हम एक ऐसी पीढ़ी बन चुके हैं, जिसने अपनी नदियां खो दी हैं। और भी परेशान करने वाली बात यह है कि हम अपने तरीके नहीं बदल रहे। सोचे-समझे ढंग से हम और ज्यादा नदियों, झीलों और ताल-तलैयों को मारेंगे। फिर तो हम एक ऐसी पीढ़ी बन जाएंगे, जिसने सिर्फ अपनी नदियां नहीं खोईं, बल्कि बकायदा जल-संहार किया है। क्या पता, एक समय ऐसा भी आएगा जब हमारे बच्चे भूल जाएंगे कि यमुना, कावेरी और दामोदर नदियां थीं। वे उन्हें नालों के रूप में जानेंगे, सिर्फ नालों के रूप में। जल ही जीवन है। पर आज हमारा जीवन अपने पीछे जो गंदगी, सीवेज छोड़ता है, उससे जल का जीवन ही खत्म हो रहा है। हमें जीवन देने वाले जल की यह है दुखद कथा। बेतहाशा शहरीकरण आने वाले दिनों में और तेज ही होता जाएगा। यह तेजी रफ्तार और दायरा, दोनों ही मामलों में दिखाई पड़ रही है।
पानी की अपनी जरूरतों को हम किस तरह व्यवस्थित करें कि हम अपने ही मल-मूत्र में डूब न जाएं, यह आज के दौर का बहुत बड़ा सवाल है और इसका जवाब हमें हर हाल में खोजना पड़ेगा।
इस मामले में अपनी खोजबीन के दौरान सबसे बड़ी दिक्कत हमारे सामने यह आती है कि हमारे देश में न तो इससे संबंधित कोई आंकड़े मिलते हैं, न इसे लेकर कोई ठीक काम हुआ है। इस मुद्दे पर कहीं कोई समझ देखने में नहीं आती है। यह हाल तब है, जब इस गंदगी, सीवेज का ताल्लुक हम सब की जिंदगी से है।
हमें पानी की जरूरत पड़ती है। यह हमें भले ही थोड़ी तकलीफ से, पर प्रायः अपने घर में हासिल हो जाता है। अपना मल-मूत्र हम फ्लश करके घर से बाहर बहा देते हैं। अपनी नदियों को हम मरते हुए देख सकते हैं। लेकिन इन अलग-अलग बातों के बीच कोई सूत्र हम नहीं जोड़ते। अपने फ्लश को अपनी नदी से जोड़कर देखना हमारी आदत में नहीं है।
ऐसा लगता है कि इस बारे में हम कुछ जानना ही नहीं चाहते। हमें पूछना चाहिए कि ऐसा क्यों है। क्या यह भारतीय समाज में मौजूद जाति व्यवस्था की मानसिक परछाई है, जिसमें मल-मूत्र हटाने का काम किसी और का हुआ करता था? या इसमें अब मौजूदा प्रशासन तंत्र प्रतिबिंबित हो रहा है, जिसमें पेयजल और कचरे का निपटारा एक सरकारी काम है, वह भी पेयजल और स्वच्छता विभाग की निचले दर्जे की नौकरशाही का? या फिर इसमें सिर्फ ठेठ अक्खड़पना जाहिर होता है, जिसके तहत हम यह मानकर चलते हैं कि बस पैसा हाथ में हो तो सब कुछ दुरुस्त किया जा सकता है।
कई लोगों को लगता है कि पानी की कमी और कचरा महज तात्कालिक समस्याएं हैं, जो हमारे अमीर बनते ही रहस्यमय ढंग से गायब हो जाएंगी। उसके बाद तो देश का सारा ढांचा नए सिरे से खड़ा किया जाएगा। पानी बिल्कुल साफ बहने लगेगा और मल-मूत्र जैसी शर्मिंदा करने वाली बातें हमारे शहरों से पलक झपकते छूमंतर हो जाएंगी। वजह चाहे जो भी हो लेकिन एक बात तो साफ है कि अपने देश के पानी और कचरे के बारे में हम बहुत कम जानते हैं।
पर्यावरणविद अनिल अग्रवाल ने देश के पर्यावरण की स्थिति के बारे में नियमित रिपोर्टों की कल्पना की थी और बाकायदा इसका एक ढांचा तैयार किया। उन्होंने 1990 के दशक के अंतिम वर्षों में कहा था कि हमें उस राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझने की जरूरत है, जो देश के अमीर तबके को सुविधाजनक ढंग से मल विसर्जन करने के लिए सरकारी सहायता प्रदान करता है।
पिछले कुछ सालों की खोजबीन के दौरान हमारा सामना ऐसे न जाने कितने मामलों से हुआ है, जिसमें अभी कुछ ही पहले तक बह रही एक साफ-सुथरी नदी शहर का कचरा ढोने वाले नाले में बदल गई है। दिल्ली में आज जिसे नजफगढ़ नाले के रूप में जाना जाता है और जिससे होकर शहर की काफी सारी गंदगी यमुना में पहुंचती है, उसके बारे में बहुत कम लोगों को पता है कि उसका स्रोत एक झील है। उसे भी इसी नाम से जाना जाता था।
