मौर्यकालीन तकनीक से मगध बना पानीदार


भगीरथ प्रयास का परिणाम बेहतरीन रहा। इससे जमुने-दसईं पईन के आसपास बसे 150 गाँव व बरकी नहर के आसपास बसे 250 गाँवों के खेतों के लिये सिंचाई आसान हो गई। इन गाँवों में खरीफ व रबी की फसल उगाने के साथ ही साग-सब्जियाँ, दलहन व तिलहन की खेती भी की जाती है। पईन व नहर के जीर्णोंद्धार से कृषि संकट भी कम हो गया। आसपास के रहने वाले किसानों में जान आ गई। कई किसान आत्महत्या और पलायन का विचार छोड़कर सिंचाई व्यवस्था को मजबूत करने में सहयोग करने लग गए।

मौर्यकाल में अर्थव्यवस्था पूरी तरह से कृषि पर आधारित थी। चूँकि कृषि आधार थी, तो सिंचाई के लिये पानी भी जरूरी था।

इसे देखते हुए मौर्यकाल में जल संचयन की अपनी पृथक व्यवस्था विकसित की गई थी। इसके अन्तर्गत काफी संख्या में तालाब और आहर-पईन बनाए गए थे।

मगध क्षेत्र में जल संचयन की अलग व्यवस्था करने की जरूरत इसलिये भी महसूस की गई क्योंकि इस क्षेत्र में पर्याप्त बारिश नहीं होती है। आहर-पईन और तालाबों का निर्माण बारिश के पानी को संग्रह कर रखने के लिये किया गया था।

मौर्यकाल की यह व्यवस्था जल संचयन में कारगर थी और यही वजह रही कि मौर्यकाल में अर्थव्यवस्था काफी अच्छी थी। लेकिन, वक्त गुजरने के साथ ही इन व्यवस्थाओं को लोग भूलने लगे। सरकार भी पानी के संग्रह के लिये कोई ठोस योजना नहीं बना सकी। इससे क्षेत्र में पानी की किल्लत बढ़ती चली गई और खेती मुश्किल होती गई।

तालाबों को मकान के लिये पाट दिये गए और आहर-पईन में धीरे-धीरे मिट्टी जमने लगी। एक अनुमान के अनुसार गया जिले में कभी 200 तालाब थे जिनमें से 50 तालाबों को पाट दिया गया है।

गया शहर की बात करें तो यहाँ आधा दर्जन तालाबों का अस्तित्व खत्म हो चुका है। इन तालाबों की जगह मकान उग आये हैं। गया के अलावा दूसरे इलाकों में भी जल संचयन के माध्यमों को खत्म कर दिया गया।

लेकिन, पिछले कुछ वर्षों के लगातार प्रयास से और मौर्यकालीन व्यवस्था को पुनर्जीवित कर कम-से-कम मगध क्षेत्र में जल संकट को काफी हद तक कम किया जा सका है।

गौरतलब है कि मगध क्षेत्र में दक्षिण-मध्य बिहार के 10 जिले आते हैं। ये क्षेत्र पिछले एक दशक से जलसंकट से जूझ रहे थे। यहाँ रहने वाले लोगों को खेती छोड़कर दूसरे राज्यों का रुख करना पड़ता था।

यहाँ बारिश भी औसत से कम हुआ करती थी और भूजल का दोहन कुछ ज्यादा ही हो रहा था। इससे भूजल स्तर भी काफी नीचे चला गया था।

बताया जाता है कि गया का जलस्तर 200 फीट नीचे चला गया था जिससे ट्यूबवेल भी सूख गए थे। कहा तो यह भी जा रहा है कि जलसंकट के कारण लोग घरों को बेचकर दूसरी जगहों पर भी जाने को मजबूर हो गए थे।

यहाँ जलसंकट को देखते हुए सरकार ने कहा था कि 100 किलोमीटर लम्बी नहर खोदकर गंगा से उसे जोड़ा जाएगा लेकिन यह परियोजना विफल हो गई।

