देश के कई हिस्सों में जल, जंगल और जमीन के अधिग्रहण के विरोध में आंदोलनकारी सक्रिय हैं। लेकिन सत्ता में बैठे लोग उन आवाजों की निरंतर अनसुनी कर रहे हैं। ऐसे में करोड़ों लोगों के विस्थापित और बेरोजगार होने का खतरा बढ़ गया है। जायजा ले रहे हैं प्रसून लतांत..
विडंबना है कि देश के प्राकृतिक संसाधनों को लूटने वाले लोग एकजुट हैं और सत्ता में बैठे लोगों से उनकी गलबहियां है। ऐसे में वंचित वर्ग के लोगों को सरकार से अब कोई उम्मीद नहीं रह गई है। उनके सामने अब अपने हक के लिए आंदोलन के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा है। आजादी के बाद पिछले छह दशकों में देश के गरीब किसान, मजदूर, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और घुमंतू जनजाति के लोगों के सामने रोजी-रोटी की समस्या विकराल हो गई है। अब वे अपने वजूद बचाने के लिए आंदोलन पर उतर आए हैं। पूरी दुनिया में जमीन और पानी को लेकर संघर्ष जारी है। एक तरफ बड़े-बड़े उद्योगपति-पूंजीपति हैं जो सारे साधनों-संसाधनों पर कुंडली मार कर बैठ जाना चाहते हैं। दूसरी तरफ छोटे किसान, भूमिहीन और वंचित समाज के लोग हैं, जो चाहते हैं कि भूमि पर उनको भी थोड़ा अधिकार मिले। जिससे वे देश, परिवार और समाज के लिए अन्न पैदा कर सकें। विडंबना है कि देश के प्राकृतिक संसाधनों को लूटने वाले लोग एकजुट हैं और सत्ता में बैठे लोगों से उनकी गलबहियां है।
ऐसे में वंचित वर्ग के लोगों को सरकार से अब कोई उम्मीद नहीं रह गई है। उनके सामने अब अपने हक के लिए आंदोलन के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा है। आजादी के बाद पिछले छह दशकों में देश के गरीब किसान, मजदूर, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और घुमंतू जनजाति के लोगों के सामने रोजी-रोटी की समस्या विकराल हो गई है। अब वे अपने वजूद बचाने के लिए आंदोलन पर उतर आए हैं। मीडिया और राजनीतिक दलों की निष्ठा भी अब गरीबों और वंचितों के हक को दिलाने में नहीं रह गई है।
देश के विभिन्न राज्यों में चल रहे जन आंदोलन के मर्म को खंगालें तो महात्मा गांधी के पौत्र और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रहे गोपालकृष्ण गांधी की यह बात सही लगती है कि देश में बड़ी कंपनियां समांतर सरकार की तरह काम कर रही हैं और चुनी हुई सरकार तमाशबीन बन कर रह गई है। सरकारों ने वंचितों के हक में कोई कारगर कानून तो बनाया नहीं पर कंपनियों के लिए गरीबी के हक में बने कानूनों को ही बदल दिया है।
जमीन का मामला राजनीतिक पार्टियों के घोषणापत्रों से अब गायब हो गया है और सरकारों ने भूमि कानूनों को भी बड़ी कंपनियों के हक में बदल दिया है। आज भारत सहित पूरी दुनिया में बनाए गए विकास के नए मॉडल टूटते जा रहे हैं। इसके साथ ही भूमंडलीकरण के साथ आए आक्रामक विकास की अवधारणा ने राज्यों को शक्तिशाली और जनता को निहत्था और निरुपाय कर दिया है।
आज देश का कोई ऐसा राज्य नहीं है जहां गरीबों और वंचितों का आंदोलन नहीं चल रहा हो। केरल, तमिलनाडु, पांडिचेरी, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, गोवा, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ ओड़िशा, झारखंड, पश्चिम बंगाल, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान , गुजरात, हरियाणा पंजाब, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, नगालैंड और मेघालय जैसे राज्यों में सरकारों की जनविरोधी नीतियों और वनाधिकार कानूनों के लागू न होने पर जहां आदिवासी फिर से ठगे महसूस कर रहे हैं, वहीं बढ़ती भूमिहीनता और आवासहीनता के कारण लोग अपनी जड़ों से उखड़ रहे हैं और पलायन करने को मजबूर हैं। इन सभी राज्यों में राजनीतिक पार्टियों की ओर से बेहतर सरकार देने के बढ़-चढ़ कर दावे किए जाते हैं पर हकीकत कोसों दूर है।
