भारत

Term Path Alias

/regions/india

जलवायु परिवर्तन औऱ जीवन
Posted on 07 Aug, 2010 10:21 AM

अगर समय रहते हमने पर्यावरण की सुरक्षा के लिये कदम न उठाए तो इससे धरती पर विनाश हो सकता है और हमारे जीवन के लिये भी खतरा उत्पन्न हो सकता है। आईये जाने कि जलवायु परिवर्तन कैसे मनुष्य और खासकर गरीबों के जीवन के लिये खतरा उत्पन्न कर रहा है.......

 

 

 

climate change
मनरेगाः कैसे हो आसान और पारदर्शी
Posted on 07 Aug, 2010 09:43 AM

मनरेगा को कैसे पारदर्शी, लोगों के लिये आसान और तेज बनाया जाए ताकि लोगों के जीवन में नवीन विचारों के साथ कुछ बदलाव लाया जा सके और बेहतर बनाया जा सके। इंहीं सब सवालों का जवाब दिया गया है इस बातचीत में। आईये जानें कि नरेगा को कैसे तेज और पारदर्शी बनाया जा सकता है.............
 

 

 

nrega
पारंपरिक जल संचय प्रणालियों का इतिहास
Posted on 06 Aug, 2010 10:11 AM
सदियों से जारी है जद्दोजहद
ईसा पूर्व तीसरी सहस्त्राब्दी में ही बलूचिस्तान के किसानों ने बरसाती पानी को घेरना और सिंचाई में उसका प्रयोग करना शुरू कर दिया था। कंकड़-पत्थर से बने ऐसे बांध बलूचिस्तान और कच्छ में मिले हैं।
Traditional water harvesting
मानसून की टेढ़ी चाल
Posted on 01 Aug, 2010 09:34 AM


मानसून की टेढ़ी चाल से भारत में सभी हतप्रभ हैं। पिछले कुछ वर्षो से जिस तरह से मानसून दगा दे रहा है वो भारत जैसे कृषि प्रधान देश में भारी चिंता का विषय हैं। सामान्यतः मानसून शब्द का उपयोग भारी वर्षा के पर्याय के रूप में होता है, लेकिन वस्तुतः यह हवा कि दिशा बदलने का प्रतीक है, जिससे वर्षा कि सम्भावनाएं ज्ञात होती है।

monsoon
धरती सूखी, तो क्या बारिश ही दोषी …
Posted on 28 Jul, 2010 06:58 AM
देश में पड़ रही भीषण गर्मी और बारिश में होने वाली देरी से लगभग सभी परेशान हैं और देवताओं को मनाने-पूजने का सिलसिला शुरु हो चुका है। बारिश लोगों के लिए उत्सव और खुशी का माहौल लेकर आती है, देश के लिए यह किसी वरदान से कम नहीं होती। इस बारिश पर तोहमत भी हैं, मानसून अच्छा न होने से भारत में लाखों लोग प्रतिवर्ष या तो सूखे की वजह से फ़सल खराब होने या फ़िर भारी बाढ़ में पूरे गाँव, जंगल और उपजाऊ जमीन
एक प्रथा कलंक की
Posted on 24 Jul, 2010 09:50 AM
इक्कीसवीं सदी का पहला दशक अपने अंतिम पड़ाव पर है। सारी दुनिया में तकनीक का बोलबाला है। तकनीक के कारण ही कहा जा रहा है कि पूरी दुनिया एक गांव में बदल चुकी है। विश्व में मानव अधिकारों की हर जगह चर्चा हो रही है। मानवीय गरिमा के साथ जीना हर मानव का अधिकार है। ऐसे समय में भारत में मैला प्रथा का जारी रहना देश की सभ्यता और तरक्की पर एक बदनुमा दाग की तरह है। यह मानवाधिकार का हनन भी है कि एक मनुष्य क
पेड़-पौधों को बिसराता समाज
Posted on 13 Jul, 2010 01:04 PM शहरों में रोशनीयुक्त प्लास्टिक के बड़े-बड़े वृक्ष देखकर अजीब से मितलाहट होती है। अगर शहरी बाग-बगीचों में प्राकृतिक वृक्षों एवं पौधों के लिए ही स्थान नहीं है तो इनके होने का क्या फायदा? आवश्यकता इस बात की है कि शहरों को एक बार पुनः वृक्षों से आच्छादित करने के प्रयास पूरी ईमानदारी से प्रारंभ किए जाएं तभी हम जलवायु परिवर्तन की रफ्तार को धीमा कर सकते हैं। अधिकांश शहरवासियों का अब पेड़ों से कोई वास्ता नहीं रह गया है। पेड़-पौधों से जुड़े धार्मिक, सांस्कृतिक, रीति-रिवाजों के लिए अब हमारे पास समय नहीं है। दादी मां के नुस्खों को शहरियों ने तिलांजलि दे दी है। पेड़-पौधे पर शहरी जीवन की निर्भरता नहीं रही। धीरे-धीरे यह लगने लगा है कि पेड़-पौधे बेकार हैं। दरअसल पेड़-पौधों की उपयोगिता भरे ज्ञान को हम भूल गए हैं। यही कारण है कि शहरी बंगलों में विदेशी फूलों के पौधे लगाए जाते हैं और सुंदर दिखने वाली पत्तियों को बड़े जतन से सहेजा जाता है।

पश्चिमी संस्कृति की चलती बयार से हमारा पेड़-पौधों से रिश्ता टूट सा गया। घर-आंगन में तुलसी चौरा की अनिवार्यता अब कहीं नहीं दिखती। पूजा-अर्चना के लिए फूल एवं फूलमाला की अब कोई जरुरत नहीं रही। जैसे-जैसे परिवार टूटते गए, वैसे-वैसे घर छोटा होता चला गया। पेड़- पौधों की महत्ता बताने वाले, धार्मिक, सांस्कृतिक पर्व को मनाने वाले दादा-दादी, नाना-नानी का परम्परागत ज्ञान बेकार हो चला।
×