यों देश खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हो चुका है। लेकिन भंडारण की सही व्यवस्था न होने की वजह से हर साल करोड़ों रुपए का अनाज बर्बाद हो जाता है। दूसरी तरफ देश की एक बड़ी आबादी को दोनों जून का खाना मयस्सर नहीं होता। रखरखाव और वितरण में व्याप्त बदइंतजामी के बारे में बता रहे हैं प्रदीप सिंह।
आज भी हमारे देश में अनाज भंडार के एक बड़े हिस्से को खुले में खंभों पर बनी छत वाले गोदामों में रखा जाता है। इसके लिए काफी हद तक अनाज प्रबंधन की नीतियों में दूरदर्शिता की कमी जिम्मेदार है। इस साल भंडारण के लिए जगह की कमी से हालात और खराब होने वाले हैं क्योंकि खुले भंडारगृहों में भी अब अनाज रखने की जगह नहीं है। जरूरी हो गया है कि अनाज के भंडारण के लिए गैरपारंपरिक तरीकों पर ध्यान दिया जाए। अस्थायी लेकिन नुकसानरोधी भंडारण तकनीक ढूंढ़ना अब अनिवार्य हो गया है क्योंकि अनाज को होने वाला नुकसान महज सरकारी अनाज डिपो तक ही सीमित नहीं रह गया है। हर साल देश में करीब चार सौ पचास रुपए करोड़ का गेहूं सड़ जाता है। एक ऐसे देश में जहां करोड़ों की आबादी को दो जून ठीक से खाना नहीं नसीब होता, वहां इतनी मात्रा में अनाजों की बर्बादी किस तरह की कहानी कहती है। क्या यह इतना आसान विषय है, मुंह बिचकाकर टाला जा सकता है? इसके लिए क्यों किसी को उत्तरदायी नहीं ठहराया जाता। सरकारें और नौकरशाही आखिर कब तक इस जिम्मेवारी से मुंह चुरा सकती है? आज ये सवाल अहम हो गए हैं।
यह विडंबना नहीं, उसकी पराकाष्ठा है- कि सरकार किसानों से खरीदे गए अनाज को खुले में छोड़कर अपना कर्तव्य पूरा समझ लेती है। फिर अनाज के खराब होने के जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ जांच शुरू होती है और यह जांच तब तक चलती रहती है जब तक वह सेवामुक्त होकर अपने घर नहीं पहुंच जाता है। किसी भी देश में जब तक अन्न के उत्पादन, भंडारण और वितरण की उचित व्यवस्था नहीं होगी, तब तक देश से कुपोषण और भुखमरी को खत्म नहीं किया जा सकता है और न ही अन्न का भंडारण सही तरीके से किया जा सकता है। जबकि सरकारी आंकड़ें यह दावा करते नहीं थकते हैं कि हम खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हो गए हैं। सरकारी दावा को एक हद तक सही माना जा सकता है। लेकिन अन्न के भंडारण और वितरण का अवैज्ञानिक तरीका जहां एक तरफ अन्न के अभाव में भूख से मौत का तांडव करा रहा है, वहीं पर दूसरी तरफ हजारों टन अनाज उचित रखरखाव के अभाव में बर्बाद हो चुका है और हो रहा है। कृषि मंत्रालय के मुताबिक इस साल में 250 मिलियन टन अन्न का उत्पादन हुआ है। पहले से ही हमारे देश के सरकारी गोदाम अन्न से भरे पड़े हैं। पिछले कुछ सालों में सरकारी नीतियों ने अन्न उत्पादन और वितरण पर ऐसी नीति अपनाई है कि देश के सामने खाद्यान्न सुरक्षा संकट में पड़ गया है।