चुनाव के मौजूदा मौसम में जिस गुजरात राज्य को विकास का मॉडल बताकर वोट मांगे जा रहे हैं, वहां की हकीकत कुछ और है, जन आंदोलनों से जुड़े लल्लू भाई देसाई कहते हैं कि गुजरात में ज्यादातर नीतियां और कानून शहरी मध्य वर्ग प्रेरित हैं। प्रदेश सरकार अठारह फीसद आदिवासियों, नौ फीसद मालधारियों, सात फीसद दलितों, एक फीसद मछुआरों और एक फीसद नमक मजदूरों को जमीन और आजीविका के साधन अब तक मुहैया नहीं करवा सकी है।
इन सभी समुदायों में आक्रोश बढ़ता जा रहा है। इन समुदायों के दुख-दर्द की कहानी पूरे देश के सामने इसलिए नहीं आ पा रही है कि मीडिया को इनके दुख और संघर्ष में कोई दिलचस्पी नहीं है। गुजरात के दाहोद क्षेत्र के विधायक वजुभाई का कहना है कि गुजरात में कांग्रेस के अठारह और भारतीय जनता पार्टी के आठ विधायकों सहित छब्बीस विधायक आदिवासी हैं लेकिन विधानसभा के पांच साल के कार्यकाल में केवल पैंतीस मिनट ही आदिवासियों की समस्या पर चर्चा की गई है।
गुजरात में कई समस्याएं हैं, जिनको लेकर जन आंदोलन चल रहे हैं। भावनगर और अमरेली में लिंग्नाइट का उत्खनन से प्रभावित लोगों को सम्मानजनक मुआवजा नहीं मिला है। बड़ी संख्या में वनवासियों को वनाधिकार पत्र नहीं मिला है। ज्यादातर नदियों को जोड़ कर दक्षिण गुजरात के आदिवासी बहुल क्षेत्रों तक सिंचाई परियोजना ले जाने के बजाय सौराष्ट्र में उद्योगों को जल आपूर्ति की जा रही है।
गुजरात आदिवासी विकास मंच के प्रमुख महेश भाई ने बताया कि राज्य में सोलह फीसद आदिवासी हैं। इनमें आधी संख्या भीलों की है। वड़ोदरा भीलिस्तान के नाम से भी जाना जात है, लेकिन आदिवासी राज्य होने के बावजूद करीब सत्तर फीसद आबादी गरीबी रेखा से नीचे है। आदिवासी क्षेत्रों में जाति प्रमाण पत्र जारी नहीं किया जा रहा है, जिसकी वजह से बड़ी संख्या में आदिवासी छात्र-छात्राएं शिक्षा और रोजगार से वंचित हैं।
आदिवासियों द्वारा वर्षों से काबिज भूमि में पूर्ण वन्यजीव अभ्यारण्य और चिक्कार बांध के कारण दस हजार परिवार विस्थापित हो गए हैं। यहां से विस्थापित आदिवासी सूरत और वलसाड़ जैसे समीपवर्ती जिलों के शक्कर कारखानों में काम करने के लिए मजबूर हो गए हैं। सामाजिक कार्यकर्ता अनिवाश भाई ने बताया कि इन विस्थापितों के हक में आवाज बुलंद करने पर उन्हें नक्सली घोषित कर तीन साल तक जेल की सजा दी गई।
जूनागढ़ के कोडिनार क्षेत्र में पचास हजार मछुआरे हैं। चार दशकों में इन मछुआरों के लिए छोटे बंदरगाह नहीं बनाए गए हैं, जबकि सीमेंट और पेट्रो केमिकल्स उद्योगों को स्थापित करते हुए उनके व्यापार के लिए निजी बंदरगाह बनाने के मंजूरी दी जा रही है। राज्य सरकार की ओर से अंबुजा सीमेंट को चार हजार से अधिक एकड़ जमीन हस्तांतरित की गई है पर इसी क्षेत्र के छह हजार से अधिक मछुआरों की आजीविका के लिए कुछ नहीं किया गया है। आदिवासी सीधी प्रगति मंडल के अनिल कहते हैं कि इस क्षेत्र के दो हजार सीधी परिवार चार सौ सालों के बाद भी भूमिहीन मजदूर ही हैं।
राजस्थान के कई इलाकों में सरकार की नीतियों के विरोध में आंदोलन चल रहे हैं, लेकिन सरकार कोई सुनवाई नहीं कर रही है। पिछली सरकार की तर्ज पर नई सरकार भी काम कर रही है। विस्थापन और कानूनों के पालन में कोताही के चलते वंचितों का दुख-दर्द बढ़ता ही जा रहा है।
शहरी विकास के नाम पर उदयपुर-मुंबई हाईवे और उदयपुर-अहमदाबाद रेल मार्ग के लिए उदयपुर जिले की लगभग पांच हजार हेक्टेयर भूमि का अधिग्रहण किया गया। लेकिन आदिवासियों द्वारा वनाधिकार कानून के तहत जमा किए पांच हजार आवेदनों में से 2600 दावेदारों को 1700 एकड़ जमीन ही आबंटित की गई। वंचित लोग आंदोलन कर रहे हैं। खैरवाड़ा के अमृतलाल मीणा ने बताया कि बड़े पैमाने पर संगमरमर की नई खदानें खोली गई हैं लेकिन कहीं भी स्थानीय आदिवासियों को इन खदानों का मालिकाना अधिकार नहीं दिया गया। उनकी भूमि अवैध तरीके से गैरआदिवासियों को हस्तांतरित कर दी गई है।
