पहाड़ पर आई है आपदा
और मैं नही हूं इससे विचलित
पहाड़ पर आपदा दरअसल एक गति है।
ठहराव के खिलाफ रहे हैं पहाड़
वे बनते-टूटते-बिखरते-जुड़ते ही पहाड़ हो पाते हैं।
पहाड़ नहीं खींचे जा सकते सपाट लकीरों में
पहाड़ों की नहीं हो सकतीं मनचाही गोलाइयां।
पहाड़ तोड़ते ही आये हैं
अपनी ऊचाइयों को
बहते-फिसलते ही रहे पानी की तेज धाराओं में घुलकर।
बहुत महीन हो बारिश या
फट पड़ा हो बादल
पहाड़ बार-बार बुलाते हैं बादलों को
और आगे कर देते हैं छाती
हमसे टकराओ
हमसे हमसे हमसे
मुक्त होवो मीलों लम्बे तनाव से
और फिर हम दोनों मिलकर बन जायें
पानी की तेज धार।
मिट्टी-पत्थर ले चलें साथ
नदियों की गोद भर दें
इस बार मुझे नहीं आया घर, मां, खेत, गाय,
पेड़ और मधुमक्खियों का ख्याल
मित्रों-नातेदारों के साथ क्या हुआ?
नहीं घबराया मैं सनसनाती खबरों से।
पहाड़ की तरह पहाड़वासी भी टूटते, बनते,
बिगड़ते और बदलते आये हैं सदियों से।
जिसको लगा होगा अस्तित्व का डर
वह नहकल आया बाहर और शामिल हो गया एक
सुपरिभाषित दुनिया में
उसकी धमनियां ठहर-सी गयीं
नपा-तुला हो गया,
आकर कहीं ठहर गया।
मगर पहाड़ पर रहने वाले लोग
रोज ही चढ़ते-उतरते हैं
ऊंचाइयां-गहराइयां
फिर घराट खड़ा कर
मथते हैं पानी
और
हर बार फिर
नदी के लिए ढूंढ ले आते हैं लकड़ी का मुकम्मल पुल।
उनके लिए तय नहीं कोई वास्तुशास्त्र
जैसे पर बार पलटीमार जाती है नदी
वह भी पलट जाते हैं नियम मानकर
बदल जाते हैं उनके रास्ते, उनकी मंजिलें।
उन्हें आप नहीं डरा सकते प्रलय की तस्वीर से
वे आदी हैं इस प्रलय में उतर जाने के
प्रलय कई बार निगल जाता है उन्हें
या कई बार प्रलय चट्टानों में पीस डालता है उन्हें
मगर वे फिर से उगकर खड़े हो जाते हैं ऊंचे
चट्टन का सीना चीरकर जैसे मिट्टी तक जा पहुंचते हैं पेड़।
वे सहभागी होते हैं पहाड़ के साथ उसकी खुशियों और
त्रासदियों में
जैसे कि आसमान से उनके पैरों में गिरता झरना
जैसे कि तीखे ढलान पर अटकी कोई चट्टान।
पहाड़ में रहते हुए उनका हृदय हो जाता है शिलाजीत सा
जो बहुत मजबूती से चिपटा रहता है आत्मा से।
नहीं! तुम दर्द का महाकाव्य रचकर
बार-बार सर पर सवार होकर
नहीं कर पाओगे सफेद को काला
नहीं करा पाओगे पहाड़ से उनका अलगाव
वे नहीं डरेंगे, नहीं डरेंगे, कभी नहीं डरेंगे तुम्हारे
विस्फारित आख्यानों से।
जो नहीं लगा पाते पहाड़ से दिल
वे ही दरअसल ऐसी मनहूस पटकथाएं रचते हैं
और मैं नही हूं इससे विचलित
पहाड़ पर आपदा दरअसल एक गति है।
ठहराव के खिलाफ रहे हैं पहाड़
वे बनते-टूटते-बिखरते-जुड़ते ही पहाड़ हो पाते हैं।
पहाड़ नहीं खींचे जा सकते सपाट लकीरों में
पहाड़ों की नहीं हो सकतीं मनचाही गोलाइयां।
पहाड़ तोड़ते ही आये हैं
अपनी ऊचाइयों को
बहते-फिसलते ही रहे पानी की तेज धाराओं में घुलकर।
बहुत महीन हो बारिश या
फट पड़ा हो बादल
पहाड़ बार-बार बुलाते हैं बादलों को
और आगे कर देते हैं छाती
हमसे टकराओ
हमसे हमसे हमसे
मुक्त होवो मीलों लम्बे तनाव से
और फिर हम दोनों मिलकर बन जायें
पानी की तेज धार।
मिट्टी-पत्थर ले चलें साथ
नदियों की गोद भर दें
इस बार मुझे नहीं आया घर, मां, खेत, गाय,
पेड़ और मधुमक्खियों का ख्याल
मित्रों-नातेदारों के साथ क्या हुआ?
नहीं घबराया मैं सनसनाती खबरों से।
पहाड़ की तरह पहाड़वासी भी टूटते, बनते,
बिगड़ते और बदलते आये हैं सदियों से।
जिसको लगा होगा अस्तित्व का डर
वह नहकल आया बाहर और शामिल हो गया एक
सुपरिभाषित दुनिया में
उसकी धमनियां ठहर-सी गयीं
नपा-तुला हो गया,
आकर कहीं ठहर गया।
मगर पहाड़ पर रहने वाले लोग
रोज ही चढ़ते-उतरते हैं
ऊंचाइयां-गहराइयां
फिर घराट खड़ा कर
मथते हैं पानी
और
हर बार फिर
नदी के लिए ढूंढ ले आते हैं लकड़ी का मुकम्मल पुल।
उनके लिए तय नहीं कोई वास्तुशास्त्र
जैसे पर बार पलटीमार जाती है नदी
वह भी पलट जाते हैं नियम मानकर
बदल जाते हैं उनके रास्ते, उनकी मंजिलें।
उन्हें आप नहीं डरा सकते प्रलय की तस्वीर से
वे आदी हैं इस प्रलय में उतर जाने के
प्रलय कई बार निगल जाता है उन्हें
या कई बार प्रलय चट्टानों में पीस डालता है उन्हें
मगर वे फिर से उगकर खड़े हो जाते हैं ऊंचे
चट्टन का सीना चीरकर जैसे मिट्टी तक जा पहुंचते हैं पेड़।
वे सहभागी होते हैं पहाड़ के साथ उसकी खुशियों और
त्रासदियों में
जैसे कि आसमान से उनके पैरों में गिरता झरना
जैसे कि तीखे ढलान पर अटकी कोई चट्टान।
पहाड़ में रहते हुए उनका हृदय हो जाता है शिलाजीत सा
जो बहुत मजबूती से चिपटा रहता है आत्मा से।
नहीं! तुम दर्द का महाकाव्य रचकर
बार-बार सर पर सवार होकर
नहीं कर पाओगे सफेद को काला
नहीं करा पाओगे पहाड़ से उनका अलगाव
वे नहीं डरेंगे, नहीं डरेंगे, कभी नहीं डरेंगे तुम्हारे
विस्फारित आख्यानों से।
जो नहीं लगा पाते पहाड़ से दिल
वे ही दरअसल ऐसी मनहूस पटकथाएं रचते हैं
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Post By: pankajbagwan