश के सिरमोर जिले में बना रेणुका बांध सुदूर दिल्ली के पानी की चिंता तो करता है, पर स्थानीय गांवों को नकारता है। इतना ही नहीं, सभी राज्य सरकारों की प्राथमिकता में सबसे ऊपर पीने का पानी नहीं, बल्कि बांध हैं, ताकि ऊर्जा की आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। बेशक बढ़ते शहरीकरण व उद्योगों के लिए ऊर्जा की जरूरत को देखते हुए ऐसा करना आवश्यक है, पर इससे जल नीति का साफ उल्लंघन होता है। जल नीति में इस बात पर भी जोर दिया गया है कि किसी भी स्थान से जल के अन्य स्थान पर स्थानांतरण से पहले स्थानीय जरूरतों की पूर्ति होनी चाहिए। पर ऐसा कभी नहीं हुआ। हमेशा गांव की जरूरतों को दरकिनार कर शहरों की जरूरतों को पूरा किया गया। गंगा, यमुना व बह्मपुत्र बेसिन इसके उदाहरण हैं।

हमारी जल नीति की इससे बडी विडंबना और क्या हो सकती है कि हिमालयी क्षेत्र में प्रचुर जल उपलब्ध होने और राजस्थान में पानी का साधन न होने के बावजूद, दोनों ही क्षेत्र के गांव एक समान पानी का रोना रोते है। एक जमाना था, जब पानी की पारंपरिक व्यवस्थाएं काम करती थीं, जो गांवों में ही तय होती थीं। उसमें हर तरह के नियमों का पालन कर पानी के संरक्षण की पहल होती थी। हालांकि मजेदार बात यह भी है कि तमाम नई कवायदों के बीच हिमालयी राज्यों के 60 प्रतिशत से ज्यादा गांवों में पानी के स्रोत धारे, नाले, चाल, ताल व खाल रहे हैं। इसी तरह पूरे दक्षिण भारत में परंपरागत तालाब जल के सशक्त आधार रहे हैं, और आज भी सिंचाई से लेकर पीने तक के पानी की आपूर्ति इन्हीं तालाबों से होती है। लिहाजा अब जबकि हम पानी की नई व्यवस्थाओं से त्रस्त हैं, पुरानी परंपराओं का नए सिरे से अवलोकन करना बेहतर होगा। हमें नई विधियों को पुरानी परंपराओं के साथ समावेश करके ही जल व्यवस्था पर मंथन करना चाहिए, जिसका मुख्य आधार वर्षा जल ही है। हमें यह भी सीखना होगा कि प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन में नए विज्ञान की भूमिका उतनी महत्वपूर्ण नहीं हो सकती, जितना परंपरागत ज्ञान हो सकता है। लिहाजा दोनों में सामंजस्य जरूरी है। जल संकट का बड़ा कारण केवल बढ़ती खपत या आबादी नहीं है, हमने नदी, तालाबों, कुओं के सही संरक्षण के अभाव में भी पानी खोया है। भविष्य में जलसंकट से बचने के लिए इसे स्थायी आपदा का दर्जा देना भी जरूरी है।
 

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