ग्राम चूनागढ़ के बागड़ मजदूर किसान संगठन के प्रमुख शांतिलाल बताते हैं कि बांसवाड़ा की दानपुर पंचायत में आदिवासियों को उनके पंद्रह गांवों से परमाणु संयंत्र की स्थापना के नाम पर खदेड़ा जा रहा है। इसका विरोध किया तो उनके खिलाफ मुकदमे दर्ज किए गए हैं। उनके मुताबिक 1993 में डूंगरपुर जिले में मेवाड़ा सिंचाई परियोजना के तहत बनाए गए बांध से करीब पांच हजार लोग विस्थापित हुए, लेकिन उनका अभी तक कोई पुनर्वासन नहीं हुआ। बांसवाड़ा जिले की माही परियोजना से विस्थापित 187 गांव और सड़ाना परियोजना से विस्थापित 57 गांव का पुनर्वास अधूरा है।
चित्तौड़गढ़ के किशनपुरा गांव में आदित्य बिड़ला सीमेंट कंपनी को विस्तार योजना के लिए 1000 करोड़ अतिरिक्त जमीन देने के लिए सरकार तैयार हो गई है। इसके विरोध में किसान आंदोलन पर उतरे तो उनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज किए गए हैं। खेमराज बताते हैं कि कंपनी को अनधिकृत तरीके से जमीन हस्तांतरित करने के मामले की जांच नहीं की जा रही है। सीमेंट कंपनी के कारण इलाके में फैल रहे प्रदूषण से लोग बीमार हो रहे हैं और उनकी खेती भी चौपट हो रही है।
चित्तौड़ जिले के परसराम बंजारा के मुताबिक वन्यजीव संरक्षण कानून की वजह से बंजारा घुमंतू जनजाति पर गंभीर संकट आ गया है। बंजारा, कंजर और घासी जैसी घुमंतू जनजाति के लोग आज भी पुलिस रिकार्ड में आपराधिक प्रवृत्ति जाति के रूप में दर्ज है। इस कारण जंगल क्षेत्र में होने वाले अवैध शिकार के मामलों में सबसे पहले इन्हीं जनजातियों को प्रताड़ित किया जा रहा है। जीविकोपार्जन की कोई व्यवस्था नहीं होने के कारण इस समाज के नब्बे फीसद परिवार गरीबी रेखा के नीचे बेहद असुरक्षित जीवन जीने को मजबूर हैं।
हरियाणा के मेवात क्षेत्र के मेवात का रूपड़का गांव शहादत के लिए प्रसिद्ध है। पंद्रह हजार की आबादी वाले इस गांव की उपेक्षा से लोग आक्रोश में हैं। मेवात विकास सभा के अध्यक्ष शेर मोहम्मद बताते हैं कि यहां की कृषि भूमि के लिए कोई सिंचाई व्यवस्था नहीं है। यहां के किसानों का लगातार शोषण हो रहा है पर सरकार ने कोई राहत नहीं पहुंचाई। भारत स्वाभिमान मंच के दिनेश ने बताया कि मेवात के किसानों को संगठित किया जा रहा है। यहां की सबसे बड़ी समस्या कृषि भूमि का गैर कृषि कार्यों के लिए अवैध हस्तांतरण हो रहा है।
झज्जर की किसान संघर्ष समिति के रामकुमार भोला के मुताबिक हरियाणा सरकार ने हरियाणा राज्य औद्योगिक विकास निगम और किसानों के बीच हुए समझौते के तहत करीब पचीस हजार एकड़ जमीन रिलायंस कंपनी को विशेष आर्थिक क्षेत्र स्थापित करने की अनुमति दे दी है। वास्तव में किसानों की जमीन हरियाणा सरकार के साथ हुए एक समझौते के तहत अधिग्रहीत की गई थी, जिसके अनुसार हर किसान और मजदूर परिवार के एक को नौकरी, एक आवासीय भूमि, एक व्यावसायिक प्लाट, स्कूल, अस्पताल, बिजली पानी और सड़क आदि सुनिश्चित किया जाना तय था। लेकिन बाद में ये व्यवस्थाएं तो दूर, जो जमीन रिलायंस ने किसानों से 22 लाख रुपए प्रति एकड़ की दर से खरीदी, उसी जमीन को उसने दो करोड़ पांच लाख रुपए प्रति एकड़ की दर से पैनासोनिक और टेसू कंपनी को हस्तांतरित कर दिया।
इस इलाके के मजदूर और किसान तबाह हो चुके हैं। आज इसका विरोध करने वालों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज किए जा रहे हैं। तीन साल पहले रिलायंस पावर परियोजना के नाम से हजारों एकड़ कृषि भूमि का हस्तांतरण किया गया लेकिन अब तक कंपनी का काम शुरू नहीं हुआ है। इन परियोजनाओं में अपनी भूमि गवां चुके किसान गुस्से में हैं। हरियाणा में इसी तरह कई जगहों पर कृषि भूमि के हस्तांतरण और अधिग्रहण को लेकर किसान आक्रोशित हैं।
