हमें सुनिश्चित करना है कि भारतीय मांस (विश्व में बाकी जगहों पर भी) किसी रसायन के इस्तेमाल बिना प्राप्त हो; प्राकृतिक आश्रय स्थलों को उजाड़ने की नौबत न आने पाए; पशुओं के प्रति क्रूरता न हो; और मांसोत्पादन में जल-प्रदूषण और गंदगी न फैलने पाए। जब मैंने शाकाहारवाद पर लिखा, और एक भारतीय पर्यावरणविद् होने के नाते लिखूं भी क्यों न, तो मुझे उम्मीद थी कि मेरे लिखे पर भावनात्मक प्रतिक्रिया मिलेगी। मेरे लेख का मकसद था कि इस मुद्दे पर चर्चा आरंभ हो। मेरा मानना है कि समय आ गया है, जब हम इन मुद्दों को भली-भांति समझें और असमहति का भी सम्मान करें। मैं व्यक्तिगत, गाली-गलौच भरी और असहिष्णु टिप्पणियों को अलग रखते हुए इस बात पर केंद्रित रहना चाहूँगी कि इन प्रतिक्रियाओं से मैंने क्या सीखा है, क्या जाना है। पड़ताल करना चाहूँगी कि क्या बीच का भी कोई रास्ता-असहमति नहीं बल्कि चर्चा करने, अपनी बात रखने और विरोध जतलाने का-हो सकता है।
मैं पाठकों खासकर उन ‘वैश्विक पर्यावरणविद’ की आभारी हूँ कि उनने विस्तार से हौसला बढ़ाने वाली टिप्पणियां की हैं। मेरी इतनी भर इच्छा थी कि ये प्रतिक्रियाएं बेनामी न हों क्योंकि इससे खुली चर्चा होने की संभावनाएं धूमिल हो जाती हैं। तो इन पर मुझे अब क्या कहना है?
शाकाहारवाद को लेकर मेरे विचार से घोर असहमति जताने वालों ने पहला मुद्दा नैतिकता का उठाया है। यह संवेदनागत नैतिकता और एक अन्य जीवन को बेशकीमती माने जाने की धारणा को लेकर है कि हत्या नहीं की जा सकती; मांस खाने को तार्किक नहीं ठहराया जा सकता। यह मेरी धारणा नहीं है, बल्कि आपकी है, जिसका सम्मान किया जाना चाहिए और इसे समझा जाना चाहिए। दूसरा मुद्दा शाकाहारी भोजन की महत्ता की बाबत है। कुछ ने इस मामले में नैतिकता की बात कही है, तो कुछ ने स्वास्थ्य और उस पर पड़ सकने वाले कुप्रभावों का हवाला दिया है।
मेरे कई शाकाहारी मित्र हैं, जो पशुओं का मांस या पशु उत्पाद नहीं खाते। वे यह बात दावे से कहते मिल जाएंगे कि मांस नहीं खाने से वे कितने स्वस्थ हैं। कितना बेहतर महसूस करते हैं। लेकिन इस सच्चाई को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि शाकाहार के अलावा अन्य भी तमाम तरह के खानपान हैं, जो संतुलित हैं, पोषक हैं, वर्धक होने के साथ ही उम्दा भी हैं। उदाहरण के लिये पशुओं के दुग्धोत्पाद खासकर दही और घी को भारत की पारंपरिक खाद्य प्रणाली में बेहद पोषक माना जाता रहा है। मछली से तैयार खाद्य पदार्थो का नाम सुनने ही जापानियों के मुंह में पानी आ जाता है। बेहद ज्यादा प्रसंस्करित खाद्य उत्पाद ही अस्वास्थ्यकर हैं, जिनमें मांस और जंक फूड शामिल हैं। इसलिये शाकाहार व्यक्तिगत मामला है।
मांसोत्पादन नष्ट कर देता है संसाधनों को
तीसरा मुद्दा है कि खाद्य पदार्थ जलवायु परिवर्तन, निरतंरता और वहनीयता से किस तरीके से बाबस्ता हैं। मैं पहले कह चुकी हूँ कि इस बाबत स्पष्ट प्रमाण हैं। मांसोत्पादन समेत कृषि जलवायु परिवर्तन के लिये ठीक नहीं है, और यह काफी मात्रा में प्राकृतिक संसाधनों को नुकसान कर देती है। लेकिन मैंने इसके साथ यह भी कहा था कि मांसोत्पादन का तरीका ही है, जो इन संसाधनों की क्षति कर देता है। पशुओं द्वारा वनस्पतियों के चटान, पशुओं के चरागाहों के लिये वनों के कटान, दुधारू पशुओं पर बेहद ज्यादा ‘रासायनिकों’ का इस्तेमाल और अतिरेक में मांस खाए जाने के पश्चात अवशेषों को फेंका जाना ऐसे तरीके हैं, जिनसे हमारा पर्यावरण प्रदूषित होता है। मैंने भारतीय किसान और पशु-आधारित ऐसी अर्थव्यवस्था की बात कही जो खाद, दूध और तत्पश्चात मांस के उपयोग पर निर्भर हो। यह नहीं कहा जा सकता कि किसान, जो किसी तरह गुजर-बसर भर कर पा रहा है, वातावरण में ग्रीनहाउस के उत्सर्जन के लिये उत्तरदायी है।
