सफलता की कहानियां और केस स्टडी

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पानी ने लौटाई खुशहाली
Posted on 03 May, 2018 06:57 PM

 

बालौदा लक्खा गाँव को अब जलतीर्थ कहा जाता है। इस साल इलाके में बहुत कम बारिश हुई है। 45 डिग्री पारे के साथ चिलचिलाती धूप में भी गाँव के करीब 90 फीसदी खेतों में हरियाली देखकर मन को सुकून मिलता है। पर्याप्त पानी होने से किसान साल में दूसरी और तीसरी फसल भी आसानी से ले रहे हैं। लगभग एक हजार से ज्यादा किसान सोयाबीन, प्याज, मटर, गेहूँ और चने की तीन फसलें लेते हैं। गाँव की खेती लायक कुल 965 हेक्टेयर जमीन के 90 फीसदी खेतों में पर्याप्त सिंचाई हो रही है।

वो कहते हैं न कि आदमी के हौसले अगर फौलादी हो तो क्या नहीं कर सकता। और जब ऐसे लोगों का कारवाँ बन जाये तो असम्भव भी सम्भव हो जाता है। हम बात कर रहे हैं उज्जैन जिले के एक छोटे से गाँव बालौदा लक्खा और उसके बाशिन्दों की। लोगों की एकजुटता और उनके प्रयास ने इस बेपानी गाँव को पानीदार बना डाला।

बीस साल पहले तक यह गाँव बूँद-बूँद पानी को मोहताज था। पानी की कमी के कारण खेती दगा दे गई थी। युवा रोजगार की तलाश में उज्जैन और इन्दौर पलायन करने को मजबूर थे। महिलाएँ पानी की व्यवस्था करने में ही परेशान रहती थीं। बच्चे स्कूल जाने के बजाय हाथों में खाली बर्तन उठाए कुआँ-दर-कुआँ घूमते रहते।

पानी से हरा-भार हुआ बालौदा लक्खा गाँव
आदिवासियों ने खुद खोजा अपना पानी
Posted on 30 Mar, 2018 03:39 PM

जल दिवस की सार्थकता इसी में निहित है कि हम अपने पारम्परिक जल संसाधनों को सहेज सकें तथा प्रकृति की अनमोल नेमत बारिश के पानी को धरती की कोख तक पहुँचाने के लिये प्रयास कर सकें। अपढ़ और कम समझ की माने जाने वाले आमली फलिया के आदिवासियों ने इस बार जल दिवस पर पूरे समाज को यह सन्देश दिया है कि बातों को जब जमीनी हकीकत में अमल किया जाता है तो हालात बदले जा सकते हैं। आमला फलिया ने तो अपना खोया हुआ कुआँ और पानी दोनों ही फिर से ढूँढ लिया है लेकिन देश के हजारों गाँवों में रहने वाले लोगों को अभी अपना पानी ढूँढना होगा।

मध्य प्रदेश के एक आदिवासी गाँव में बीते दस सालों से लोग करीब तीन किमी दूर नदी की रेत में झिरी खोदकर दो से तीन घंटे की मशक्कत के बाद दो घड़े पीने का पानी ला पाते थे। आज वह गाँव पानी के मामले में आत्मनिर्भर बन चुका है। अब उनके ही गाँव के एक कुएँ में साढ़े पाँच फीट से ज्यादा पानी भरा हुआ है। इससे यहाँ के लोगों को प्रदूषित पानी पीने से होने वाली बीमारियों तथा सेहत के नुकसान से भी निजात मिल गई है।

आखिर ऐसा कैसे हुआ कि गाँव में दस सालों से चला आ रहा जल संकट आठ से दस दिनों में दूर हो गया। कौन-सा चमत्कार हुआ कि हालात इतनी तेजी से बदल गए। यह सब सिलसिलेवार तरीके से जानने के लिये चलते हैं आमली फलिया गाँव। कुछ मेहनतकश आदिवासियों ने पसीना बहाकर अपने हिस्से का पानी धरती की कोख से उलीच लिया।
कुआँ
मौर्यकालीन तकनीक से मगध बना पानीदार
Posted on 25 Mar, 2018 02:52 PM

