पश्चिमबंगाल पंचायत चुनाव-2023 में पर्यावरण एक बड़ा अहम मुद्दा बना। नदी और पर्यावरण राजनीतिक दलों के एजेंडे से कहीं अधिक आम लोगों के आकर्षण का केन्द्र बने।
जोशीमठ व हिमालय में हो रही भीषण आपदाओं को लेकर मातृ सदन में तीन दिवसीय (12 से 14 फरवरी, 2023) अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन किया जा रहा है। सम्मेलन में श्री जयसीलन नायडू, जो दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति व महान राजनीतिज्ञ श्री नेल्सन मंडेला जी के सरकार में मंत्री रह चुके हैं, देश के विभिन्न अन्य बुद्धिजीवी व पर्यावरणविद मौजूद रहेंगे।
Posted on 17 Aug, 2014 04:17 PMहजारों करोड़ रु. के जिस कैंपा फंड का मकसद उद्योगों के चलते जंगलों को हुए नुकसान की भरपाई करना है वह छत्तीसगढ़ में जेबें भरने का जरिया बन गया है।
Posted on 01 Aug, 2014 04:17 PMराजस्थान के झुंझनू जिले में सैकड़ों किसान जमीन छिनने के डर से घबराए हुए हैं। निजी सीमेंट कंपनियां और सरकार उनकी एकजुटता को तोड़ने में जुटी हैं। इसके बावजूद किसान लगातार करीब चार साल से आंदोलन चला रहे हैं। क्या है किसानों की पीड़ा और क्या है सरकार का रुख? जायजा ले रहे हैं अभिषेक रंजन सिंह।
Posted on 29 Apr, 2014 10:51 AMदेश के कई हिस्सों में जल, जंगल और जमीन के अधिग्रहण के विरोध में आंदोलनकारी सक्रिय हैं। लेकिन सत्ता में बैठे लोग उन आवाजों की निरंतर अनसुनी कर रहे हैं। ऐसे में करोड़ों लोगों के विस्थापित और बेरोजगार होने का खतरा बढ़ गया है। जायजा ले रहे हैं प्रसून लतांत.. विडंबना है कि देश के प्राकृतिक संसाधनों को लूटने वाले लोग एकजुट हैं और सत्ता में बैठे लोगों से उनकी गलबहियां है। ऐसे में वंचित वर्ग के लोगों को सरकार से अब कोई उम्मीद नहीं रह गई है। उनके सामने अब अपने हक के लिए आंदोलन के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा है। आजादी के बाद पिछले छह दशकों में देश के गरीब किसान, मजदूर, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और घुमंतू जनजाति के लोगों के सामने रोजी-रोटी की समस्या विकराल हो गई है। अब वे अपने वजूद बचाने के लिए आंदोलन पर उतर आए हैं। पूरी दुनिया में जमीन और पानी को लेकर संघर्ष जारी है। एक तरफ बड़े-बड़े उद्योगपति-पूंजीपति हैं जो सारे साधनों-संसाधनों पर कुंडली मार कर बैठ जाना चाहते हैं। दूसरी तरफ छोटे किसान, भूमिहीन और वंचित समाज के लोग हैं, जो चाहते हैं कि भूमि पर उनको भी थोड़ा अधिकार मिले। जिससे वे देश, परिवार और समाज के लिए अन्न पैदा कर सकें। विडंबना है कि देश के प्राकृतिक संसाधनों को लूटने वाले लोग एकजुट हैं और सत्ता में बैठे लोगों से उनकी गलबहियां है।
ऐसे में वंचित वर्ग के लोगों को सरकार से अब कोई उम्मीद नहीं रह गई है। उनके सामने अब अपने हक के लिए आंदोलन के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा है। आजादी के बाद पिछले छह दशकों में देश के गरीब किसान, मजदूर, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और घुमंतू जनजाति के लोगों के सामने रोजी-रोटी की समस्या विकराल हो गई है। अब वे अपने वजूद बचाने के लिए आंदोलन पर उतर आए हैं। मीडिया और राजनीतिक दलों की निष्ठा भी अब गरीबों और वंचितों के हक को दिलाने में नहीं रह गई है।