दक्षिण भारत के चार राज्यों-केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में भी दलित और आदिवासी इंसाफ के लिए आंदोलन कर रहे हैं। सरकारें कंपनियों के पक्ष में ज्यादा सक्रिय हैं और वंचित वर्ग के लोगों को भगवान भरोसे केवल छोड़ा नहीं है बल्कि खिलाफ में उठने वाली आवाज को दबाने के लिए हरेक हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। केरल प्रांत में पर्वतीय क्षेत्र इड़िकी में मुल्लापेरियार बांध को लेकर पेरियार घाटी के लोग भड़़के हुए हैं। इस बांध की ऊंचाई बढ़ाने के फैसले के विरोध में स्थानीय निवासी आंदोलन कर रहे हैं। उन्हें डर है कि बांध की ऊंचाई बढ़ने से पुराने बांध टूट जाएंगे।
लोग फादर जाय मिरप्पल और पीडी जोसफ के नेतृत्व में मुल्लापेरियार समिति का गठन कर लगातार अपनी मांग को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। इस राज्य के एर्नाकुलम जिले में सरफाजी कानून को हटाने की मांग पर किसान आंदोलित हैं। किसानों के मुताबिक इस कानून के तहत सहकारी बैंक से कोई किसान डेढ़ लाख रुपए कर्ज लेता है तो थोड़े समय में ही कर्ज की यह राशि दस लाख हो जाती है। इस कारण किसान आत्महत्या कर रहे हैं।
इस कानून के विरोध में चार सौ किसानों की विधवाओं ने दिल्ली में आकर प्रदर्शन किया है लेकिन केंद्र और राज्य की सरकारें इस कानून पर पुनर्विचार करने को तैयार नहीं हो रही हैं। नतीजतन किसान लंबे समय से आंदोलनरत हैं। त्रिसूर जिले के थमन्ना गांव में आठ हजार एकड़ में मुरियार पद्धति से खेती करते आ रहे थे। लेकिन यहां सिंचाई परियोजना के नाम पर आठ किलोमीटर लंबे नहर का निर्माण स्थनीय किसानों से बगैर सलाह के कर दिया गया। परिणास्वरूप इस इलाके में परंपरागत जल निकास की व्यवस्था पूरी तरह से ढह गई और जलभराव की समस्या खड़ी हो गई।
आज इस कारण ग्यारह गांवों के चौदह हजार किसान बेरोजगार हैं। किसान आंदोलन कर रहे हैं पर सरकार सुन नहीं रही है। आदिवासी बाहुल्य जिला वायनाड में आदिवासी नेता अमनी कहती हैं के केरल में पांच फीसद आदिवासी हैं, जिनमें अस्सी फीसद भूमिहीन हैं। इसी जिले में सात हजार एकड़ जमीन चाय और काफी प्लांटेशन के नाम पर आदिवासियों से छीन ली गई हैं।
देश और दुनिया में केरल का पालक्कड़ जिले का प्लाचीमाड़ा गांव चर्चित है। पिछले छह सालों से स्थानीय निवासी कोका कोला कंपनी के कारखाने का विरोध कर रहे हैं। निवासियों ने शुरू से कोका कोला कंपनी का विरोध किया था पर सरकार ने उनकी जमीन का जबरन अधिग्रहण कर लिया और कोका कोला को अपना कारखाना लगाने में मदद की। शोध के जरिए यह साफ हो गया है कि इस कारखाने की वजह से भूजल और पर्यावरण का काफी नुकसान हुआ है।
अदालती कार्रवाई से फिलहाल उत्पादन पर रोक लग गई है। दलित कार्यकर्ता सन्नी कप्पीकाड और रेखाराज के मुताबिक केरल में भूमि सुधारों के दावों के बावजूद दलितों और आदिवासियों की लगभग पांच हजार कालोनियां मौजूद हैं, जहां अब तक आवासीय भूमि सुनिश्चित नहीं की गई है।
तमिलनाडु में कन्याकुमारी के पास कूडनकुलन में पिछले पंद्रह सालों से स्थानीय निवासी परमाणु ऊर्जा संयंत्र की स्थापना का विरोध कर रहे हैं। परमाणु ऊर्जा संयंत्र विरोधी आंदोलन के नेता उदय कुमार का कहना है कि 1996 में एक हजार मेगावाट की दो योजनाएं प्रस्तावित की गई थीं लेकिन योजनाओं के प्रारंभ के पहले स्थानीय निवासियों की कोई राय नहीं ली गई। इसके विरोध में लगातार आंदोलन चल रहे हैं पर सरकार पुनर्विचार के लिए तैयार नहीं है।
तमिलनाडु के कोयंबटूर में पंचमी भूमि खासतौर से दलित भूमिहीनों के बीच वितरित करने के लिए निर्धारित की गई पर उसे पौधारोपण कंपनियों को हस्तांतरित कर दी गई। मदुरै के अधिवक्ता मारियप्पन बताते हैं कि तमिलनाडु में बहुत मजबूत काश्तकारी कानून के बावजूद तंजाउर नागपट्टनम और मदुरै जिलों में काश्तकारों को उनका अधिकार नहीं मिला है। कहा जा रहा है कि इन आंदोलनों की अनदेखी से समाज में आक्रोश बढ़ रहा है।