भगीरथ प्रयास का परिणाम बेहतरीन रहा। इससे जमुने-दसईं पईन के आसपास बसे 150 गाँव व बरकी नहर के आसपास बसे 250 गाँवों के खेतों के लिये सिंचाई आसान हो गई। इन गाँवों में खरीफ व रबी की फसल उगाने के साथ ही साग-सब्जियाँ, दलहन व तिलहन की खेती भी की जाती है। पईन व नहर के जीर्णोंद्धार से कृषि संकट भी कम हो गया। आसपास के रहने वाले किसानों में जान आ गई। कई किसान आत्महत्या और पलायन का विचार छोड़कर सिंचाई व्यवस्था को मजबूत करने में सहयोग करने लग गए।

मौर्यकाल में अर्थव्यवस्था पूरी तरह से कृषि पर आधारित थी। चूँकि कृषि आधार थी, तो सिंचाई के लिये पानी भी जरूरी था।

इसे देखते हुए मौर्यकाल में जल संचयन की अपनी पृथक व्यवस्था विकसित की गई थी। इसके अन्तर्गत काफी संख्या में तालाब और आहर-पईन बनाए गए थे।

मगध क्षेत्र में जल संचयन की अलग व्यवस्था करने की जरूरत इसलिये भी महसूस की गई क्योंकि इस क्षेत्र में पर्याप्त बारिश नहीं होती है। आहर-पईन और तालाबों का निर्माण बारिश के पानी को संग्रह कर रखने के लिये किया गया था।
रंग लाई भेलडुंग के ग्रामीणों की मेहनत
Posted on 23 Mar, 2018 01:20 PM

सप्ताह भर पहले सोशल मीडिया के माध्यम से जब सेना में कार्यरत स्थानीय निवासी धर्मेंद्र जुगलान ने गाँव में पानी की किल्लत का समाचार पढ़ा तो वे स्वयं अवकाश लेकर गाँव पहुँच गये और जल संरक्षण कर रहे स्थानीय लोगों के सहयोग में जुट गए। देखते ही देखते मेहनत रंग लाई। वर्ष 2014 में बैरागढ़ आपदा की और बादल फटने की घटना से क्षतिग्रस्त प्राकृतिक जल स्रोतशिला गदन से पानी के तीन पाइपों को जोड़कर एक बड़े पाइप में जोड़ दिया गया।

पलायन का पर्याय बने उत्तराखण्ड के युवा अब अपनी पूर्वजों की धरती के संरक्षण को जाग्रत होने लगे हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में स्वास्थ्य, शिक्षा और पानी की गम्भीर समस्या से जूझते लोगों को जब कोई सहारा नहीं मिला तो ग्रामीणों ने पलायन का रास्ता अपनाया। किन्तु धीरे-धीरे प्रवासियों को अपने पूर्वजों की माटी और उजड़ती तिबारियों की पीड़ा भी सताती रही।

ऋषिकेश से मात्र एक घंटे के सफर की दूरी पर बसे गाँव भेलडुंग के मूल निवासी एक माह से जलसंकट से जूझ रहे थे। इसी बीच जल संरक्षण के लिये प्रवासी गाँववासियों ने प्रयत्न कर रहे स्थानीय लोगों के सहयोग में जुट गए।
तालाब सुधारा तो पटरी पर लौटी जिन्दगी
Posted on 04 Jan, 2018 11:39 AM

तालाब को गहरा करते हुए इसकी गाद वाली काली मिट्टी ट्रैक्टरों में भरकर ले जाने की पंचायत ने अनुमति दे दी। दे

Kundi
पानी और हरियाली से हरा-भरा गाँव
Posted on 26 Dec, 2017 03:00 PM

कई महीने तक खोजबीन करने और तरह-तरह के उपायों पर विचार करने के बाद लक्ष्मण सिंह ने चौका बनाने का विचार सामने रखा। यह गाँव के वातावरण के अनुकूल था और पानी के साथ-साथ माटी के क्षरण को रोकने में भी कारगर था। चौका, चौकोर आकार का कम गहराई वाला एक उथला गड्ढा होता है। इसकी गहराई नौ इंच के आसपास रखी जाती है। इससे इसमें पानी इकट्ठा होता है और फिर एक तरफ से इसकी ऊँचाई हल्की सी कम कर दी जाती है तो यही पानी धीरे-धीरे रिसकर टाँका की तरफ बह जाता है।

