बालौदा लक्खा गाँव को अब जलतीर्थ कहा जाता है। इस साल इलाके में बहुत कम बारिश हुई है। 45 डिग्री पारे के साथ चिलचिलाती धूप में भी गाँव के करीब 90 फीसदी खेतों में हरियाली देखकर मन को सुकून मिलता है। पर्याप्त पानी होने से किसान साल में दूसरी और तीसरी फसल भी आसानी से ले रहे हैं। लगभग एक हजार से ज्यादा किसान सोयाबीन, प्याज, मटर, गेहूँ और चने की तीन फसलें लेते हैं। गाँव की खेती लायक कुल 965 हेक्टेयर जमीन के 90 फीसदी खेतों में पर्याप्त सिंचाई हो रही है।
वो कहते हैं न कि आदमी के हौसले अगर फौलादी हो तो क्या नहीं कर सकता। और जब ऐसे लोगों का कारवाँ बन जाये तो असम्भव भी सम्भव हो जाता है। हम बात कर रहे हैं उज्जैन जिले के एक छोटे से गाँव बालौदा लक्खा और उसके बाशिन्दों की। लोगों की एकजुटता और उनके प्रयास ने इस बेपानी गाँव को पानीदार बना डाला।
बीस साल पहले तक यह गाँव बूँद-बूँद पानी को मोहताज था। पानी की कमी के कारण खेती दगा दे गई थी। युवा रोजगार की तलाश में उज्जैन और इन्दौर पलायन करने को मजबूर थे। महिलाएँ पानी की व्यवस्था करने में ही परेशान रहती थीं। बच्चे स्कूल जाने के बजाय हाथों में खाली बर्तन उठाए कुआँ-दर-कुआँ घूमते रहते। पर समय ने करवट ली और लोगों ने मेहनत के दम पर वहाँ की तस्वीर ही बदल डाली। अब यह गाँव प्रदेश के लोगों के लिये कौतूहल का विषय है और वे पानी का काम देखने के लिये दूर-दूर से यहाँ आते हैं।
मध्य प्रदेश के उज्जैन जिले का बालौदा लक्खा गाँव को अब जलतीर्थ कहा जाता है। इस साल इलाके में बहुत कम बारिश हुई है। 45 डिग्री पारे के साथ चिलचिलाती धूप में भी गाँव के करीब 90 फीसदी खेतों में हरियाली देखकर मन को सुकून मिलता है। पर्याप्त पानी होने से किसान साल में दूसरी और तीसरी फसल भी आसानी से ले रहे हैं। लगभग एक हजार से ज्यादा किसान सोयाबीन, प्याज, मटर, गेहूँ और चने की तीन फसलें लेते हैं। गाँव की खेती लायक कुल 965 हेक्टेयर जमीन के 90 फीसदी खेतों में पर्याप्त सिंचाई हो रही है। एक हजार बोरिंग तथा 25 हैण्डपम्प में से कहीं पानी की किल्लत नहीं है। गाँव में रोज एक घंटे तक नल चलते हैं। भीषण गर्मी में भी घरों में पानी की कमी नहीं है।
बडनगर-रूनिजा मार्ग पर महज नौ किमी चलने पर ही करीब पाँच हजार की आबादी वाला छोटा-सा गाँव बालौदा लक्खा मिलता है। यहाँ के ज्यादातर लोग किसान हैं, जिनके पास अपनी जमीन नहीं है, वे खेतों में मजदूरी करते हैं। इस अकेले गाँव में सवा सौ से ज्यादा जल संरचनाएँ बनी हैं, जिनसे गाँव का बरसाती पानी बाहर नहीं जाता। पास की पहाड़ी से भी नालियों के रूप में बारिश का पानी गाँव और खेतों में जाकर धरती में समा जाता है।
