Posted on 10 Jul, 2009 04:29 PMखबरें हैं कि मॉनसून की चाल मंद पड़ गई है। दक्षिण और मध्य भारत के कई राज्यों में वर्षा में कमी दर्ज की गई है। केरल और उत्तराखंड जैसे राज्यों के जलाशयों में पानी कम रह गया है, जिसके कारण बिजली कटौती करनी पड़ रही है। खेती पर तो मॉनसूनी वर्षा में कमी रह जाने से असर पड़ ही सकता है, पर खास तौर से शहरों में पेयजल की आपूर्ति बुरी तरह प्रभावित हो सकती है। मॉनसून की बदौलत नदियों में भरपूर पानी हो, तो पाइप ल
Posted on 09 Jul, 2009 07:19 AMग्लोबल वार्मिंग एक समस्या बनती जा रही हैं इसकी जड़ में है जीवाष्म ईंधन का अंधाधुंध इस्तेमाल, जिससे हमारा वातावरण लगातार गर्म होता जा रहा है। इसके असर से अमीर-गरीब कोई भी देश नहीं बच पाया है। इसलिए ज़रुरत अभी से संभलने की है, क्योंकि कहीं देर न हो जाए।
Posted on 09 Jul, 2009 07:03 AMपृथ्वी के अधिकतर भाग पर फैला समुद्र वायुमण्डल में गैसों के प्राकृतिक संतुलन, मौसम के संचालन और पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व में अहम भूमिका निभात आता है। ग्लोबल वॉर्मिंग के संदर्भ में समुद्र चर्चा में रहा है। समुद्री जल स्तर बढ़ने से तटीय क्षेत्रों के लिए उपस्थित खतरा, बढ़ते तापमान से उग्र होते समुद्री तूफान और बढ़ती गर्मी से समुद्री जीवन पर मंडराता संकट दुनियाभर के वैज्ञानिकों में चिंता का चर्चित वि
वैज्ञानिकों का कहना है कि बढ़ते तापमान के अन्य खतरे हो सकते हैं:
दुनिया में भारी वर्षा, बाढ़, सूखा, तूफान, चक्रवात जैसी आपात स्थितियां कही अधिक बढ़ना। गर्म अक्षांशों में वर्षा घटने से सूखे जैसी स्थिति से कृषि की पैदावार घटना। बर्फ के सर्दियों में तेजी से पिघलने से गर्मी में नदियों में पानी की कमी हो जाना।
Posted on 08 Jul, 2009 09:01 PM बढ़ते तापमान ने अब तीव्रता से असर दिखाना शुरु कर दिया है। जिसके चलते समुद्र ने भारत के दो द्वीपों को लील लिया है।हिमालय के प्रमुख हिमनद २१ प्रतिशत से भी ज्यादा सिकुड़ गए हैं। यहां तक कि अब पक्षियों ने भी भूमण्डल में बढ़ते तापमान के खतरों को भांप कर संकेत देना शुरु कर दिए हैं। इधर इस साल मौसम में आए बदलाव ने भी बढ़ते तापमान के आसन्न संकट के संकेत दिए हैं। यदि मनुष्य अभी भी पर्यावरण के प्रति ज
Posted on 07 Jul, 2009 09:15 AMदिल्ली लोकतांत्रिक भारत के विकास स्वप्नों की केन्द्रीय किल्ली है। इसलिए मानने में हर्ज नहीं कि दिल्ली की पहल पर जो भी विकास-योजनाएँ बनती हैं, उनके पीछे कहीं न कहीं ईमानदार राष्ट्रीय ख्वाहिशों का एक दबाव होता है। पर जमीन पर लागू होते वक्त ऐसी हर योजना हमारे चारों ओर फैले भारत के ठोस सामाजिक-आर्थिक यथार्थ से टकराती है। इसलिए योजना के मसौदे में भले ही जो निर्देश जारी किए गए हों, अंतत: कार्यान्वयन के