प्रेमशंकर शुक्ल

प्रेमशंकर शुक्ल
पानी ढोती स्त्रियाँ
Posted on 23 May, 2011 09:01 AM
पानी ढोते-ढोते खर्च हो जाती है
स्त्रियों की पूरी एक उम्र
इन स्त्रियों का पसीना
उन पहाडि़यों के माथे से सूखता नहीं कभी
जिनकी तराई में स्त्रियाँ झरने से
भरती हैं अपने गुण्डी-कलश

मरुस्थल की प्यास ज़िन्दा रखने का
स्त्रियों में होता है अद्भुत हुनर
उन्हीं से जागते हैं घर के बर्तन-बासन
और पहाड़ी-पगडण्डियाँ
पानी एक आवाज़ है
Posted on 21 May, 2011 09:47 AM
पानी एक आवाज़ है:
कभी विलम्बित, कभी द्रुरत
कभी मध्य लय में बहती हुई
कभी मौन में धड़कती हुई बहिर्ध्वनि के बिना

‘कामायनी’ की शिला की शीतल छाँह में बैठकर
भीगे नयनों से सुनता है जिसे मनु
मिट्टी की अनेक परतों के भीतर जड़ जिसे पीकर
वृक्ष की सबसे ऊपर की फुनगी तक को
कर देती है हरा-भरा।

फसलों की बालियाँ जिसका कोरस गाती हैं
बरसात के लिए
Posted on 20 May, 2011 09:02 AM
समुद्र पानी का
सबसे बड़ा बर्तन है
सूरज जिस से पानी पीता है
(बरसात के लिए)

बूँद पानी का बीज हैं
बरखा एक गीत है
भीग-भीग कर जिस से
भाषा की घाटी बाँझ नहीं होती

बरसात का मिजाज भी
कितना वानस्पतिक है!

धुल गयी ग्लानि
Posted on 19 May, 2011 10:26 AM
कितने हुलस से-हरस से
नदी नहाने गए हम
घाट पर कीचड़-गंध से
घिना उट्ठा हमारा मन
फिर लौट चले हम
नहाए बिना ही

नदी की हालत देख
गहरी उदासी से
भर गया हमारा मन

वह तो दूसरे दिन
घाट की सफ़ाई में जुटे जब लोग
कीचड़-काई को उखाड़ फेंका

निहार-निहार यह
खिलखिला उट्ठी नदी
और क़तरा-क़तरा बह चली
नदी की प्रसन्न-निर्मलता
एक दिन!
Posted on 18 May, 2011 08:24 AM
धरती पर बढ़ रहा तापमान
एक दिन सोख लेगा
सारी बर्फ, झरने,झील, नदियाँ

झुलस जाएँगे जंगल-पहाड़
खेत-खलिहान
दिशाएँ दिखेंगी मुँहझौंसी

अपने ही पानी में
उबल पड़ेगी हमारी देह
और बिना रात के ही
दिनमान आँखों में बैठ जाएगी रतौंधी

जिनकी करतूतों से भूमण्डल का पारा हो रहा है गर्म
घोर कलयुग! कि कोपेनहेगन में
पानी के पोट्रेट
Posted on 17 May, 2011 08:23 AM
(जैसे कि मैं हरहमेशा
रचना या देखना चाहता हूँ
धरती, आसमान, हवा, आग के
सुन्दर पोट्रेट)


कविता का पानी चीखते से ही
मैं पानी का पोट्रेट बनाना चाहता हूँ
कितनी कोशिश करता हूँ
पर ला नहीं पाता वह तरलता,
न प्यास बुझाने का वह गुन
न वह कोमलता
और न वह दुर्धर्ष स्वभाव

सोचता हूँ दिखे जहाँ पानी
अपनी सम्पूर्ण रंगत के साथ
नदी-घाट
Posted on 16 May, 2011 09:22 AM
पसरी चट्टानों पर कपड़े सूख रहे हैं
नहान-स्नान में डूबे नर-नारी
नदी को पवित्र कर रहे हैं
अपने श्रमशील विचार से-व्यवहार से

खेत काटकर आयी औरतों ने अँजुरी भर-भर
जल पिया और नदी को सदानीरा रहने का दिया असीस
तदर्थ चूल्हों में कहीं रोटियाँ पक रही हैं
कहीं बलक रहा है दाल-भात

आलू भुन रहे हैं आदिम आँच में अद्भुत सुगंध के साथ
लोटा
Posted on 14 May, 2011 11:08 AM
यही है जिसके पानी को
खेत-खलिहान से लौट
ओसरिया के डेहरौटे पर बैठ
गटागट पी जाते थे बाबा
यही हाल पिता का रहा

अब घर में इतने बड़े लोटे से
कोई नहीं पीता पानी
उस तरह से अब खेत-खलिहान से कोई
घर भी कहाँ लौटता है!

वैशाख के मेले से
बाबा ने ही खरीदा था
काँसे का यह लोटा
इस लोटे के मुँह पर
बाबा के होंठ के निशान हैं
मल्हार
Posted on 13 May, 2011 09:56 AM
सुनते हैं उमर पचास तक रीवा में रहे थे तुम
इस लम्बी अवधि में कितना गाया होगा तुमने तानसेन
और पूरा रेवांचल तुम्हारे राग-रागनियों की खुशबू से
रहा होगा सराबोर और उस समय
कोई कलेजा काठ न हुआ होगा

जब तुम मल्हार गाते रहे होगे
विंध्य को बरबस भिगोते रहे होंगे मेघ
नाचते अघाते न होंगे मोर-मोरनी
और यह विंध्या-भूमि हरीतिमा, फूल-फल से
लदी रही होगी
पानी
Posted on 12 May, 2011 09:47 AM
पानी जिसके भूगोल में
मनुष्य के रहने-बसने के
अनन्त आख्यान हैं
नदी-ताल-झरने-झील
पानी के प्रत्यय हैं

पानी बसाता है-
हम जो आदमी हैं इस समय
इसका पानी से
बहुत गहरा नाता है!

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