Posted on 08 Jul, 2013 02:49 PMयों देश खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हो चुका है। लेकिन भंडारण की सही व्यवस्था न होने की वजह से हर साल करोड़ों रुपए का अनाज बर्बाद हो जाता है। दूसरी तरफ देश की एक बड़ी आबादी को दोनों जून का खाना मयस्सर नहीं होता। रखरखाव और वितरण में व्याप्त बदइंतजामी के बारे में बता रहे हैं प्रदीप सिंह।
Posted on 08 Jul, 2013 01:21 PMउसका ललित प्रवाह लसित सब लोको में है। उसका रव कमनीय भरा सब ओकों में है।। उसकी क्रिड़ा-केलि कल्प-लतिका सफला है। उसकी लीला लोल लहर कैवल्य कला है। मूल अमरपुर अमरता सदा प्रेमधारा रही। वसुंधरा तल पर वही लोकोत्तरता से बही।।1।।
रवि किरणें हैं इसी धार में उमग नहाती। इसीलिए रज तक को हैं रंजित कर जातीं।। कला कलानिधी कलित बनी पाकर वह धारा।
Posted on 07 Jul, 2013 02:44 PMभारत पूर्व में ‘मानसून अर्थव्यवस्था’ के नाम से जाना जाता था। परंतु अब ऐसा नहीं है। 1970 के दशक के मध्य तक वर्ष के पूर्वाद्ध में विकासदर ऋणात्मक (नकारात्मक) हुआ करती थी और उत्तरार्द्ध में 3 से 4 प्रतिशत की दर से अर्थव्यवस्था में वृद्धि होती थी। यही औसत हिंदू विकास दर कहलाता था। परंतु उसके बाद से केवल दो वर्षों में ही हमारी विकास दर 3 प्रतिशत से कम रही। अरविंद पाणिग्रही का कहना है कि अर्थव्यवस्था मे
Posted on 07 Jul, 2013 02:27 PM प्राकृतिक संसाधनों की खपत का बेकाबू दैत्य पूरी पृथ्वी के लिए घातक सिद्ध हो रहा है। विश्व भर में आवाज उठने लगी है कि विकास के नाम पर अनियंत्रित दोहन पर रोक लगनी ही चाहिए। खतरे की इस इबारत को देखने और समझने का सिलसिला अभी शुरू हुआ हो, ऐसा भी नहीं है। 1704 में न्यूटन ने यह जता दिया था कि पृथ्वी 2060 तक नष्ट हो जाएगी। न्यूटन के इस विचार का आधार क्या था? प्रकृति का नैसर्गिक सौंदर्य आदिकाल से मनुष्य को लुभाता रहा है। सौंदर्य के अलावा हमारे जीवन का स्पंदन भी इस प्रकृति के कारण ही संभव है, पर क्या हम इससे जितना लेते हैं उसका कोई अंश वापस देने की भी कोशिश करते हैं? शायद भूलकर भी नहीं, बल्कि सच तो यह है कि हम अपनी जरूरतों की सीमा-रेखा का भरपूर उल्लंघन कर रहे हैं। जब भी कोई प्राकृतिक आपदा आती है तो यह बहस जरूर शुरू हो जाती है कि यह आपदा वाकई प्रकृति के कारण आई अथवा इसे प्रकृति से की जा रही छेड़छाड़ का नतीजा माना जाए। उत्तराखंड की इस बेहद विनाशकारी त्रासदी पर भी बहसों का बाजार गर्म है, लेकिन इसी के बरअक्स गांधी के एक ऐसे विचार की याद आ रही है, जिस पर कभी भी इतना ध्यान नहीं दिया गया, जितना अपेक्षित था।
Posted on 04 Jul, 2013 09:21 AMआज बढ़ती आबादी व निर्बाध रूप से हो रहे निर्माण कार्यों का कारण धरती से जंगल खत्म होते जा रहे हैं। जंगल धरती की ऐसी प्राकृतिक संपदा है जो धरती पर मनुष्यों व जीव-जंतुओं के जीवन को आसान व रहने योग्य बनाते हैं। जंगल सैकड़ों जीव जंतुओं को ही नहीं, जड़ी-बूटियों को भी आश्रय देते हैं। जंगल पर्यावरण के लिहाज से ही नहीं, किसी देश की अर्थव्यवस्था के लिए भी बेहद जरूरी है। दुनिया भर में जंगलों को बचाने पर बहुत