आप चौंक जाएँगे लेकिन यहाँ 11 तालाब, 15 सोख्ता तालाब, 6 सूक्ष्म तालाब (आरएमएस), 25 परकोलेशन टैंक, दर्जनों रिचार्ज पिट तथा पचास से ज्यादा बोल्डर चेकडैम और मिट्टी के बाँध बनाए गए हैं। पूरे गाँव और आसपास के इलाके में रनिंग वाटर सिस्टम के जरिए बारिश का अधिकांश पानी गाँव और उसके खेतों से बाहर नहीं जा पाता है। इस साल बारिश सामान्य से लगभग आधी होने के बावजूद गाँव में जलस्तर बना हुआ है।
यहाँ गंगा सागर तालाब, मुक्ति सागर तालाब, भवानी सागर तालाब, माता सागर तालाब, रेडवाला तालाब, कृषि सागर आदि तालाबों में आमतौर पर मार्च के आखिरी हफ्ते तक पानी भरा रहता है। हालांकि बारिश कम होने से इस बार ये जनवरी-फरवरी में ही सूख चुके हैं। इलाके का भूजल स्तर जो कभी तीन सौ फीट से ज्यादा हो गया था आज भी महज 60 से सौ फीट है।
मोटे तौर पर यहाँ ग्रामीणों के आपसी सहयोग से निर्मित 60 जल संरचनाएँ तथा सरकारी खर्च से बनी 40 से 60 जल संरचनाएँ हैं। बालौदा के आसपास बहने वाले तीन टेढ़े-मेढ़े नालों की कुल लम्बाई 18 किमी तथा इसकी सहायक करीब 120 छोटी नालियों और छपरों का बहाव तालाबों और अन्य जल संरचनाओं से इस तरह जोड़ दिया गया है कि बारिश के पानी का एक भी बूँद व्यर्थ नहीं बहता।
गाँव में परम्परागत जल संरचनाओं का भी भरपूर इस्तेमाल किया गया है। रिचार्ज कर कई पुरानी संरचनाओं को पुनर्जीवित किया गया है। गाँव वालों ने रिकार्ड तोड़ करीब 14 लाख रुपए का जन सहयोग इन कामों के लिये किया है। यही काम यदि सरकारी स्तर पर होता तो इसकी लागत 40 से 50 लाख रुपए तक की होती।
इस गाँव को जल संरचनाओं के कारण मध्य प्रदेश सरकार का प्रमाण पत्र भी मिल चुका है। तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को तो यहाँ पानी का काम इतना पसन्द आया था कि उन्होंने कई बार यहाँ तक कहा कि मेरा सपना तभी पूरा होगा जब प्रदेश का हर गाँव बलौदा लक्खा की तरह पानी रोकने का काम करेगा।
ग्रामीण बताते हैं कि पच्चीस साल पहले तक गाँव में सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था लेकिन नब्बे के दशक के आसपास अचानक यहाँ पानी की कमी होने लगी। खेती और खेत आधारित मजदूरी से ही जिस गाँव की रोजी-रोटी चलती हो, उस गाँव में पानी के मोल को समझा जा सकता है। पानी नहीं तो रोटी पर संकट आने लगा।
जमीन का पानी गहरा और गहरा होता जा रहा था। लोग पानी की तलाश में गहरे से गहरे ट्यूबवेल करवा रहे थे। एक किसान सवाई सिंह झाला ने तो अपने खेतों में एक के बाद एक ढाई सौ बोरिंग करवा दिये लेकिन पानी नहीं निकला। इतनी बड़ी तादाद में बोरिंग करवाने में उन्हें लाखों का नुकसान हुआ,वह अलग। लोगों के पास जमीनें तो थीं पर पानी के बिना क्या करते? हाथ-पर-हाथ धरे पानी के बारे में सोचते हुए कई बरस बीत गए।