इस समय दुनिया भर में 80 करोड़ ऐसे लोग हैं, जिन्हें दोनों जून की रोटी मयस्सर नहीं होती। इन में से करीब 40 करोड़ लोग भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में हैं और यह तब हो रहा है, जब इन देशों में खाद्यान्नों के अतिरिक्त भंडार भी भरे पड़े हैं। विश्व भर में रोजाना 24 हजार लोग भूख से मरते हैं। इस संख्या का एक तिहाई हिस्सा भारत के हिस्से में आता है। भूख से मरने वाले इन 24 हजार में से 18 हजार बच्चे हैं। इसमें छह हजार बच्चे भारतीय हैं। गरीबों को सस्ते दर पर अनाज उपलब्ध कराने के लिए हमारी सरकार के पास योजनाओं की कमी नहीं है। लेकिन उसका सही ढंग से क्रियान्वयन न हो पाने के कारण हर योजना अपने लक्ष्य तक पहुंचने के पहले ही दम तोड़ देती है। 1997 में अपनाई गई सार्वजनिक वितरण प्रणाली का मकसद यह था कि गरीबों को सस्ते मूल्य पर खाद्यान्न उपलब्ध करा कर समाज में आय के अंतर को कम किया जाए। लेकिन सार्वजनिक वितरण प्रणाली ने जिस मूल्य स्थिरता को पाना चाहा था, उसमें समफलता नहीं मिलीं और निर्धनों को सब्सिडी प्रदान करने का मकसद भी पूरा नहीं हो सका। वहीं खाद्य भंडारण नीति भी औंधे मुंह गिरी।
सरकार की उदासीनता, कारपोरेट घरानों को भंडारण में कम लाभ की वजह से अरुचि और किसानों की भंडारण में खुद की असमर्थता की वजह से अन्न की भारी पैदावार के बावजूद स्थिति विषम बनी हुई है। सरकार का हास्यास्पद-सा तर्क है कि अधिक उत्पादन और कम खपत के कारण अन्न प्रबंधन में कठिनाई आ रही है। पिछले कुछ वर्षों में खपत की तुलना में भारी स्टॉक एकत्र हो गया है। भंडारण स्थान की कमी के कारण हजारों टन अन्न खराब हो रहा है। अभी तक भारत सरकार की अन्न भंडारण की नीति बीस वर्ष को ध्यान में रखकर बनाई जाती रही है।
इस भंडारण नीति को जब तक दीर्घकालिक नहीं किया जाएगा। तब तक अन्न भंडारण को सही तरीके से अंजाम तक नहीं पहुंचाया जा सकता है। इसके साथ अन्न भंडारण को जब तक देश के निर्धन क्षेत्रों में भुखमरी को समाप्त करने की योजना से नहीं जोड़ा जाएगा, तब तक अन्न उत्पादन के लक्ष्य नहीं हासिल किए जा सकते। कृषि मंत्रालय का कहना है कि पिछले दशक में जनसंख्या वृद्धि दर की तुलना में देश में अन्न की मांग कम बढ़ी है। अब यह मांग उत्पादन से कम है। यानी भारत अब अन्न की कमी से ऊपर उठकर खाद्यान्न के मामले में सरप्लस देश बन गया है। देश में इस समय विश्व के कुल खाद्यान्न का करीब पंद्रह फीसद खपत करता है। लेकिन आज भी हमारे देश में अनाज का प्रति व्यक्ति वितरण बहुत कम है। देश के कई राज्य गेहूं उत्पादन में बहुत अधिक योगदान करते हैं। पंजाब और हरियाणा के किसान इस समय गेहूं को लेकर परेशान हैं। सरकारी योजनाएं समय पर उन्हें सुविधाएं मुहैया नहीं करा पा रही है। अगर सरकार की योजना तय समय में सिरे नहीं चढ़ी तो खुले आसमान के नीचे बारिश की बूंदों से गेहूं खराब हो जाएगा। हरियाणा के आंकड़े से अपने देश के अन्न भंडारण नीति को आसानी से समझा जा सकता है।
हरियाणा सरकार ने गेहूं खरीद का लक्ष्य 87 लाख मीट्रिक टन रखा था, जबकि नई भंडारण क्षमता बाईस लाख मीट्रिक टन है। खरीद एजेंसियां गेहूं को खरीद कर पुराने और गैरवैज्ञानिक तरीके की बोरियों में बंद कर भंडारण करती हैं। नतीजतन, मौसम की मार के चलते लाखों मीट्रिक टन अनाज हर साल खराब हो जाता है। सरकार ने कहा है कि खरीद के बाद अगर गेहूं खराब होता है तो इसकी जिम्मेवारी खरीद एजेंसियों की होगी। शायद ही कोई साल ऐसा बीतता होगा जिसमें यह सुर्खियां न बनतीं हों कि बारिश की वजह से भारी मात्रा में अनाज खराब हो