भारत

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पृथ्वी पानी का देश है
Posted on 17 Jun, 2011 09:09 AM पृथ्वी के तीन हिस्से से अधिक में
पानी की बसाहट (है)
कितने-कितने तो ढंग की-
कितने-कितने तो रंग की

पृथ्वी के भीतर-बाहर
पानी की कितनी चहल-पहल
जिसमें हलचल नहीं
वह पानी कहाँ हुआ
पानी की पद्धति से ही
हल हो रहा जीवन का गणित
प्यार की कितनी भाषाएँ हैं
पानी के पास
बारिश एक भाषा ही तो है
कई तरह के एहसास की
मटका
Posted on 16 Jun, 2011 08:55 AM पानी रिस-रिस कर
पानी को शीतल रखता है
इसी (सु) क्रिया से मटका
पानी पर मरता है

खाली रहना मटका को
बहुत भारी लगता है
बीतता नहीं उसका वक़्त
खालीपन के बोझ से
मटका लुढ़कता रहता है
इधर से उधर-उधर से इधर

अनमास लेने के बाद तो
बिन पानी के लगता नहीं मटका का जी
और उजड़ने लगती है उसकी रंगत

अपने पानी से भेंट
घट-ध्वनि
Posted on 15 Jun, 2011 09:01 AM (घट-ध्वनि में गूँजती है
श्रवण कुमार की करुन-कथा)

घट-ध्वनि
कि सीने पर श्रवण कुमार
खाता है शब्दभेदी वाण

माँ-पिता की प्यास
श्रवण के घायल कलेजे में
टीसती है
पानी न दे पाने का
उसका अफ़सोस
मृत्यु के मुँह तक जाता है!

वाण से श्रवण कुमार मरता है
श्राप से राजा दशरथ

तड़पती कथा
बहती है
पानी की आवाज़
Posted on 14 Jun, 2011 09:12 AM ऊपर पानी
नीचे पानी
पानी बीच ज़िन्दगानी है

घूँट-घूँट में
बूँद-बूँद में
रंगत और रवानी है

कितनी जानी-पहिचानी है
पानी की आवाज़
जनम-जनम से
नाभिनाल इससे ही
अपनी बोली-बानी है।

महाकाल
Posted on 13 Jun, 2011 09:38 AM डमरू में नाचता है सुर
और शून्य में सबद भरता है
त्रिशूल बेधे हुए है खल-परिहास
नाग का पहरा है

जलहरी में
जल में बह रहा है जल
दूध अपनी उजास में
डूबा हुआ है किसी सन्त की तरह
महाकाल को अपनी हरियाली से
नहला रही है बेलपत्री

कोई ढार गया है मधुपर्क
मंदार अपनी टहनी के सुख से
अभी भी दिख रहा है तरो-ताज़ा
घट-घाट
Posted on 11 Jun, 2011 09:38 AM प्यास
घाट गढ़ने के काम आती है
और पानी
घट गढ़ने के

पता नहीं पहले-पहल
घट से घाट बना
या घट बनने में
घाट की रही मदद

हम तो घट
और घाट की आपसदारी के कायल हैं
जिनसे ही चलता है
हमारी प्यास और पानी का
जीवन-प्रवाह
अथोर-अथाह!!

बादल
Posted on 10 Jun, 2011 10:52 AM बादल निहारते से ही
आँखों में उमड़ पड़ती है:
बाबा की कविता-‘बादल को घिरते देखा है’
और महाप्राण की ‘बादल राग’
हुलस कर हम से बोल पड़ता है
कालिदास का ‘मेघदूत’

बादल पानी का पुनीत कृतित्व है
इसीलिए उसे देखने में हमारी प्रिय रचनाएँ
होती हैं हमारे साथ

आसमान में बादल आ रहे हैं-
जा रहे हैं
जैसे मन में भाव
बातें जाग रही थीं जे़हन में
Posted on 09 Jun, 2011 09:00 AM नींद की गहरी नदी में
बहते रहे - बहते रहे
कभी किसी स्वप्न पर
जजक कर उठ गए
कभी किसी सपने पर
खिलखिला दिए हम

जुबान मुँह में सो रही थी
पर बातें जाग रही थीं जे़हन में

नभगंगा के तट से
तारामण्डल का एक प्रभाती तारा टूट कर
ले लिया पास में ही जन्म
और उसकी सद्यः जात रुलाई से (भीग)
बड़े भोर में ही जाग गए हम!
मध्यान्तर
Posted on 08 Jun, 2011 09:35 AM ठीक दोपहर बारह बजे
कुएँ में झाँकता है तमतमाया सूरज
और कुएँ में बैठा अँधेरा
भागता है रख कर सिर पर पाँव
दोपहर बारह बजे कुएँ में
सिर्फ़ सूरज की आवाज़ गूँज रही है
और पानी (उजले मन से)
पी रहा है धूप

परम तेजस्वी संज्ञा की
सुन्दर क्रिया से
कुएँ में हौले-हौले हिल रही है
पानी की कायनात

कुएँ की जगत पर
बाल्टी के पानी के साथ
लम्बा घूँट
Posted on 07 Jun, 2011 09:12 AM घूँघट के ओट से ही
उसने लम्बा घूँट भरा

झरने ने सुन लिया
और मारे खुशी के
छल-छला कर,
झर-झरा कर
नहला दिया सारा पहाड़

बिरला ही जानता है
यह संगीत है
जिसमें प्यार बजता है
(अविराम-अभिराम!)

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