लोगों की जीवित स्मृति में अब यह एक नाला है, जिसमें पानी नहीं, सिर्फ प्रदूषण बहता है। इससे भी बुरी बात यह कि दिल्ली की पहाड़ियों को घेरे हुए खाली जगह में गुड़गांव नाम का जो नया शहर खड़ा हो गया है, वह अपना सारा कचरा उसी नजफगढ़ झील में डाल रहा है।
लुधियाना में बूढ़ा नाला है। बदबू और गंदगी भरा नाला। पर वह कुछ समय पहले नाला नहीं कहलाता था। तब इसे बूढ़ा दरिया कहते थे और इसमें ताजा, साफ पानी बहता था। सिर्फ एक पीढ़ी गुजरी है और इतने में ही न सिर्फ इसका रूप, बल्कि नाम भी बदल गया।
मीठी को आज हमारे चमकीले शहर मुंबई की शर्म कहा जाता है। सन् 2005 की बाढ़ में डूबते हुए इस शहर ने जाना कि उसने मीठी नाम की एक सुंदर नदी का रास्ता रोक दिया है। यह नदी नाला बनी और नाला आज प्रदूषण और अतिक्रमण से ग्रस्त है।
लेकिन मुंबई को आज भी जिस चीज का अहसास नहीं है, वह यह कि मीठी ने शहर को नहीं, शहर ने ही मीठी को शर्मिंदा किया है। यह कभी शहर के बाढ़ के पानी को निकाल कर समुद्र में मिलाती थी। पर धीरे-धीरे उस पर कब्जे होते गए। उसकी चौड़ाई ही लील गया था शहर।
इस तरह एक और शहर ने एक ही पीढ़ी में अपनी एक सुंदर नदी खो दी। लेकिन इससे हमें चकित क्यों होना चाहिए? हम अपनी नदियों से पानी उठाते हैं- पीने के लिए, सिंचाई के लिए, जलविद्युत परियोजनाएं चलाने के लिए। पानी लेकर हम उन्हें कचरा वापस करते हैं। नदी में पानी जैसा कुछ बचता ही नहीं। मल-मूत्र और औद्योगिक कचरे के बोझ से वह अदृश्य हो जाती है। हमें इस पर क्रोध आना चाहिए।
हम एक ऐसी पीढ़ी बन चुके हैं, जिसने अपनी नदियां खो दी हैं। और भी परेशान करने वाली बात यह है कि हम अपने तरीके नहीं बदल रहे। सोचे-समझे ढंग से हम और ज्यादा नदियों, झीलों और ताल-तलैयों को मारेंगे। फिर तो हम एक ऐसी पीढ़ी बन जाएंगे, जिसने सिर्फ अपनी नदियां नहीं खोईं, बल्कि बकायदा जल-संहार किया है। क्या पता, एक समय ऐसा भी आएगा जब हमारे बच्चे भूल जाएंगे कि यमुना, कावेरी और दामोदर नदियां थीं। वे उन्हें नालों के रूप में जानेंगे, सिर्फ नालों के रूप में। यह दुखस्वप्न हमारे सामने खड़ा है, हमारे भविष्य को घूर रहा है।
पानी की अपनी जरूरतों को हम किस तरह व्यवस्थित करें कि हम अपने ही मल-मूत्र में डूब न जाएं, यह आज के दौर का बहुत बड़ा सवाल है और इसका जवाब हमें हर हाल में खोजना पड़ेगा।
इस मामले में अपनी खोजबीन के दौरान सबसे बड़ी दिक्कत हमारे सामने यह आती है कि हमारे देश में न तो इससे संबंधित कोई आंकड़े मिलते हैं, न इसे लेकर कोई ठीक काम हुआ है। इस मुद्दे पर कहीं कोई समझ देखने में नहीं आती है। यह हाल तब है, जब इस गंदगी, सीवेज का ताल्लुक हम सब की जिंदगी से है।
हमें पानी की जरूरत पड़ती है। यह हमें भले ही थोड़ी तकलीफ से, पर प्रायः अपने घर में हासिल हो जाता है। अपना मल-मूत्र हम फ्लश करके घर से बाहर बहा देते हैं। अपनी नदियों को हम मरते हुए देख सकते हैं। लेकिन इन अलग-अलग बातों के बीच कोई सूत्र हम नहीं जोड़ते। अपने फ्लश को अपनी नदी से जोड़कर देखना हमारी आदत में नहीं है।
ऐसा लगता है कि इस बारे में हम कुछ जानना ही नहीं चाहते। हमें पूछना चाहिए कि ऐसा क्यों है। क्या यह भारतीय समाज में मौजूद जाति व्यवस्था की मानसिक परछाई है, जिसमें मल-मूत्र हटाने का काम किसी और का हुआ करता था? या इसमें अब मौजूदा प्रशासन तंत्र प्रतिबिंबित हो रहा है, जिसमें पेयजल और कचरे का निपटारा एक सरकारी काम है, वह भी पेयजल और स्वच्छता विभाग की निचले दर्जे की नौकरशाही का? या फिर इसमें सिर्फ ठेठ अक्खड़पना जाहिर होता है, जिसके तहत हम यह मानकर चलते हैं कि बस पैसा हाथ में हो तो सब कुछ दुरुस्त किया जा सकता है।