गया। फिर विभाग में उस खराब अनाज को खपाने की कोशिश और संबंधित अधिकारियों के साथ कागजी जवाब तलबी का खेल चलता है। भारतीय खाद्य निगम को छह महीने के अंदर खरीद एजेंसियां द्वारा खरीदा गया अनाज का स्टाक उठाना होता है। लेकिन, हकीकत यह है कि स्टाक उठाने में कई-कई साल लग जाते हैं और इस लेट-लतीफी की मार उन लोगों पर पड़ती है जो जनवितरण प्रणाली के तहत खरीदा गया गेहूं प्रयोग करते हैं और खरीद एजेंसियों के अधिकारियों का समय जवाबदेही में बीत जाता है।
आज भी हमारे देश में अनाज भंडार के एक बड़े हिस्से को खुले में खंभों पर बनी छत वाले गोदामों में रखा जाता है। इसके लिए काफी हद तक अनाज प्रबंधन की नीतियों में दूरदर्शिता की कमी जिम्मेदार है। इस साल भंडारण के लिए जगह की कमी से हालात और खराब होने वाले हैं क्योंकि खुले भंडारगृहों में भी अब अनाज रखने की जगह नहीं है। जरूरी हो गया है कि अनाज के भंडारण के लिए गैरपारंपरिक तरीकों पर ध्यान दिया जाए। अस्थायी लेकिन नुकसानरोधी भंडारण तकनीक ढूंढ़ना अब अनिवार्य हो गया है क्योंकि अनाज को होने वाला नुकसान महज सरकारी अनाज डिपो तक ही सीमित नहीं रह गया है। किसान के खेत से लेकर अनाज मंडियों, ढुलाई के समय, भंडारण और वितरण जैसे खाद्य श्रृंखला के प्रत्येक स्तर पर अनाज का भारी नुकसान होता है।
हर साल देश में गेहूं सड़ने से करीब 450 करोड़ रुपए का नुकसान होता है। यह तो बीते सालों के आंकड़े कहते हैं, जबकि इस साल तो अनाज सड़ने के इतने बड़े आंकड़े सामने आए हैं कि दांतों तले अंगुली दबाने पर मजबूर करते हैं। हाल ही में इतना अनाज सड़ चुका है कि उससे साल भर करोड़ों भुखों का पेट भर सकता था। बीते 10 साल में 10 लाख टन अनाज बेकार हो गया, जबकि इस अनाज से छह लाख लोगों को दस साल तक भोजन मिल सकता था। सरकार ने अनाज को संरक्षित रखने के लिए 243 करोड़ रुपए खर्च कर दिए, लेकिन अनाज है कि गोदामों में सड़ता रहा। जब हम गोदामों की क्षमता से दोगुना भार उन पर डाल देते हैं तो अनाज को सड़ने से किस तरह से बचाया जा सकता है। भारतीय खाद्य निगम तो क्या, अनाज की बर्बादी में राज्य सरकारें भी पीछे नहीं रहतीं, जो गोदामों से अपने कोटे का अनाज कभी समय से नहीं उठातीं, जिसके चलते अनाज धीरे-धीरे खराब होने लगता है। देश में हर साल करीब साठ लाख टन अनाज या तो चूहे खा जाते हैं या फिर वह सड़ जाता है। अगर अनाज को सही ढंग से रखा जाए तो इससे दस करोड़ बच्चों को एक साल तक खाना खिलाया जा सकता है। करोड़ों का अनाज उचित भंडारण के अभाव में वर्षा, सीलन, कीड़ों और चूहों के कारण नष्ट हो जाता है।
भारतीय खाद्य निगम के आंकड़ों के मुताबिक 2008 से 2010 तक 35 मीट्रिक टन अनाज भंडारण सुविधाओं की कमी की वजह से नष्ट हो गया। ऐसा नहीं है कि भारत में खाद्य भंडारण के लिए कोई कानून नहीं है। 