यमुना-छवि

तरनि-तनुजा-तट तमाल तरुवर बहु छाए।
झुके कूल सौं जल-परसन-हित मनहु सुहाए।।
किधौं मुकुर में लखत उझकि सब निज-निज शोभा।
कै प्रनवत जल जानि परम पावन फल लोभा।।
मनु आतप-वारन तीर कौ, सिमिट सबैं छाए रहत।
कै हरि-सेवा-हित नै रहै निरखि नैन नित सुख लहत।।

कहुँ तीर पर अमल कमल सोभित बहु भाँतिन।
कहुँ सैवालिन मध्य कुमुदिनी लगि रहि पाँतिन।।
मनु दृग घारि अनेक जमुन निरखत ब्रज-शोभा।
कैं उमगे प्रिय-प्रिया-प्रेम के अनगिन गोभा।।
कै करिकै कर बहु पीय कौ, टेरत निज ढिग सोहई।
कै पूजन को उपचार लै, चलति मिलन मन मोहई।।

परत चन्द-प्रतिबिंब कहुँ जल-मधि चमकायो।
लोल लहरि लहि नचत कबहुँ सोई मन भायो।।
मनु-हरि-दरसन-हेतु चंद जल बसत सुहायो।
कै तरंग-कर मुकुट लिए सोभित छबि छायो।।
कै रास-रमन में हरि मुकुट, आभा जल दिखरात है।
कै जल-उर हरि-मूरति बसत, ता प्रतिबिंब लखात है।।

कबहुँ होत सत चंद, कबहुँ प्रगटत दुरि भाजत।
पवन-गबन-वस बिंब रूप जल में बहु साजत।।
मनु ससि भरि अनुराग जमुन जल लोटत डोलैं।
कै तरंग की ठोर-हिंडोलनि करत किलौलैं।।
कै बाल-गुड़ी नभ में उड़ी, सोहति इत-उत धावती।
कै अवगाहत डोलत कोउ, ब्रज-रमनी जल आवती।।

मनु जुग पक्ष प्रतच्छ होत मिटि जात जमुन-जल।
कै तारागन ठगत, लुकत, प्रकटत ससि अविकल।।
कै कालिंदी-नीर तरंग जिते उपजावत।
तितनेई धरि रूप मिलन हित तासौं धावत।।
कै बहुत रजत चकई चलत, कै फुहार-जल उच्छरत।
कै निसिपति मल्ल अनेक विधि, उठि बैठत कसरत करत।।

कूजत कहुँ कल हंस, कहुँ मज्जत पारावत।
कहुँ कारंडव उड़त, कहुँ जल कुक्कुट धावत।।
चक्रवात कहुँ बसत, कहुँ बक ध्यान लगावत।
सुक-पिक जल कहुँ-कहुँ पियत, कहुँ भ्रमरावलि गावत।।
कहुँ तट पै नाचत मोर बहु, रोर विविध पंछी करत।
जल-पान न्हान करि सुख भरे, तट-शोभा सब जिय धरत।।

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