एक वक्त तो ऐसा भी आया कि लगा यहाँ जल संकट शायद कभी भी खत्म नहीं होगा। लेकिन, अरवल के कॉलेज में पाली व संस्कृत पढ़ाने वाले रवींद्र पाठक को यकीन था कि मौर्यकालीन व्यवस्था में ही इसका समाधान है और इसी रास्ते जल संकट से मुक्ति मिल पाएगी।

उन्होंने पुरानी किताबें पढ़नी शुरू कीं, तो अहसास हुआ कि पुराने व बदहाल हो चुके आहर व पईन को पुनर्जीवित करना ही इसका एकमात्र समाधान है।

पईन उस चैनल को कहते हैं जिससे होकर नदी का पानी आता है और अहर उस निचले भूखण्ड को कहा जाता है जिनका इस्तेमाल रिजर्वायर के रूप में किया जाता है। इस भूखण्ड को चारों तरफ से बाँध बनाकर घेर दिया जाता है ताकि पानी बाहर न निकल सके।

2 हजार वर्ष पहले मौर्यकाल में इन्हीं दो माध्यों से पानी का संचयन कर रखा जाता था।

रवींद्र पाठक ने आहर व पईन के जीर्णोंद्धार के लिये वर्ष 2006 में मगध जल जमात का गठन किया। इस संगठन में आम लोगों को शामिल किया गया। रवींद्र पाठक कहते हैं, ‘इस क्षेत्र में गहराते जल संकट से मुक्ति पाने का एक ही उपाय था- आहर-पईन का संरक्षण।’

वह बताते हैं, ‘सिंचाई के लिये ट्यूबवेल का बेतहाशा इस्तेमाल और भूजल के रिचार्ज की समुचित व्यवस्था नहीं होने से स्थिति और भी खराब हो गई थी।’

रवींद्र पाठक ने संगठन तो बना लिया था, लेकिन लोगों को इससे जोड़कर काम करना बहुत कठिन था क्योंकि लोग अपनी एक इंच जमीन भी छोड़ने को राजी नहीं थे।

खनेता-पाली गाँव के कंचन मिस्त्री इस सम्बन्ध में कहते हैं, ‘शुरुआत में तो गाँव वालों ने आपसी सहयोग से आहर-पईन का जीर्णोंद्धार करने के विचार को ही ठुकरा दिया, क्योंकि उन्हें इस बात का अन्दाजा ही नहीं था कि इसका क्या परिणाम निकल सकता है। असल में उनका विचार था कि सरकार के पास इतने संसाधन होने के बावजूद वह अपनी योजना को सफल नहीं बना सकी, तो मुट्ठी भर लोग यह सब कैसे करेंगे।’

इसके अलावा स्थानीय माफिया भी थे जिन्हें सरकारी परियोजनाओं का ठेका चाहिए था। स्वेच्छा से शुरू की गई पहल की राह में ये माफिया खतरा थे।

आहर पईन से पानीदार हुआ मगधस्थानीय लोग बताते हैं कि वर्ष 2004 में मगध जल जमात बनने से एक वर्ष पहले सामाजिक कार्यकर्ता सरिता व महेश की हत्या कर दी गई थी। दोनों गया में सिंचाई सिस्टम को लेकर काम कर रहे थे। हत्या की इस घटना से भी लोगों में खौफ था।

इन सबके बावजूद पाठक अपने लक्ष्य को लेकर अडिग थे कि उन्हें किसी भी सूरत में क्षेत्र में पानी लाना है।

उनकी इस कोशिश में उन्हें सहयोग दिया उनकी पत्नी प्रमिला व एक कारोबारी प्रभात पांडेय ने।