1979 में खाद्यान्न बचाओ कार्यक्रम शुरू किया गया था। इसके तहत किसानों में जागरूकता पैदा करने और उन्हें सस्ते दामों पर भंडारण के लिए टंकियां उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया था। इसके बावजूद आज भी लाखों टन अनाज बर्बाद होता है। पिछले वित्तीय वर्ष में केंद्रीय कृषि एवं खाद्य मंत्री शरद पवार ने लोकसभा में ग्यारह हजार टन खाद्यान्न के खराब हो जाने की बात स्वीकारी थी। देश में एफसीआई के गोदामों में कुल ग्यारह लाख सात सौ आठ टन अनाज खराब हुआ है। पिछले तीन साल में करीब 58 हजार टन अनाज खराब हुआ। इस तरह इस साल तक खराब हुए अनाज को अगर मिला लिया जाए तो चार साल में देश में कुल 71 हजार 47 टन अनाज यों ही बर्बाद हो गया है। केंद्र सरकार ने भंडारण और रास्ते में होने वाले नुकसान को कम करने और आधुनिक प्रौद्योगिकी का उपयोग आरंभ करने के लिए, मंत्रिमंडल की आर्थिक कार्य समिति ने 20 जून, 2000 को हुई अपनी बैठक में खाद्यान्नों के रखरखाव, भंडारण और ढुलाई के संबंध में राष्ट्रीय नीति का अनुमोदन किया था।
भारत का अन्न प्रबंधन संकट में है। पिछले कुछ वर्षों में खपत की तुलना में भारी स्टॉक इकट्ठा हो गया है। भंडारण स्थान की कमी के कारण यह स्टॉक खराब हो रहा है और केंद्र इस स्टॉक के रख-रखाव पर कृषि, ग्रामीण विकास और सिंचाई एवं बाढ़ नियंत्रण पर कुल मिलाकर किए जाने वाले व्यय से अधिक व्यय कर रहा है। खाद्यान्नों के उत्पादन एवं वितरण की नीतियां देश की विकास रणनीति का अभिन्न अंग होनी चाहिए। अब सरकार इस पर ध्यान दे रही है। इसी को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार ने अपनी महत्वाकांक्षी योजना खाद्य सुरक्षा बिल पर काम कर रही है। वर्तमान सार्वजनिक वितरण प्रणाली के उद्देश्यों जैसे मूल्यों में स्थिरता और वितरण द्वारा अन्न को पहुंच में रखना, बहुलता वाले क्षेत्रों से कमी वाले क्षेत्रों में निर्धनों के लिए अन्न उपलब्ध कराने जैसे मुद्दों को भविष्य में भी उपेक्षित नहीं छोड़ा जा सकता।
देश की सरकार हर साल बारह-तेरह रुपए प्रति किलो के भाव से गेहूं खरीद कर भंडारण के अभाव में सड़ा देती है। फिर वहीं गेहूं शराब कंपनियों को पांच-छह रुपए प्रति किलोग्राम और कई बार तो इससे भी कम दाम में बेच देती है। यह अजीब विडंबना है कि जिस अनाज से भूखों का पेट भरा जाना चाहिए था, उससे शराब कंपनियां मालामाल होती हैं। सरकार अन्न का भंडारण और गरीबों के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली योजना तो चला रही है। लेकिन ये सब भी सरकार की अन्न योजनाओं की तरह ही कुप्रबंधन की शिकार है।
कपड़े और घर के अभाव में तो आदमी कुछ सालों तक जिंदा रह सकता है। लेकिन पेट की भूख शांत न होने पर वह बहुत दिनों तक जिंदा नहीं रह सकता है। देश में अन्न उत्पादन सरप्लस हो गया है, लेकिन भुखमरी के शिकार लोगों के लिए सरकारी स्तर पर कोई ऐसी योजना नहीं है जो कारगर हो। हमारे देश अन्न भंडारण एक हद तक मानसून पर निर्भर हैं। यह मानसून एक साथ तबाही और हरियाली दोनों लाता है। अगर बारिश सही समय पर हुई तो खेती किसानी अच्छी होगी। लेकिन वहीं पर गोदामों के अभाव में अन्न बरसात की वजह से सड़ने लगता है। देश में भारतीय खाद्य निगम के गोदाम खरीदे गए अन्न को रख पाने में सक्षम नहीं है। हर क्षेत्र में एफडीआई लाने की बात करने वाली सरकार अन्न भंडारण के क्षेत्र में विदेशी कंपनियों को क्यों नहीं आने को प्रोत्साहित करती? अन्न भंडारण भी भ्रष्टाचार की शिकार है। सरकारी स्तर पर खरीदे गए गेहूं को गरीबों को देने की बजाय सड़ाना अधिक फायदेमंद समझा जाता है, क्योंकि सड़ने पर गेहूं में हुए भ्रष्टाचार को पकड़ा नहीं जा सकता है और शराब कंपनियों को गेहूं बेचने में कमीशनखोरी भी होती है।