लोकभाषा में लापोड़िया का मतलब होता है मूर्खों का गाँव। ऐसा गाँव जहाँ लोग पढ़े लिखे नहीं हैं। अपने साधन और समृद्धि के प्रति उदासीन हैं और शिक्षा संस्कार से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं। मूर्खों के इस गाँव में रहने वाले लोग सदा आपस में लड़ते झगड़ते रहते हैं ताकि उनके ग्राम नाम की महिमा कम न हो। लापोड़िया था भी ऐसा ही लेकिन तीस साल पहले तक। आज का लापोड़िया मूर्खों का गाँव नहीं बल्कि ऐसे समझदार लोगों की सभा है जहाँ लोग अपने साधन संसाधन के प्रति संवेदनशील हो गए हैं। वो अब शिक्षा और संस्कार को प्राथमिकता देते हैं और इन सबसे ऊपर वो पानीदार हो गए हैं।
पानी के लिये महिलाओं ने चीरा पहाड़ का सीना
Posted on 26 Dec, 2017 11:26 AM

महिलाओं की दृढ़ इच्छा शक्ति के आगे पहाड़ भी नतमस्तक हो उठा। एक हजार फीट की ऊँचाई पर चढ़कर महिलाओं ने पहाड़ की छाती को चीरना शुरू किया। डेढ़ साल तक 70 महिलाओं की टीम ने हाड़तोड़ मेहनत की। पहाड़ की ढलान के साथ-साथ गहरी नालियाँ बनाई गई, जिन्हें बड़े पाइपों से जोड़ा गया, ताकि बारीश का पानी इनके जरिए नीचे चला आये। पाइप लाइन बिछाने के बाद नौ फीट गहरी सुरंग भी खोदी। इसमें भी प्लास्टिक की पाइप लाइन बिछाई। जिसे तालाब पर पहुँचाना था।

मस्तूरी ब्लॉक का ग्राम खोंदरा चारों तरफ से पहाड़ों से घिरा है। पूरा इलाका पानी की किल्लत से जूझता था। बारिश का पानी भी व्यर्थ चला जाता था। पानी न होने से खेती-बाड़ी पर बुरा असर पड़ रहा था। लेकिन गाँव की 70 महिलाओं ने साझा प्रयास कर वर्षाजल के संरक्षण का अनूठा प्रयास किया है। इसके लिये उन्हें पहाड़ का सीना चीरना पड़ा। महिलाओं द्वारा पाँच एकड़ में बनाए गए तालाब ने अब पानी की किल्लत को खत्म कर दिया है।

बारिश के पानी को पहाड़ से गाँव में लाने के लिये इन महिलाओं ने तीन साल तक खूब मेहनत की। इसके लिये एक हजार फीट की ऊँचाई पर चढ़कर पहाड़ को काटा और पाइप लाइन बिछाई।
पाँच साल से पूरा परिवार पी रहा बरसात का पानी
Posted on 22 Sep, 2017 10:26 AM

संरक्षण के लिये एक ऐसा परिवार है जो पिछले पाँच साल से केवल बरसात का पानी उपयोग में ले रहा है। परिवार के सातों सदस्यों का मानना है कि बारिश का पानी शारीरिक व्याधियों को तो खत्म करता ही है साथ में नई पीढ़ी को जल संरक्षण व इसकी अहमियत को भी दर्शाता है। पानी बचाने और इसके सद्उपयोग का आईना दिखाने वाले ये सरकारी शिक्षक हैं तारपुरा गाँव के ऋषिदेव शर्मा। जोकि राजकीय उच्च प्राथमिक संस्कृत विद्यालय नवलगढ़ में पदस्थापित हैं।

इनका मानना है कि आसमान से बरसात का शुद्ध जल बरसता है। इसको व्यर्थ बहने नहीं देना चाहिए। इसके लिये शिक्षक ऋषिदेव शर्मा ने पाँच साल पहले घर के मकान का पूरा नक्शा बदलकर वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम अपनाया, जो आज भी जारी है।
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