उन्होंने कमेटी बनाने के लिये गाँव वालों को भरोसे में लिया और खेत के आकार के अनुसार 100 से 1000 रुपए दान करने को कहा। इस रुपए व लोगों के सहयोग से 125 किलोमीटर लम्बे जमुने-दसईं पईन व 159 किलोमीटर लम्बे बरकी पईन का जीर्णोंद्धार कर दिया।

इन दोनों चैनलों का पुनर्निर्माण किया गया और इसमें सामाजिक कार्यकर्ता चंद्रभूषण ने भी सहयोग किया। इन दोनों पईन में फल्गु नदी से पानी लाया गया।

इस भगीरथ प्रयास का परिणाम बेहतरीन रहा। इससे जमुने-दसईं पईन के आसपास बसे 150 गाँव व बरकी नहर के आसपास बसे 250 गाँवों के खेतों के लिये सिंचाई आसान हो गई। इन गाँवों में खरीफ व रबी की फसल उगाने के साथ ही साग-सब्जियाँ, दलहन व तिलहन की खेती भी की जाती है।

दोनों पईन व नहर के जीर्णोंद्धार से कृषि संकट भी कम हो गया। आसपास के रहने वाले किसानों में जान आ गई। गया जिले के शाबाजपुर के रहने वाले 45 वर्षीय किसान जयराम भगत ने आत्महत्या करने की ठान ली थी क्योंकि वर्ष 2007 में उनकी धान की फसल खराब हो गई थी, लेकिन जब उन्होंने मगध जल जमात के स्वयंसेवकों से मुलाकात की, तो उन्होंने आत्महत्या करने का विचार छोड़ दिया। जयराम भगत भी उक्त समूह में शामिल हो गए और मजदूरी करने के लिये चंडीगढ़ जाने का निर्णय भी त्याग दिया। वह सिंचाई व्यवस्था मजबूत करने में सहयोग करने लगे।

जयराम अकेले किसान नहीं थे, जो मजदूरी करने के लिये बाहर जाते थे। करीब 700 गाँवों के हजारों किसानों के लिये दो जून की रोटी के लिये दूसरे राज्यों में जाकर मजदूरी करना मजबूरी थी, क्योंकि खेती के लिये पानी नहीं मिल रहा था और रोजगार का दूसरा कोई विकल्प नहीं था।

जयराम अब गाँव में ही रहकर खेती करते हैं और खेती से अच्छी कमाई कर रहे व घर-परिवार को पर्याप्त समय भी दे पाते हैं।

मगध जल जमात की कोशिशों का परिणाम ही था कि गया के लोग यह तक कहने लगे कि बुद्ध को ज्ञान मिलने के बाद यह दूसरी बड़ी घटना थी, जो गया में हुई। इस पहल का ही नतीजा था कि गया के स्थानीय लोग, अधिकारी, सेना में कार्यरत लोग व पुलिस इस मिशन से जुड़े और चेकडैम तथा तालाबों की सफाई व उन्हें अतिक्रमण मुक्त करने के लिये काम करने लगे।

गया जिले के वकील राजेश क्षितिज कहते हैं, ‘गया में पहले पानी की समस्या को लेकर प्रदर्शन आम घटना थी लेकिन अब यह बीते दिनों की बात हो गई है। जो हैण्डपम्प व कुएँ सूख चुके थे, उनमें भी अब पानी आने लगा है।’

मगध जल जमात के इस प्रयास को राष्ट्रीय स्तर पर सराहना भी मिली। पर्यावरणविद अनुपम मिश्र व मैग्सेसे अवार्डी राजेंद्र सिंह ने संगठन के कामकाज की तारीफ की।

यही नहीं, इस सफल प्रयोग ने बिहार सरकार को भी ऐसे ही मॉडल पर काम करने की प्रेरणा दी। वर्ष 2011 में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सिंचाई, जनस्वास्थ्य व अभियांत्रिकी, रेवेन्यू व भूमि सुधार विभागों को मगध जल जमात के मॉडल पर काम करने की सलाह दी।