आज भी हमारे देश में अनाज भंडार के एक बड़े हिस्से को खुले में खंभों पर बनी छत वाले गोदामों में रखा जाता है। इसके लिए काफी हद तक अनाज प्रबंधन की नीतियों में दूरदर्शिता की कमी जिम्मेदार है। इस साल भंडारण के लिए जगह की कमी से हालात और खराब होने वाले हैं क्योंकि खुले भंडारगृहों में भी अब अनाज रखने की जगह नहीं है। जरूरी हो गया है कि अनाज के भंडारण के लिए गैरपारंपरिक तरीकों पर ध्यान दिया जाए। अस्थायी लेकिन नुकसानरोधी भंडारण तकनीक ढूंढ़ना अब अनिवार्य हो गया है क्योंकि अनाज को होने वाला नुकसान महज सरकारी अनाज डिपो तक ही सीमित नहीं रह गया है। हर साल देश में करीब चार सौ पचास रुपए करोड़ का गेहूं सड़ जाता है। एक ऐसे देश में जहां करोड़ों की आबादी को दो जून ठीक से खाना नहीं नसीब होता, वहां इतनी मात्रा में अनाजों की बर्बादी किस तरह की कहानी कहती है। क्या यह इतना आसान विषय है, मुंह बिचकाकर टाला जा सकता है? इसके लिए क्यों किसी को उत्तरदायी नहीं ठहराया जाता। सरकारें और नौकरशाही आखिर कब तक इस जिम्मेवारी से मुंह चुरा सकती है? आज ये सवाल अहम हो गए हैं।
यह विडंबना नहीं, उसकी पराकाष्ठा है- कि सरकार किसानों से खरीदे गए अनाज को खुले में छोड़कर अपना कर्तव्य पूरा समझ लेती है। फिर अनाज के खराब होने के जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ जांच शुरू होती है और यह जांच तब तक चलती रहती है जब तक वह सेवामुक्त होकर अपने घर नहीं पहुंच जाता है। किसी भी देश में जब तक अन्न के उत्पादन, भंडारण और वितरण की उचित व्यवस्था नहीं होगी, तब तक देश से कुपोषण और भुखमरी को खत्म नहीं किया जा सकता है और न ही अन्न का भंडारण सही तरीके से किया जा सकता है। जबकि सरकारी आंकड़ें यह दावा करते नहीं थकते हैं कि हम खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हो गए हैं। सरकारी दावा को एक हद तक सही माना जा सकता है। लेकिन अन्न के भंडारण और वितरण का अवैज्ञानिक तरीका जहां एक तरफ अन्न के अभाव में भूख से मौत का तांडव करा रहा है, वहीं पर दूसरी तरफ हजारों टन अनाज उचित रखरखाव के अभाव में बर्बाद हो चुका है और हो रहा है। कृषि मंत्रालय के मुताबिक इस साल में 250 मिलियन टन अन्न का उत्पादन हुआ है। पहले से ही हमारे देश के सरकारी गोदाम अन्न से भरे पड़े हैं। पिछले कुछ सालों में सरकारी नीतियों ने अन्न उत्पादन और वितरण पर ऐसी नीति अपनाई है कि देश के सामने खाद्यान्न सुरक्षा संकट में पड़ गया है।
इस समय दुनिया भर में 80 करोड़ ऐसे लोग हैं, जिन्हें दोनों जून की रोटी मयस्सर नहीं होती। इन में से करीब 40 करोड़ लोग भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में हैं और यह तब हो रहा है, जब इन देशों में खाद्यान्नों के अतिरिक्त भंडार भी भरे पड़े हैं। विश्व भर में रोजाना 24 हजार लोग भूख से मरते हैं। इस संख्या का एक तिहाई हिस्सा भारत के हिस्से में आता है। भूख से मरने वाले इन 24 हजार में से 18 हजार बच्चे हैं। इसमें छह हजार बच्चे भारतीय हैं। गरीबों को सस्ते दर पर अनाज उपलब्ध कराने के लिए हमारी सरकार के पास योजनाओं की कमी नहीं है। लेकिन उसका सही ढंग से क्रियान्वयन न हो पाने के कारण हर योजना अपने लक्ष्य तक पहुंचने के पहले ही दम तोड़ देती है। 