Posted on 28 Jul, 2014 12:27 PMतुम्हारे कितने नाम हैं ब्रह्मपुत्र तिब्बत के जिस बर्फ से ढके अंचल में तुम्हारा जन्म हुआ वहीं से निकली हैं शतद्रू और सिन्धु की धाराएं सगर तल से सोलह हजार फीट की ऊंचाई पर टोकहेन के पास संगम होता है तीनों हिम प्रवाहों का
तिब्बती में कहते हैं- कूबी सांगपो, सेमून डंगसू और मायून सू यह संगम कैलाश पर्वत श्रेणी के दक्षिण में होता है
Posted on 25 Jul, 2014 04:43 PMनर्मदा से मिलने वाली सहायक हरदा की अजनाल नदी के बारे में बार-बार पूछते फोन पर इन्दौर से कृष्णकान्त बिलों से और हर बार उसांसें छोड़ते बताना पड़ता उन्हें कि अजनाल अब जीवित नदी नहीं है यहां और जो जीवित थी उसे तो तुम हरदा छोड़ते वक्त अपने साथ ले गये थेअपनी यादों की झोली में तभी
वैसे कुछ लोग हैं जो तुम्हारे वक्त की अजनाल में तैरने
Posted on 25 Jul, 2014 04:40 PMवर्षों पूर्व जुहू के समन्दर में नहाया था पहली बार तब नमकीन हथेलियों से पल्लर पल्लर सहलाते हुए पूछा था सागर ने कि- मुझमें नहाने के पहले कहां सेनहा कर आया हूं मैं
तब मैंने अपनी नर्मदा में डुबकियां लगाकर बम्बई आने काबताया था उसे जिसे सुनते ही रेत तक मेरा बदन पोंछता ले आया जुहू का सागर प्यार से बाहर
Posted on 25 Jul, 2014 04:37 PMमैंने तो मकर संक्रान्ति की शीत लहर में ठंड से कांपती नर्मदा को कुनकुनी रेत के अलाव पर बदन सेंकते देखा है घाट-घाट बांटते देखा है सदाबरत और गुड़-बिल्ली का परसाद हंस-हंसकर दिनभर
रोते भी देखा उस वक्त जब सावन की मूसलाधार झरी में गांव के गांव बहे थे गोद में उसकी
रखवाली करते तो- पिछली गरमी में ही देखा उसे जब नहाते वक्त
Posted on 12 Jul, 2014 12:52 PMपहाड़ पर आई है आपदा और मैं नही हूं इससे विचलित पहाड़ पर आपदा दरअसल एक गति है। ठहराव के खिलाफ रहे हैं पहाड़ वे बनते-टूटते-बिखरते-जुड़ते ही पहाड़ हो पाते हैं। पहाड़ नहीं खींचे जा सकते सपाट लकीरों में पहाड़ों की नहीं हो सकतीं मनचाही गोलाइयां।
पहाड़ तोड़ते ही आये हैं अपनी ऊचाइयों को बहते-फिसलते ही रहे पानी की तेज धाराओं में घुलकर।
Posted on 04 May, 2014 10:18 AMभारत के गंवई ज्ञान ने तरुण भारत संघ को इतना तो सिखा ही दिया था कि जंगलों को बचाए बगैर जहाजवाली नदी जी नहीं सकती। लेकिन तरुण भारत संघ यह कभी नहीं जानता था कि पीने और खेतों के लिए छोटे-छोटे कटोरों में रोक व बचाकर रखा पानी, रोपे गए पौधे व बिखेरे गए बीज एक दिन पूरी नदी को ही जिंदा कर देंगे। जहाजवाली नदी के इलाके में भी तरुण भारत संघ पानी का काम करने ही आया था, लेकिन यहां आते ही पहले न तो जंगल संवर्द्धन का काम हुआ और न पानी संजोने का। अपने प्रवाह क्षेत्र के उजड़ने-बसने के अतीत की भांति जहाजवाली नदी की जिंदगी में भी कभी उजाड़ व सूखा आया था। आपके मन में सवाल उठ सकता है कि आखिर एक शानदार झरने के बावजूद कैसे सूखी जहाजवाली नदी? तरुण भारत संघ जब अलवर में काम करने आया था...तो सूखे कुओं, नदियों व जोहड़ों को देखकर उसके मन में भी यही सवाल उठा था।
इस सवाल का जवाब कभी बाबा मांगू पटेल, कभी धन्ना गुर्जर...तो कभी परता गुर्जर जैसे अनुभवी लोगों ने दिया। प्रस्तुत कथन जहाजवाली नदी जलागम क्षेत्र के ही एक गांव घेवर के रामजीलाल चौबे का है।
चौबे जी कहते हैं कि पहले जंगल में पेड़ों के बीच में मिट्टी और पत्थरों के प्राकृतिक टक बने हुए थे। अच्छा जंगल था। बरसात का पानी पेड़ों में रिसता था। ये पेड़ और छोटी-छोटी वनस्पतियां नदी में धीरे-धीरे पानी छोड़ते थे। इससे मिट्टी कटती नहीं थी।