ईमेल : prasunltant@gmail.com
विडंबना है कि देश के प्राकृतिक संसाधनों को लूटने वाले लोग एकजुट हैं और सत्ता में बैठे लोगों से उनकी गलबहियां है। ऐसे में वंचित वर्ग के लोगों को सरकार से अब कोई उम्मीद नहीं रह गई है। उनके सामने अब अपने हक के लिए आंदोलन के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा है। आजादी के बाद पिछले छह दशकों में देश के गरीब किसान, मजदूर, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और घुमंतू जनजाति के लोगों के सामने रोजी-रोटी की समस्या विकराल हो गई है। अब वे अपने वजूद बचाने के लिए आंदोलन पर उतर आए हैं। पूरी दुनिया में जमीन और पानी को लेकर संघर्ष जारी है। एक तरफ बड़े-बड़े उद्योगपति-पूंजीपति हैं जो सारे साधनों-संसाधनों पर कुंडली मार कर बैठ जाना चाहते हैं। दूसरी तरफ छोटे किसान, भूमिहीन और वंचित समाज के लोग हैं, जो चाहते हैं कि भूमि पर उनको भी थोड़ा अधिकार मिले। जिससे वे देश, परिवार और समाज के लिए अन्न पैदा कर सकें। विडंबना है कि देश के प्राकृतिक संसाधनों को लूटने वाले लोग एकजुट हैं और सत्ता में बैठे लोगों से उनकी गलबहियां है।
ऐसे में वंचित वर्ग के लोगों को सरकार से अब कोई उम्मीद नहीं रह गई है। उनके सामने अब अपने हक के लिए आंदोलन के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा है। आजादी के बाद पिछले छह दशकों में देश के गरीब किसान, मजदूर, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और घुमंतू जनजाति के लोगों के सामने रोजी-रोटी की समस्या विकराल हो गई है। अब वे अपने वजूद बचाने के लिए आंदोलन पर उतर आए हैं। मीडिया और राजनीतिक दलों की निष्ठा भी अब गरीबों और वंचितों के हक को दिलाने में नहीं रह गई है।
देश के विभिन्न राज्यों में चल रहे जन आंदोलन के मर्म को खंगालें तो महात्मा गांधी के पौत्र और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रहे गोपालकृष्ण गांधी की यह बात सही लगती है कि देश में बड़ी कंपनियां समांतर सरकार की तरह काम कर रही हैं और चुनी हुई सरकार तमाशबीन बन कर रह गई है। सरकारों ने वंचितों के हक में कोई कारगर कानून तो बनाया नहीं पर कंपनियों के लिए गरीबी के हक में बने कानूनों को ही बदल दिया है।
जमीन का मामला राजनीतिक पार्टियों के घोषणापत्रों से अब गायब हो गया है और सरकारों ने भूमि कानूनों को भी बड़ी कंपनियों के हक में बदल दिया है। आज भारत सहित पूरी दुनिया में बनाए गए विकास के नए मॉडल टूटते जा रहे हैं। इसके साथ ही भूमंडलीकरण के साथ आए आक्रामक विकास की अवधारणा ने राज्यों को शक्तिशाली और जनता को निहत्था और निरुपाय कर दिया है।
आज देश का कोई ऐसा राज्य नहीं है जहां गरीबों और वंचितों का आंदोलन नहीं चल रहा हो। केरल, तमिलनाडु, पांडिचेरी, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, गोवा, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ ओड़िशा, झारखंड, पश्चिम बंगाल, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान , गुजरात, हरियाणा पंजाब, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, नगालैंड और मेघालय जैसे राज्यों में सरकारों की जनविरोधी नीतियों और वनाधिकार कानूनों के लागू न होने पर जहां आदिवासी फिर से ठगे महसूस कर रहे हैं, वहीं बढ़ती भूमिहीनता और आवासहीनता के कारण लोग अपनी जड़ों से उखड़ रहे हैं और पलायन करने को मजबूर हैं। इन सभी राज्यों में राजनीतिक पार्टियों की ओर से बेहतर सरकार देने के बढ़-चढ़ कर दावे किए जाते हैं पर हकीकत कोसों दूर है।
