सुनीता नारायण

सुनीता नारायण
मानसून की पहेली
Posted on 23 Jul, 2017 12:00 PM


मानसून को वैज्ञानिक जैसे ही कुछ बेहतर ढंग से समझने लगते हैं, इस जटिल परिघटना की कुछ नई उलझनें सामने आ जाती हैं।

मानसून के मायने
Posted on 20 Jul, 2017 01:01 PM

मानसून शायद अकेला मौसम है जब पूरा देश निराशा की गर्त में डूबा होता है, जब तक वर्षा नहीं हो जाती, लोगों की साँसें अटकी रहती हैं।
खानपान में संचयित रहें, बर्बादी न करें
Posted on 11 Jun, 2017 03:37 PM

हमें सुनिश्चित करना है कि भारतीय मांस (विश्व में बाकी जगहों प
Wheat
वन प्रबंधन से चमकेगी ग्रामीण भारत की सूरत
Posted on 28 May, 2017 01:40 PM

वृक्षारोपण का मतलब सिर्फ गड्ढे खोदने से नहीं है। इसके लिये एक
क्या कोई समाधान है
Posted on 27 Apr, 2017 12:18 PM

सरकार अत्यंत पेचीदा तथा महँगी तकनीकियाँ अपना रही है, जबकि हमारे पास इसके सस्ते व कारगर विकल्प उपलब्ध हैं
पुस्तक परिचय : ‘अमृत बन गया विष’
Posted on 23 Apr, 2017 01:39 PM

यह भूजल की कहानी है: अमृत का विष में परिवर्तित होने की कहानी। जिसमें हैंडपम्प से निकले हुए पानी को पीने की आम दिनचर्या भी एक जानलेवा बीमारी का स्रोत बन जाता है। यह एक ‘प्राकृतिक’ दुर्घटना नहीं है - जहाँ भूगर्भ में उपस्थित प्राकृतिक संखिया (आर्सेनिक) और फ्लोराइड पीने के पानी में अपने आप आ गया हो। यह कहानी है जान-बूझकर किए गए विषाक्तीकरण का। जिसे रूप दिया है सरकार की गलत नीतियों, ट्यूबवेल की ब
अमृत बन गया विष
अपनी बुलेटप्रू्फ कार का शीशा तो खोलिए
Posted on 16 Jan, 2016 04:24 PM

अब कार कम्पनियाँ कह रही हैं कि उनको प्रदूषण फैलाने के लिये और अवसर दिया जाए!

जलवायु-असहिष्णुता को जीतना होगा
Posted on 19 Dec, 2015 12:20 PM

पेरिस जलवायु सम्मेलन, 30 नवम्बर-12 दिसम्बर 2015 पर विशेष

नालों के किनारे बसी सभ्यता
Posted on 28 Jun, 2014 04:23 PM
हम एक ऐसी पीढ़ी बन चुके हैं, जिसने अपनी नदियां खो दी हैं। और भी परेशान करने वाली बात यह है कि हम अपने तरीके नहीं बदल रहे। सोचे-समझे ढंग से हम और ज्यादा नदियों, झीलों और ताल-तलैयों को मारेंगे। फिर तो हम एक ऐसी पीढ़ी बन जाएंगे, जिसने सिर्फ अपनी नदियां नहीं खोईं, बल्कि बकायदा जल-संहार किया है। क्या पता, एक समय ऐसा भी आएगा जब हमारे बच्चे भूल जाएंगे कि यमुना, कावेरी और दामोदर नदियां थीं। वे उन्हें नालों के रूप में जानेंगे, सिर्फ नालों के रूप में। जल ही जीवन है। पर आज हमारा जीवन अपने पीछे जो गंदगी, सीवेज छोड़ता है, उससे जल का जीवन ही खत्म हो रहा है। हमें जीवन देने वाले जल की यह है दुखद कथा। बेतहाशा शहरीकरण आने वाले दिनों में और तेज ही होता जाएगा। यह तेजी रफ्तार और दायरा, दोनों ही मामलों में दिखाई पड़ रही है।

पानी की अपनी जरूरतों को हम किस तरह व्यवस्थित करें कि हम अपने ही मल-मूत्र में डूब न जाएं, यह आज के दौर का बहुत बड़ा सवाल है और इसका जवाब हमें हर हाल में खोजना पड़ेगा।

इस मामले में अपनी खोजबीन के दौरान सबसे बड़ी दिक्कत हमारे सामने यह आती है कि हमारे देश में न तो इससे संबंधित कोई आंकड़े मिलते हैं, न इसे लेकर कोई ठीक काम हुआ है। इस मुद्दे पर कहीं कोई समझ देखने में नहीं आती है। यह हाल तब है, जब इस गंदगी, सीवेज का ताल्लुक हम सब की जिंदगी से है।
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