प्रेमशंकर शुक्ल
प्रेमशंकर शुक्ल
पंक्तिबद्ध
Posted on 25 Jun, 2011 09:41 AMझील की झलमल देहआसमान की आत्मा राँजती है
झील को देखते-देखते
हमारी खुरदुरी आँखें
हो जाती हैं नम्र और मुलायम
झील को विहंगम निहारते
हम सुंदरता का एक पूरा कैनवास
हृदयंगम कर लेते हैं
झील के पास आ-आ कर
झील को सुनते हुए
मैं अपना खो गया संगीत
खोजता हूँ
बहना निहारते-निहारते मैं
पानी का सस्वर पाठ करता हूँ
पानी पर बतख
Posted on 25 Jun, 2011 09:12 AMपानी पर बतखसुन्दरता
तैर रहे हैं
पार नहीं होना है
अपने कुटुम्ब के साथ घूमना-फिरना है
रोजी-रोटी जुटाना है
और झील का मन बहलाना है
मादा नर को रिझा रही है
और नर मादा पर प्यार बरसा रहा है
पानी पर बतख सुन्दरता तैर रहे हैं
झील लहरों की रस्सी से
आसमान झूल रही है
पानी तरलता के रियाज़ में है!
बड़ी झील: तुम्हारी लहरों की ललक
Posted on 24 Jun, 2011 09:38 AMबड़ी झील: तुम्हारी लहरों की ललकदिन भर का थका-हारा सूरजतुम्हारे पश्चिमांचल में आकर डूब गया बड़ी झील
खूबसूरत सनसेट देखने के लिए उमड़े लोग
लौटने लगे हैं अपने-अपने घर
इतनी दूर से भी कितना सुन्दर दिख रहा है
तुम्हारा कुंकुम-किलकित-भाल
सन्ध्या-सुन्दरी
तुम्हारे जल का आचमन कर
धीरे-धीरे शहर पर
उतर रही है
बड़ी झील!
पानी के साथ
Posted on 23 Jun, 2011 09:25 AMपानी के साथहम पनघट के किस्से पीते हैं
घाट की कथाएँ
कमण्डल में आ
करती हैं जलाभिषेक
कलष के पानी में
खनकती है
गूजरी की हँसी
झील ही देती है
मेरे भीतर के पानी को
लहर
मेरी आँखें आईना हैं
जिसमें झील अपना चेहरा निहारती है
कानों में झील का एकान्त
बजता है
और प्यास
कण्ठ से निकलकर
बड़ी झील
Posted on 22 Jun, 2011 08:59 AMबड़ी झील: पानी को रहना सिखाती हुईऔर प्यास को जीना
बड़ी झीलः कभी नर्मदा के
बहते आलाप को सुनती हुई मगनमन
कभी अपनी चुप्पी में अथाह
कभी अपने आवेग में
सम्पूर्णतः वाचाल
बड़ी झीलः जिसका पानी दिखता है
भोपाल के चेहरे पर खिला-खिला
और रहता है
हिन्दी-उर्दू की तरह मिला-जुला
जैसे काया में मन
Posted on 21 Jun, 2011 09:18 AMजैसे काया में मन रहता हैवैसे ही धरती में रहती है झील
लड़ती हुई फूहड़ता-विद्रूपता के खिलाफ़
दरअसल जो सुन्दरता की तरफ़दारी है
जैसे काया में मन रहता है
वैसे ही धरती में
झील रहती है
हर पहर जो पृथ्वी पर प्रेम की
कथा रचती है
झील में दूरदुनिया से पाखी आते हैं
अच्छे विचार की तरह
झील के आदर-सत्कार की उन्हें बड़ी तलब
झील भरी है
Posted on 20 Jun, 2011 01:23 PMझील भरी हैचलती है डोलती हुई
पानी का दोलन
झील को प्रिय है
हमारे मन से कितनी मिलती-जुलती
नाव है झील
प्यास बुझाती
लहराती चल रही है
कितनी तो चिन्ता-फिकर है
फिर भी झील चल रही है लहराती
पार लगाती
सांगोपांग जिउ
झील एक नाव है
Posted on 18 Jun, 2011 08:36 AMझील एक नाव हैजो धरती में तैर रही है
लिए हुए यह इच्छाएँ:
कि पानी है तो ज़िन्दगानी है
और पानी पाने से
प्यास नहीं होगी खंख
प्यास मर जाना
ज़िन्दगी के
ज़िन्दा न रहने की
कैफि़यत है
शताब्दियों को
उनके घाट उतारती
झील एक नाव है
और कविता के भीतर
पानी का तनाव है
पृथ्वी पानी का देश है
Posted on 17 Jun, 2011 09:09 AMपृथ्वी के तीन हिस्से से अधिक मेंपानी की बसाहट (है)
कितने-कितने तो ढंग की-
कितने-कितने तो रंग की
पृथ्वी के भीतर-बाहर
पानी की कितनी चहल-पहल
जिसमें हलचल नहीं
वह पानी कहाँ हुआ
पानी की पद्धति से ही
हल हो रहा जीवन का गणित
प्यार की कितनी भाषाएँ हैं
पानी के पास
बारिश एक भाषा ही तो है
कई तरह के एहसास की
मटका
Posted on 16 Jun, 2011 08:55 AMपानी रिस-रिस करपानी को शीतल रखता है
इसी (सु) क्रिया से मटका
पानी पर मरता है
खाली रहना मटका को
बहुत भारी लगता है
बीतता नहीं उसका वक़्त
खालीपन के बोझ से
मटका लुढ़कता रहता है
इधर से उधर-उधर से इधर
अनमास लेने के बाद तो
बिन पानी के लगता नहीं मटका का जी
और उजड़ने लगती है उसकी रंगत
अपने पानी से भेंट