चुनाव के मौजूदा मौसम में जिस गुजरात राज्य को विकास का मॉडल बताकर वोट मांगे जा रहे हैं, वहां की हकीकत कुछ और है, जन आंदोलनों से जुड़े लल्लू भाई देसाई कहते हैं कि गुजरात में ज्यादातर नीतियां और कानून शहरी मध्य वर्ग प्रेरित हैं। प्रदेश सरकार अठारह फीसद आदिवासियों, नौ फीसद मालधारियों, सात फीसद दलितों, एक फीसद मछुआरों और एक फीसद नमक मजदूरों को जमीन और आजीविका के साधन अब तक मुहैया नहीं करवा सकी है।
इन सभी समुदायों में आक्रोश बढ़ता जा रहा है। इन समुदायों के दुख-दर्द की कहानी पूरे देश के सामने इसलिए नहीं आ पा रही है कि मीडिया को इनके दुख और संघर्ष में कोई दिलचस्पी नहीं है। गुजरात के दाहोद क्षेत्र के विधायक वजुभाई का कहना है कि गुजरात में कांग्रेस के अठारह और भारतीय जनता पार्टी के आठ विधायकों सहित छब्बीस विधायक आदिवासी हैं लेकिन विधानसभा के पांच साल के कार्यकाल में केवल पैंतीस मिनट ही आदिवासियों की समस्या पर चर्चा की गई है।
गुजरात में कई समस्याएं हैं, जिनको लेकर जन आंदोलन चल रहे हैं। भावनगर और अमरेली में लिंग्नाइट का उत्खनन से प्रभावित लोगों को सम्मानजनक मुआवजा नहीं मिला है। बड़ी संख्या में वनवासियों को वनाधिकार पत्र नहीं मिला है। ज्यादातर नदियों को जोड़ कर दक्षिण गुजरात के आदिवासी बहुल क्षेत्रों तक सिंचाई परियोजना ले जाने के बजाय सौराष्ट्र में उद्योगों को जल आपूर्ति की जा रही है।
गुजरात आदिवासी विकास मंच के प्रमुख महेश भाई ने बताया कि राज्य में सोलह फीसद आदिवासी हैं। इनमें आधी संख्या भीलों की है। वड़ोदरा भीलिस्तान के नाम से भी जाना जात है, लेकिन आदिवासी राज्य होने के बावजूद करीब सत्तर फीसद आबादी गरीबी रेखा से नीचे है। आदिवासी क्षेत्रों में जाति प्रमाण पत्र जारी नहीं किया जा रहा है, जिसकी वजह से बड़ी संख्या में आदिवासी छात्र-छात्राएं शिक्षा और रोजगार से वंचित हैं।
आदिवासियों द्वारा वर्षों से काबिज भूमि में पूर्ण वन्यजीव अभ्यारण्य और चिक्कार बांध के कारण दस हजार परिवार विस्थापित हो गए हैं। यहां से विस्थापित आदिवासी सूरत और वलसाड़ जैसे समीपवर्ती जिलों के शक्कर कारखानों में काम करने के लिए मजबूर हो गए हैं। सामाजिक कार्यकर्ता अनिवाश भाई ने बताया कि इन विस्थापितों के हक में आवाज बुलंद करने पर उन्हें नक्सली घोषित कर तीन साल तक जेल की सजा दी गई।
जूनागढ़ के कोडिनार क्षेत्र में पचास हजार मछुआरे हैं। चार दशकों में इन मछुआरों के लिए छोटे बंदरगाह नहीं बनाए गए हैं, जबकि सीमेंट और पेट्रो केमिकल्स उद्योगों को स्थापित करते हुए उनके व्यापार के लिए निजी बंदरगाह बनाने के मंजूरी दी जा रही है। राज्य सरकार की ओर से अंबुजा सीमेंट को चार हजार से अधिक एकड़ जमीन हस्तांतरित की गई है पर इसी क्षेत्र के छह हजार से अधिक मछुआरों की आजीविका के लिए कुछ नहीं किया गया है। आदिवासी सीधी प्रगति मंडल के अनिल कहते हैं कि इस क्षेत्र के दो हजार सीधी परिवार चार सौ सालों के बाद भी भूमिहीन मजदूर ही हैं।
राजस्थान के कई इलाकों में सरकार की नीतियों के विरोध में आंदोलन चल रहे हैं, लेकिन सरकार कोई सुनवाई नहीं कर रही है। पिछली सरकार की तर्ज पर नई सरकार भी काम कर रही है। विस्थापन और कानूनों के पालन में कोताही के चलते वंचितों का दुख-दर्द बढ़ता ही जा रहा है।
शहरी विकास के नाम पर उदयपुर-मुंबई हाईवे और उदयपुर-अहमदाबाद रेल मार्ग के लिए उदयपुर जिले की लगभग पांच हजार हेक्टेयर भूमि का अधिग्रहण किया गया। लेकिन आदिवासियों द्वारा वनाधिकार कानून के तहत जमा किए पांच हजार आवेदनों में से 2600 दावेदारों को 1700 एकड़ जमीन ही आबंटित की गई। वंचित लोग आंदोलन कर रहे हैं। खैरवाड़ा के अमृतलाल मीणा ने बताया कि बड़े पैमाने पर संगमरमर की नई खदानें खोली गई हैं लेकिन कहीं भी स्थानीय आदिवासियों को इन खदानों का मालिकाना अधिकार नहीं दिया गया। उनकी भूमि अवैध तरीके से गैरआदिवासियों को हस्तांतरित कर दी गई है।