अर्जुन सिंह राठौर बताते हैं कि हमने सबसे पहले यह संकल्प लिया कि 'गाँव का पानी गाँव में और खेत का पानी खेत में' के नारे को जमीनी हकीकत बनाएँगे। हमने कृषि अधिकारी अमर सिंह परमार, किसान किशोर सिंह चौहान, भीम सिंह कारा, ओमप्रकाश दुबे, नाहर सिंह चौधरी तथा सबल सिंह आदि ने ग्रामीणों के साथ आपसी बातचीत कर समस्या का हल ढूँढने के तरीकों पर चर्चा की। सबसे पहले बरसाती पानी को गाँव के पास से बहाकर ले जाने वाले बाँकिया (टेढ़े-मेढ़े) नाले पर कंक्रीट के रोक बाँध बनाए और बाकी बचे पानी को पुरानी बनी एक तलाई में रोकने का जतन किया।
यह बात सन 2000 के बारिश से पहले की है। बदकिस्मती कि इस साल बारिश बहुत कम (औसत से भी आधी) ही हुई। किसानों को इसका कुछ खास फायदा नहीं मिला, लेकिन बड़ा चमत्कार यह हुआ कि 2001 के मार्च-अप्रैल तक भेरुलाल माली का ट्यूबवेल बिना थके पानी दे रहा था। भेरुलाल का खेत बाँकिया नाले के आखिरी बिन्दु पर था। आमतौर पर यह ट्यूबवेल नवम्बर-दिसम्बर में ही सूख जाया करता था। ग्रामीणों का रास्ता मिल गया था। इस सफलता से उत्साहित होकर गाँव के कुछ लोग अन्ना हजारे के गाँव (रालेगाँव) में पानी का काम देखने जा पहुँचे।
ग्रामीणों ने पहाड़ी पठार से आने वाले बरसाती पानी को गाँव में ही रोकने के मकसद से जनसहयोग कर एक बड़ा तालाब बनाने का विचार किया। देखते-ही-देखते कार्य योजना बन गई और किसी ने रुपए दिये, किसी ने श्रमदान तो किसी ने अपने ट्रैक्टर देने की बात कही। यानी जिससे जो बन पड़ा उसने वैसा ही सहयोग दिया।
अब समस्या यह थी कि तालाब बनेगा कहाँ और इसके लिये अपनी जमीन कौन देगा। लेकिन जहाँ चाह, वहाँ राह की तर्ज पर इसका भी रास्ता निकल आया। हुआ कुछ यूँ कि करीब 15 साल पहले सरकारी सूखा राहत मद से सिंचाई विभाग ने एक तालाब बनाने के लिये गाँव से लगी सरकारी जमीन पर खुदाई शुरू की थी लेकिन आगे का बजट नहीं आने से वह तब से यूँ ही पड़ा था। ग्रामीणों ने अपना पसीना बहाकर तालाब तैयार किया।
इसी तरह मालगावड़ी से आने वाले बारिश की बूँदों को सहेजने के लिये एक और तालाब बनाया गया। यह तालाब ऐसी जगह पर बना है, जिसे बरसों तक झगड़ात की कहा जाता रहा मतलब कई सालों से इस पर दो पक्षों के बीच विवाद चल रहा था। गाँव वालों के समझाने पर दोनों पक्षों ने दावेदारी छोड़ दी और दोनों ने ही आधा-आधा बीघा जमीन तालाब के लिये सहर्ष दे दी। इस तालाब के ओवरफ्लो होने पर पानी को रोकने के लिये एक तलैया बनवाया गया। इस पानी से किसानों के कुएँ रिचार्ज होते हैं। इसके आगे एक बोल्डर पाला बनाकर पानी को रोका गया। कुंडवाला नाले पर भी रोक बाँध बनाया गया।
गाँव के ही भीम सिंह कारा ने आगे बढ़कर खेडवड़ाके नाले को रोककर एक और तालाब बनाने के लिये 25 हजार रुपए देने की घोषणा की तथा बाकी लोगों ने पाँच से बीस हजार रुपए तक देने की बात कही। इससे तीन लाख रुपए लागत से तीसरा बड़ा तालाब भी बनकर तैयार हो गया। चौथा तालाब मालगावड़ी की ओर जाने वाले रास्ते पर कुछ किसानों ने अपने खर्च पर बना लिया। इन चारों तालाब से भी यदि कुछ बरसाती पानी ओवर फ्लो होता है तो उसे सहेजने के लिये ढाई लाख रुपए की लागत से डेढ़ हेक्टेयर का बड़ा तालाब बनाया गया।