1997 में अपनाई गई सार्वजनिक वितरण प्रणाली का मकसद यह था कि गरीबों को सस्ते मूल्य पर खाद्यान्न उपलब्ध करा कर समाज में आय के अंतर को कम किया जाए। लेकिन सार्वजनिक वितरण प्रणाली ने जिस मूल्य स्थिरता को पाना चाहा था, उसमें समफलता नहीं मिलीं और निर्धनों को सब्सिडी प्रदान करने का मकसद भी पूरा नहीं हो सका। वहीं खाद्य भंडारण नीति भी औंधे मुंह गिरी।
सरकार की उदासीनता, कारपोरेट घरानों को भंडारण में कम लाभ की वजह से अरुचि और किसानों की भंडारण में खुद की असमर्थता की वजह से अन्न की भारी पैदावार के बावजूद स्थिति विषम बनी हुई है। सरकार का हास्यास्पद-सा तर्क है कि अधिक उत्पादन और कम खपत के कारण अन्न प्रबंधन में कठिनाई आ रही है। पिछले कुछ वर्षों में खपत की तुलना में भारी स्टॉक एकत्र हो गया है। भंडारण स्थान की कमी के कारण हजारों टन अन्न खराब हो रहा है। अभी तक भारत सरकार की अन्न भंडारण की नीति बीस वर्ष को ध्यान में रखकर बनाई जाती रही है।
इस भंडारण नीति को जब तक दीर्घकालिक नहीं किया जाएगा। तब तक अन्न भंडारण को सही तरीके से अंजाम तक नहीं पहुंचाया जा सकता है। इसके साथ अन्न भंडारण को जब तक देश के निर्धन क्षेत्रों में भुखमरी को समाप्त करने की योजना से नहीं जोड़ा जाएगा, तब तक अन्न उत्पादन के लक्ष्य नहीं हासिल किए जा सकते। कृषि मंत्रालय का कहना है कि पिछले दशक में जनसंख्या वृद्धि दर की तुलना में देश में अन्न की मांग कम बढ़ी है। अब यह मांग उत्पादन से कम है। यानी भारत अब अन्न की कमी से ऊपर उठकर खाद्यान्न के मामले में सरप्लस देश बन गया है। देश में इस समय विश्व के कुल खाद्यान्न का करीब पंद्रह फीसद खपत करता है। लेकिन आज भी हमारे देश में अनाज का प्रति व्यक्ति वितरण बहुत कम है। देश के कई राज्य गेहूं उत्पादन में बहुत अधिक योगदान करते हैं। पंजाब और हरियाणा के किसान इस समय गेहूं को लेकर परेशान हैं। सरकारी योजनाएं समय पर उन्हें सुविधाएं मुहैया नहीं करा पा रही है। अगर सरकार की योजना तय समय में सिरे नहीं चढ़ी तो खुले आसमान के नीचे बारिश की बूंदों से गेहूं खराब हो जाएगा। हरियाणा के आंकड़े से अपने देश के अन्न भंडारण नीति को आसानी से समझा जा सकता है।
हरियाणा सरकार ने गेहूं खरीद का लक्ष्य 87 लाख मीट्रिक टन रखा था, जबकि नई भंडारण क्षमता बाईस लाख मीट्रिक टन है। खरीद एजेंसियां गेहूं को खरीद कर पुराने और गैरवैज्ञानिक तरीके की बोरियों में बंद कर भंडारण करती हैं। नतीजतन, मौसम की मार के चलते लाखों मीट्रिक टन अनाज हर साल खराब हो जाता है। सरकार ने कहा है कि खरीद के बाद अगर गेहूं खराब होता है तो इसकी जिम्मेवारी खरीद एजेंसियों की होगी। शायद ही कोई साल ऐसा बीतता होगा जिसमें यह सुर्खियां न बनतीं हों कि बारिश की वजह से भारी मात्रा में अनाज खराब हो गया। फिर विभाग में उस खराब अनाज को खपाने की कोशिश और संबंधित अधिकारियों के साथ कागजी जवाब तलबी का खेल चलता है। भारतीय खाद्य निगम को छह महीने के अंदर खरीद एजेंसियां द्वारा खरीदा गया अनाज का स्टाक उठाना होता है। लेकिन, हकीकत यह है कि स्टाक उठाने में कई-कई साल लग जाते हैं और इस लेट-लतीफी की मार उन लोगों पर पड़ती है जो जनवितरण प्रणाली के तहत खरीदा गया गेहूं प्रयोग करते हैं और खरीद एजेंसियों के अधिकारियों का समय जवाबदेही में बीत जाता है।