लेकिन इसके बावजूद एक मुद्दे की तरफ ध्यान जरूर दिलाना चाहूँगी : जीवन की वहनीयता के लिये खानपान की आदतों में बदलाव जरूरी हो गया है। और इसके लिये बेहद जरूरी है-कुछ मामलों में तो बहुत ही ज्यादा-कि मांस खाने का चलन कम किया जाए। यह भी तथ्य है कि भारत बीफ-भैंस का मांस-का बड़ा निर्यातक है, और इस प्रकार बेतहाशा मांस उपभोग करने की बुरी आदत से पैसा बना रहा है। हमें मध्यम वर्ग को प्रेरित करना होगा कि अपने खानपान की आदतों को बदले क्योंकि यह वर्ग मांस का ज्यादा उपभोग करता है। उसे प्रेरित करना जरूरी है कि मांस खाने में संयमित रहें और बर्बादी न करें।
लेकिन इतना ही महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि हम अपने पशुओं की बढ़वार कैसे करें और उनसे मांस पाने के लिये कौन-सी विधि अपनाएं। इस मामले में कोई शिथिलता नहीं बरती जा सकती। हमें सुनिश्चित करना है कि भारतीय मांस (विश्व में बाकी जगहों पर भी) किसी रसायन के इस्तेमाल बिना प्राप्त हो; प्राकृतिक आश्रय स्थलों को उजाड़ने की नौबत न आने पाए; पशुओं के प्रति क्रूरता न हो; और मांसोत्पादन में जल-प्रदूषण और गंदगी न फैलने पाए। जरूरी हो गया है कि ‘‘वहनीय’ पशुओं की बढ़वार और उनसे मांस हासिल करने के तौर-तरीकों पर चर्चा हो। जरूरी हो गया है कि स्वास्थ्यकर और वहनीय भोज्य पदार्थो को परिभाषित किया जाए। लेकिन हम ऐसा तब तक नहीं कर सकते जब तक कि पशुओं को किसानों और गरीब परिवारों के लिये महत्त्वपूर्ण आर्थिक संपत्ति न मान लें। हम इस संपत्ति का इसके महत्त्वपूर्ण हिस्से-मांस-का कोई विकल्प मुहैया कराए बिना हरण करके विमुद्रीकरण नहीं कर सकते।
कट्टीघरों का हो अच्छे से नियमन
इसी प्रकार हमें वैधानिक कट्टीघरों के नियमों को भी स्पष्ट करते हुए सुनिश्चित करना होगा कि इन नियमों का अच्छे से अनुपालन हो। मांस प्रसंस्करण इकाइयों को चलाने और इनमें माकूल तकनीक के इस्तेमाल पर आने वाली लागत का अध्ययन करना होगा ताकि प्रदूषण कम से कम हो। पशुओं के मानवीय तरीके से परिवहन, प्रदूषण रहित कटान और मांस प्रस्करण संबंधी नियम हैं। लेकिन व्यवहार में इनका अनुपालन नहीं होता। दोहराना चाहूँगी कि इसका जवाब शाकाहारवाद या हिंसा नहीं है। स्वीकारना होगा कि मांस का उत्पादन अपरिहार्य है, लेकिन हमें इस बाबत ज्यादा मुस्तैद होना होगा कि जो गलती हो रही है, उसे कैसे सुधारा जाए ताकि सुनिश्चित किया जा सके कि मांस वहनीय और स्वास्थ्यकर हो।
और अंतिम मुद्दा कहीं ज्यादा जटिल है। मुझसे पाठक बराबर पूछते रहते हैं कि मेरे विचार-कि ‘धर्मनिरपेक्षता’ पर बातचीत या समझौते की कोई गुंजाइश नहीं है-का क्या यह तात्पर्य माना जाए कि खाप पंचायतों, सती या तलाक जैसी वीभत्स सांस्कृतिक रवायतें भी स्वीकार्य हैं। बिल्कुल नहीं। निस्संदेह एक व्यक्ति की संस्कृति किसी अन्य व्यक्ति के लिये अपराध की परिभाषा हो सकती है। यही कारण है कि ‘संस्कृति’ प्राय: बुरा और बखेड़ा खड़ा कर देने वाला शब्द माना जाता है। मेरी दृष्टि में समानता एवं न्याय के कुछ मूल्यों को लेकर किसी समझौते की गुंजाइश है ही नहीं। मेरी नजर में धर्म निरपेक्षता का विचार ही भारत का विचार है, जो सभी के लिये सम्मान और समानता की बात कहता है। बेशक, इस विचार में कुछ गलत-सलत जैसा कुछ हो सकता है, जिस पर एक समावेशी और लोकतांत्रिक समाज को फैसला करना होता है। यही वह चर्चा है, जो हमें करनी है-खुले मन से, पूरी सहिष्णुता के साथ। न किसी को बुरा कहकर, न हिंसा करके।
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