गाँव के मुक्तिधाम में पानी का संकट होने पर मृतक देह को अन्तिम आचमन के लिये भी पानी नहीं मिल पाता था, ऐसे में ग्रामीणों ने विचार कर यहाँ भी एक तालाब बनाने का फैसला किया। तालाब बनाने के लिये लोग घर-घर पहुँचे और सहयोग माँगा। लोगों पर इसका बड़ा भावनात्मक असर हुआ और अच्छा जन सहयोग मिला। आज इस तालाब में पानी भरा हुआ है। इसी प्रकार किसान रमेश चन्द्र ने अपनी निजी जमीन में तीन बीघा का बड़ा सा तालाब बनवाया।
इससे भी बड़ी बात यह है कि बालौदा लक्खा में 'कर्मचारी तालाब' भी है और इसके बनने की कहानी भी कम रोचक नहीं है। जिन दिनों गाँव में तालाब बनाने की अलख जगाई जा रही थी तो कृषि अधिकारी अमर सिंह परमार और उनके कर्मचारी साथियों ने सोचा कि हम भी कब तक ग्रामीणों को सिर्फ पानी बचाने का भाषण ही पिलाते रहेंगे। हमें भी कोई संरचना बनाकर गाँव को तोहफा देना चाहिए।
गाँव में तैनात कर्मचारियों ने अपने वेतन से पैसे जोड़े और तालाब बनाया तो उसका नाम ही पड़ गया कर्मचारी तालाब। इस तरह एक के बाद एक कई जल संरचनाएँ बनीं। कहीं रोक बाँध बनाए गए तो कहीं रिचार्ज पिट बनाए गए। इस तरह अब बारिश का एक बूँद पानी भी यहाँ से व्यर्थ बहकर बाहर नहीं जाता। पहाड़ियों से पानी को तालाबों तक लाने के लिये हर साल नालियों को साफ किया जाता है ताकि पानी को ढंग से सहेजा जा सके। इसके लिये नई तकनीकें ही नहीं, बालौदा गाँव के बुजुर्गों को विरासत में मिले पानी से सम्बन्धित परम्परागत ज्ञान का भी उपयोग किया गया है।
जल तीर्थ बने बालौदा लक्खा के लोगों ने अपने गाँव में पानी का जमीनी काम करते हुए एक मिसाल पेश की और आज इसका पूरा फायदा यहाँ के किसानों को मिल रहा है। 'पानीदार' होने से बेहतर उपज ने उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति में बड़ा बदलाव किया है।
बीते पन्द्रह सालों में गाँव के किसानों के अधिकांश घर पक्के बन गए हैं। घर-घर बाइक हैं तो कहीं दालान में कारें खड़ी हैं। लगभग सभी बड़े किसानों के यहाँ चमचमाते ट्रैक्टर हैं। उनकी क्रय शक्ति बढ़ी है। उनके बच्चे बडनगर और उज्जैन के अच्छे स्कूलों तथा कॉलेजों में पढ़कर अपना भविष्य बना रहे हैं। पलायन कर उज्जैन और इन्दौर गए लोग भी धीरे-धीरे गाँव लौट रहे हैं। जिनके पास खेती नहीं है और मजदूरी पर ही जीविकोपार्जन करते हैं, उन्हें भी अब पर्याप्त कृषि मजदूरी मिल रही है। अब गाँव के किसान जैविक खेती पर जोर दे रहे हैं। कुछ किसानों ने इसकी पहल शुरू भी कर दी है।
बालौदा गाँव से प्रेरणा लेकर कई गाँवों ने अपने यहाँ भी जल संरचनाएँ बनाने का काम शुरू किया है। कई जगह अच्छे परिणाम भी आ रहे हैं, लेकिन हजारों गाँवों में लोग अब भी अपने 'पानी' के लिये सरकार का मुँह ताक रहे हैं।
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