आज भी हमारे देश में अनाज भंडार के एक बड़े हिस्से को खुले में खंभों पर बनी छत वाले गोदामों में रखा जाता है। इसके लिए काफी हद तक अनाज प्रबंधन की नीतियों में दूरदर्शिता की कमी जिम्मेदार है। इस साल भंडारण के लिए जगह की कमी से हालात और खराब होने वाले हैं क्योंकि खुले भंडारगृहों में भी अब अनाज रखने की जगह नहीं है। जरूरी हो गया है कि अनाज के भंडारण के लिए गैरपारंपरिक तरीकों पर ध्यान दिया जाए। अस्थायी लेकिन नुकसानरोधी भंडारण तकनीक ढूंढ़ना अब अनिवार्य हो गया है क्योंकि अनाज को होने वाला नुकसान महज सरकारी अनाज डिपो तक ही सीमित नहीं रह गया है। किसान के खेत से लेकर अनाज मंडियों, ढुलाई के समय, भंडारण और वितरण जैसे खाद्य श्रृंखला के प्रत्येक स्तर पर अनाज का भारी नुकसान होता है।
हर साल देश में गेहूं सड़ने से करीब 450 करोड़ रुपए का नुकसान होता है। यह तो बीते सालों के आंकड़े कहते हैं, जबकि इस साल तो अनाज सड़ने के इतने बड़े आंकड़े सामने आए हैं कि दांतों तले अंगुली दबाने पर मजबूर करते हैं। हाल ही में इतना अनाज सड़ चुका है कि उससे साल भर करोड़ों भुखों का पेट भर सकता था। बीते 10 साल में 10 लाख टन अनाज बेकार हो गया, जबकि इस अनाज से छह लाख लोगों को दस साल तक भोजन मिल सकता था। सरकार ने अनाज को संरक्षित रखने के लिए 243 करोड़ रुपए खर्च कर दिए, लेकिन अनाज है कि गोदामों में सड़ता रहा। जब हम गोदामों की क्षमता से दोगुना भार उन पर डाल देते हैं तो अनाज को सड़ने से किस तरह से बचाया जा सकता है। भारतीय खाद्य निगम तो क्या, अनाज की बर्बादी में राज्य सरकारें भी पीछे नहीं रहतीं, जो गोदामों से अपने कोटे का अनाज कभी समय से नहीं उठातीं, जिसके चलते अनाज धीरे-धीरे खराब होने लगता है। देश में हर साल करीब साठ लाख टन अनाज या तो चूहे खा जाते हैं या फिर वह सड़ जाता है। अगर अनाज को सही ढंग से रखा जाए तो इससे दस करोड़ बच्चों को एक साल तक खाना खिलाया जा सकता है। करोड़ों का अनाज उचित भंडारण के अभाव में वर्षा, सीलन, कीड़ों और चूहों के कारण नष्ट हो जाता है।
भारतीय खाद्य निगम के आंकड़ों के मुताबिक 2008 से 2010 तक 35 मीट्रिक टन अनाज भंडारण सुविधाओं की कमी की वजह से नष्ट हो गया। ऐसा नहीं है कि भारत में खाद्य भंडारण के लिए कोई कानून नहीं है। 1979 में खाद्यान्न बचाओ कार्यक्रम शुरू किया गया था। इसके तहत किसानों में जागरूकता पैदा करने और उन्हें सस्ते दामों पर भंडारण के लिए टंकियां उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया था। इसके बावजूद आज भी लाखों टन अनाज बर्बाद होता है। पिछले वित्तीय वर्ष में केंद्रीय कृषि एवं खाद्य मंत्री शरद पवार ने लोकसभा में ग्यारह हजार टन खाद्यान्न के खराब हो जाने की बात स्वीकारी थी। देश में एफसीआई के गोदामों में कुल ग्यारह लाख सात सौ आठ टन अनाज खराब हुआ है। पिछले तीन साल में करीब 58 हजार टन अनाज खराब हुआ। इस तरह इस साल तक खराब हुए अनाज को अगर मिला लिया जाए तो चार साल में देश में कुल 71 हजार 47 टन अनाज यों ही बर्बाद हो गया है। केंद्र सरकार ने भंडारण और रास्ते में होने वाले नुकसान को कम करने और आधुनिक प्रौद्योगिकी का उपयोग आरंभ करने के लिए, मंत्रिमंडल की आर्थिक कार्य समिति ने 20 जून, 2000 को हुई अपनी बैठक में खाद्यान्नों के रखरखाव, भंडारण और ढुलाई के संबंध में राष्ट्रीय नीति का अनुमोदन किया था।