कई लोगों को लगता है कि पानी की कमी और कचरा महज तात्कालिक समस्याएं हैं, जो हमारे अमीर बनते ही रहस्यमय ढंग से गायब हो जाएंगी। उसके बाद तो देश का सारा ढांचा नए सिरे से खड़ा किया जाएगा। पानी बिल्कुल साफ बहने लगेगा और मल-मूत्र जैसी शर्मिंदा करने वाली बातें हमारे शहरों से पलक झपकते छूमंतर हो जाएंगी। वजह चाहे जो भी हो लेकिन एक बात तो साफ है कि अपने देश के पानी और कचरे के बारे में हम बहुत कम जानते हैं।
पर्यावरणविद अनिल अग्रवाल ने देश के पर्यावरण की स्थिति के बारे में नियमित रिपोर्टों की कल्पना की थी और बाकायदा इसका एक ढांचा तैयार किया। उन्होंने 1990 के दशक के अंतिम वर्षों में कहा था कि हमें उस राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझने की जरूरत है, जो देश के अमीर तबके को सुविधाजनक ढंग से मल विसर्जन करने के लिए सरकारी सहायता प्रदान करता है।
पिछले कुछ सालों की खोजबीन के दौरान हमारा सामना ऐसे न जाने कितने मामलों से हुआ है, जिसमें अभी कुछ ही पहले तक बह रही एक साफ-सुथरी नदी शहर का कचरा ढोने वाले नाले में बदल गई है। दिल्ली में आज जिसे नजफगढ़ नाले के रूप में जाना जाता है और जिससे होकर शहर की काफी सारी गंदगी यमुना में पहुंचती है, उसके बारे में बहुत कम लोगों को पता है कि उसका स्रोत एक झील है। उसे भी इसी नाम से जाना जाता था।
लोगों की जीवित स्मृति में अब यह एक नाला है, जिसमें पानी नहीं, सिर्फ प्रदूषण बहता है। इससे भी बुरी बात यह कि दिल्ली की पहाड़ियों को घेरे हुए खाली जगह में गुड़गांव नाम का जो नया शहर खड़ा हो गया है, वह अपना सारा कचरा उसी नजफगढ़ झील में डाल रहा है।
लुधियाना में बूढ़ा नाला है। बदबू और गंदगी भरा नाला। पर वह कुछ समय पहले नाला नहीं कहलाता था। तब इसे बूढ़ा दरिया कहते थे और इसमें ताजा, साफ पानी बहता था। सिर्फ एक पीढ़ी गुजरी है और इतने में ही न सिर्फ इसका रूप, बल्कि नाम भी बदल गया।
मीठी को आज हमारे चमकीले शहर मुंबई की शर्म कहा जाता है। सन् 2005 की बाढ़ में डूबते हुए इस शहर ने जाना कि उसने मीठी नाम की एक सुंदर नदी का रास्ता रोक दिया है। यह नदी नाला बनी और नाला आज प्रदूषण और अतिक्रमण से ग्रस्त है।
लेकिन मुंबई को आज भी जिस चीज का अहसास नहीं है, वह यह कि मीठी ने शहर को नहीं, शहर ने ही मीठी को शर्मिंदा किया है। यह कभी शहर के बाढ़ के पानी को निकाल कर समुद्र में मिलाती थी। पर धीरे-धीरे उस पर कब्जे होते गए। उसकी चौड़ाई ही लील गया था शहर।
इस तरह एक और शहर ने एक ही पीढ़ी में अपनी एक सुंदर नदी खो दी। लेकिन इससे हमें चकित क्यों होना चाहिए? हम अपनी नदियों से पानी उठाते हैं- पीने के लिए, सिंचाई के लिए, जलविद्युत परियोजनाएं चलाने के लिए। पानी लेकर हम उन्हें कचरा वापस करते हैं। नदी में पानी जैसा कुछ बचता ही नहीं। मल-मूत्र और औद्योगिक कचरे के बोझ से वह अदृश्य हो जाती है। हमें इस पर क्रोध आना चाहिए।
हम एक ऐसी पीढ़ी बन चुके हैं, जिसने अपनी नदियां खो दी हैं। और भी परेशान करने वाली बात यह है कि हम अपने तरीके नहीं बदल रहे। सोचे-समझे ढंग से हम और ज्यादा नदियों, झीलों और ताल-तलैयों को मारेंगे। फिर तो हम एक ऐसी पीढ़ी बन जाएंगे, जिसने सिर्फ अपनी नदियां नहीं खोईं, बल्कि बकायदा जल-संहार किया है। क्या पता, एक समय ऐसा भी आएगा जब हमारे बच्चे भूल जाएंगे कि यमुना, कावेरी और दामोदर नदियां थीं। वे उन्हें नालों के रूप में जानेंगे, सिर्फ नालों के रूप में। यह दुखस्वप्न हमारे सामने खड़ा है, हमारे भविष्य को घूर रहा है।
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