ग्राम चूनागढ़ के बागड़ मजदूर किसान संगठन के प्रमुख शांतिलाल बताते हैं कि बांसवाड़ा की दानपुर पंचायत में आदिवासियों को उनके पंद्रह गांवों से परमाणु संयंत्र की स्थापना के नाम पर खदेड़ा जा रहा है। इसका विरोध किया तो उनके खिलाफ मुकदमे दर्ज किए गए हैं। उनके मुताबिक 1993 में डूंगरपुर जिले में मेवाड़ा सिंचाई परियोजना के तहत बनाए गए बांध से करीब पांच हजार लोग विस्थापित हुए, लेकिन उनका अभी तक कोई पुनर्वासन नहीं हुआ। बांसवाड़ा जिले की माही परियोजना से विस्थापित 187 गांव और सड़ाना परियोजना से विस्थापित 57 गांव का पुनर्वास अधूरा है।
चित्तौड़गढ़ के किशनपुरा गांव में आदित्य बिड़ला सीमेंट कंपनी को विस्तार योजना के लिए 1000 करोड़ अतिरिक्त जमीन देने के लिए सरकार तैयार हो गई है। इसके विरोध में किसान आंदोलन पर उतरे तो उनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज किए गए हैं। खेमराज बताते हैं कि कंपनी को अनधिकृत तरीके से जमीन हस्तांतरित करने के मामले की जांच नहीं की जा रही है। सीमेंट कंपनी के कारण इलाके में फैल रहे प्रदूषण से लोग बीमार हो रहे हैं और उनकी खेती भी चौपट हो रही है।
चित्तौड़ जिले के परसराम बंजारा के मुताबिक वन्यजीव संरक्षण कानून की वजह से बंजारा घुमंतू जनजाति पर गंभीर संकट आ गया है। बंजारा, कंजर और घासी जैसी घुमंतू जनजाति के लोग आज भी पुलिस रिकार्ड में आपराधिक प्रवृत्ति जाति के रूप में दर्ज है। इस कारण जंगल क्षेत्र में होने वाले अवैध शिकार के मामलों में सबसे पहले इन्हीं जनजातियों को प्रताड़ित किया जा रहा है। जीविकोपार्जन की कोई व्यवस्था नहीं होने के कारण इस समाज के नब्बे फीसद परिवार गरीबी रेखा के नीचे बेहद असुरक्षित जीवन जीने को मजबूर हैं।
हरियाणा के मेवात क्षेत्र के मेवात का रूपड़का गांव शहादत के लिए प्रसिद्ध है। पंद्रह हजार की आबादी वाले इस गांव की उपेक्षा से लोग आक्रोश में हैं। मेवात विकास सभा के अध्यक्ष शेर मोहम्मद बताते हैं कि यहां की कृषि भूमि के लिए कोई सिंचाई व्यवस्था नहीं है। यहां के किसानों का लगातार शोषण हो रहा है पर सरकार ने कोई राहत नहीं पहुंचाई। भारत स्वाभिमान मंच के दिनेश ने बताया कि मेवात के किसानों को संगठित किया जा रहा है। यहां की सबसे बड़ी समस्या कृषि भूमि का गैर कृषि कार्यों के लिए अवैध हस्तांतरण हो रहा है।
झज्जर की किसान संघर्ष समिति के रामकुमार भोला के मुताबिक हरियाणा सरकार ने हरियाणा राज्य औद्योगिक विकास निगम और किसानों के बीच हुए समझौते के तहत करीब पचीस हजार एकड़ जमीन रिलायंस कंपनी को विशेष आर्थिक क्षेत्र स्थापित करने की अनुमति दे दी है। वास्तव में किसानों की जमीन हरियाणा सरकार के साथ हुए एक समझौते के तहत अधिग्रहीत की गई थी, जिसके अनुसार हर किसान और मजदूर परिवार के एक को नौकरी, एक आवासीय भूमि, एक व्यावसायिक प्लाट, स्कूल, अस्पताल, बिजली पानी और सड़क आदि सुनिश्चित किया जाना तय था। लेकिन बाद में ये व्यवस्थाएं तो दूर, जो जमीन रिलायंस ने किसानों से 22 लाख रुपए प्रति एकड़ की दर से खरीदी, उसी जमीन को उसने दो करोड़ पांच लाख रुपए प्रति एकड़ की दर से पैनासोनिक और टेसू कंपनी को हस्तांतरित कर दिया।
इस इलाके के मजदूर और किसान तबाह हो चुके हैं। आज इसका विरोध करने वालों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज किए जा रहे हैं। तीन साल पहले रिलायंस पावर परियोजना के नाम से हजारों एकड़ कृषि भूमि का हस्तांतरण किया गया लेकिन अब तक कंपनी का काम शुरू नहीं हुआ है। इन परियोजनाओं में अपनी भूमि गवां चुके किसान गुस्से में हैं। हरियाणा में इसी तरह कई जगहों पर कृषि भूमि के हस्तांतरण और अधिग्रहण को लेकर किसान आक्रोशित हैं।