भारत का अन्न प्रबंधन संकट में है। पिछले कुछ वर्षों में खपत की तुलना में भारी स्टॉक इकट्ठा हो गया है। भंडारण स्थान की कमी के कारण यह स्टॉक खराब हो रहा है और केंद्र इस स्टॉक के रख-रखाव पर कृषि, ग्रामीण विकास और सिंचाई एवं बाढ़ नियंत्रण पर कुल मिलाकर किए जाने वाले व्यय से अधिक व्यय कर रहा है। खाद्यान्नों के उत्पादन एवं वितरण की नीतियां देश की विकास रणनीति का अभिन्न अंग होनी चाहिए। अब सरकार इस पर ध्यान दे रही है। इसी को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार ने अपनी महत्वाकांक्षी योजना खाद्य सुरक्षा बिल पर काम कर रही है। वर्तमान सार्वजनिक वितरण प्रणाली के उद्देश्यों जैसे मूल्यों में स्थिरता और वितरण द्वारा अन्न को पहुंच में रखना, बहुलता वाले क्षेत्रों से कमी वाले क्षेत्रों में निर्धनों के लिए अन्न उपलब्ध कराने जैसे मुद्दों को भविष्य में भी उपेक्षित नहीं छोड़ा जा सकता।
सड़े गेहूं की खपत
देश की सरकार हर साल बारह-तेरह रुपए प्रति किलो के भाव से गेहूं खरीद कर भंडारण के अभाव में सड़ा देती है। फिर वहीं गेहूं शराब कंपनियों को पांच-छह रुपए प्रति किलोग्राम और कई बार तो इससे भी कम दाम में बेच देती है। यह अजीब विडंबना है कि जिस अनाज से भूखों का पेट भरा जाना चाहिए था, उससे शराब कंपनियां मालामाल होती हैं। सरकार अन्न का भंडारण और गरीबों के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली योजना तो चला रही है। लेकिन ये सब भी सरकार की अन्न योजनाओं की तरह ही कुप्रबंधन की शिकार है।
कपड़े और घर के अभाव में तो आदमी कुछ सालों तक जिंदा रह सकता है। लेकिन पेट की भूख शांत न होने पर वह बहुत दिनों तक जिंदा नहीं रह सकता है। देश में अन्न उत्पादन सरप्लस हो गया है, लेकिन भुखमरी के शिकार लोगों के लिए सरकारी स्तर पर कोई ऐसी योजना नहीं है जो कारगर हो। हमारे देश अन्न भंडारण एक हद तक मानसून पर निर्भर हैं। यह मानसून एक साथ तबाही और हरियाली दोनों लाता है। अगर बारिश सही समय पर हुई तो खेती किसानी अच्छी होगी। लेकिन वहीं पर गोदामों के अभाव में अन्न बरसात की वजह से सड़ने लगता है। देश में भारतीय खाद्य निगम के गोदाम खरीदे गए अन्न को रख पाने में सक्षम नहीं है। हर क्षेत्र में एफडीआई लाने की बात करने वाली सरकार अन्न भंडारण के क्षेत्र में विदेशी कंपनियों को क्यों नहीं आने को प्रोत्साहित करती? अन्न भंडारण भी भ्रष्टाचार की शिकार है। सरकारी स्तर पर खरीदे गए गेहूं को गरीबों को देने की बजाय सड़ाना अधिक फायदेमंद समझा जाता है, क्योंकि सड़ने पर गेहूं में हुए भ्रष्टाचार को पकड़ा नहीं जा सकता है और शराब कंपनियों को गेहूं बेचने में कमीशनखोरी भी होती है।
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