यहाँ यह भी बता दें कि मगध क्षेत्र में बड़े और मझोले को मिलाकर चार सिंचाई परियोजनाएँ हैं जिनमें सोन कनाल भी एक है। इन सभी परियोजनाओं के जरिए गया, अरवल, जहानाबाद, औरंगाबाद, नालंदा और नवादा जिले के महज 30 हजार हेक्टेयर खेत की ही सिंचाई हो पाती है।

वर्ष 1972 और फिर 2006 में झारखण्ड के पलामू और गया के पुनपुन बैराज में उत्तर कोयल रिजर्वायर स्कीम हाथ में ली गई थी, लेकिन यह परियोजना ठंडे बस्ते में चली गई।

सिंचाई विभाग के गया सर्किल के एग्जिक्यूटिव इंजीनियर अशोक कुमार चौधरी कहते हैं, ‘मौजूद कनाल सिस्टम केवल खरीफ या मानसून सीजन में ही काम करता है। लेकिन, पुनर्जीवित किये गए आहर-पईन की मदद से गया जिले के किसान 1,50,000 हेक्टेयर में चावल, 1,00,000 हेक्टेयर में गेहूँ और 10 हजार हेक्टेयर में दहलन व तिलहन की खेती कर लेते हैं।

उल्लेखनीय है कि गया जिले में जमुने-दसईं पईन के अलावा बरकी पईन, मोरातल पईन, निनसर-शकुराबाद पईन, नाला-करमडीह-पाले पईन समेत आधा दर्जन से अधिक पईन हैं।

माओवादी गतिविधियों के चलते गया में सरकार से किसी तरह की मदद नहीं मिलती थी, लेकिन जल जमात ने मौर्यकाल के नेटवर्क पर काम करते हुए पानी की उपलब्धता सुनिश्चित कराई।

आहर-पईन की सफलता को देखते हुए ईमामगंज व डुमरिया के करीब 7 गाँवों के लोगों ने बारिश का पानी संग्रह करने के लिये मगध जल जमात से चेकडैम बनाने की अपील की थी। यह क्षेत्र जीटी रोड से 22 किलोमीटर दूर है और वहाँ तक पहुँचना मुश्किल काम था।

एक दशक बाद अपने खेत में खेती करने वाले पचमन गाँव के 60 वर्षीय किसान कामेश्वर यादव कहते हैं, ‘हमारे स्वयंसेवकों ने करीब 2 महीनों तक काम कर चेकडैम बनाया और पईन को पुनर्जीवित किया। इससे अभी एक दर्जन गाँवों के किसान अपने खेत की सिंचाई करते हैं और साथ ही इसे आहर व पईन का रिचार्ज भी हो जाता है।’

इस पहल का परिणाम यह निकला कि खेती-किसानी दोबारा यहाँ शुरू हुई और रोजगार के लिये युवाओं का पलायन रुक गया। यहाँ के युवा अब अपने खेत में दलहन व तिलहन की खेती कर अच्छी कमाई कर लेते हैं।

दिल्ली की एक दुकान में काम कर रोजी-रोटी चलाने वाले निरंजन यादव अब गाँव लौट आये हैं। वह कहते हैं, ‘हमने 2014 में महज 44 हजार रुपए खर्च कर चेकडैम बनाया था। ऐसा ही चेकडैम बनाने के लिये राज्य सरकार 5 लाख रुपए खर्च करती और एक साल का वक्त लगाती।’

उन्होंने कहा, ‘चेकडैम के कारण अब मैं मछलीपालन की भी योजना बना रहा हूँ और उम्मीद है कि इस बार रबी की बम्पर फसल होगी।’

आम लोगों के प्रयास से सफलता की इबारत लिखने वाला जल संचयन का यह मॉडल जल संकट से ग्रस्त क्षेत्र के लिये एक नजीर हो सकता है।

अनुवाद - उमेश कुमार राय

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