दक्षिण भारत के चार राज्यों-केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में भी दलित और आदिवासी इंसाफ के लिए आंदोलन कर रहे हैं। सरकारें कंपनियों के पक्ष में ज्यादा सक्रिय हैं और वंचित वर्ग के लोगों को भगवान भरोसे केवल छोड़ा नहीं है बल्कि खिलाफ में उठने वाली आवाज को दबाने के लिए हरेक हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। केरल प्रांत में पर्वतीय क्षेत्र इड़िकी में मुल्लापेरियार बांध को लेकर पेरियार घाटी के लोग भड़़के हुए हैं। इस बांध की ऊंचाई बढ़ाने के फैसले के विरोध में स्थानीय निवासी आंदोलन कर रहे हैं। उन्हें डर है कि बांध की ऊंचाई बढ़ने से पुराने बांध टूट जाएंगे।
लोग फादर जाय मिरप्पल और पीडी जोसफ के नेतृत्व में मुल्लापेरियार समिति का गठन कर लगातार अपनी मांग को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। इस राज्य के एर्नाकुलम जिले में सरफाजी कानून को हटाने की मांग पर किसान आंदोलित हैं। किसानों के मुताबिक इस कानून के तहत सहकारी बैंक से कोई किसान डेढ़ लाख रुपए कर्ज लेता है तो थोड़े समय में ही कर्ज की यह राशि दस लाख हो जाती है। इस कारण किसान आत्महत्या कर रहे हैं।
इस कानून के विरोध में चार सौ किसानों की विधवाओं ने दिल्ली में आकर प्रदर्शन किया है लेकिन केंद्र और राज्य की सरकारें इस कानून पर पुनर्विचार करने को तैयार नहीं हो रही हैं। नतीजतन किसान लंबे समय से आंदोलनरत हैं। त्रिसूर जिले के थमन्ना गांव में आठ हजार एकड़ में मुरियार पद्धति से खेती करते आ रहे थे। लेकिन यहां सिंचाई परियोजना के नाम पर आठ किलोमीटर लंबे नहर का निर्माण स्थनीय किसानों से बगैर सलाह के कर दिया गया। परिणास्वरूप इस इलाके में परंपरागत जल निकास की व्यवस्था पूरी तरह से ढह गई और जलभराव की समस्या खड़ी हो गई।
आज इस कारण ग्यारह गांवों के चौदह हजार किसान बेरोजगार हैं। किसान आंदोलन कर रहे हैं पर सरकार सुन नहीं रही है। आदिवासी बाहुल्य जिला वायनाड में आदिवासी नेता अमनी कहती हैं के केरल में पांच फीसद आदिवासी हैं, जिनमें अस्सी फीसद भूमिहीन हैं। इसी जिले में सात हजार एकड़ जमीन चाय और काफी प्लांटेशन के नाम पर आदिवासियों से छीन ली गई हैं।
देश और दुनिया में केरल का पालक्कड़ जिले का प्लाचीमाड़ा गांव चर्चित है। पिछले छह सालों से स्थानीय निवासी कोका कोला कंपनी के कारखाने का विरोध कर रहे हैं। निवासियों ने शुरू से कोका कोला कंपनी का विरोध किया था पर सरकार ने उनकी जमीन का जबरन अधिग्रहण कर लिया और कोका कोला को अपना कारखाना लगाने में मदद की। शोध के जरिए यह साफ हो गया है कि इस कारखाने की वजह से भूजल और पर्यावरण का काफी नुकसान हुआ है।
अदालती कार्रवाई से फिलहाल उत्पादन पर रोक लग गई है। दलित कार्यकर्ता सन्नी कप्पीकाड और रेखाराज के मुताबिक केरल में भूमि सुधारों के दावों के बावजूद दलितों और आदिवासियों की लगभग पांच हजार कालोनियां मौजूद हैं, जहां अब तक आवासीय भूमि सुनिश्चित नहीं की गई है।
तमिलनाडु में कन्याकुमारी के पास कूडनकुलन में पिछले पंद्रह सालों से स्थानीय निवासी परमाणु ऊर्जा संयंत्र की स्थापना का विरोध कर रहे हैं। परमाणु ऊर्जा संयंत्र विरोधी आंदोलन के नेता उदय कुमार का कहना है कि 1996 में एक हजार मेगावाट की दो योजनाएं प्रस्तावित की गई थीं लेकिन योजनाओं के प्रारंभ के पहले स्थानीय निवासियों की कोई राय नहीं ली गई। इसके विरोध में लगातार आंदोलन चल रहे हैं पर सरकार पुनर्विचार के लिए तैयार नहीं है।
तमिलनाडु के कोयंबटूर में पंचमी भूमि खासतौर से दलित भूमिहीनों के बीच वितरित करने के लिए निर्धारित की गई पर उसे पौधारोपण कंपनियों को हस्तांतरित कर दी गई। मदुरै के अधिवक्ता मारियप्पन बताते हैं कि तमिलनाडु में बहुत मजबूत काश्तकारी कानून के बावजूद तंजाउर नागपट्टनम और मदुरै जिलों में काश्तकारों को उनका अधिकार नहीं मिला है। कहा जा रहा है कि इन आंदोलनों की अनदेखी से समाज में आक्रोश बढ़ रहा है।
ईमेल : prasunltant@gmail.com
Path Alias
/articles/satataa-kae-kaucakara-sae-jauujhatae-jana-andaolana
Post By: admin