प्रेमशंकर रघुवंशी

प्रेमशंकर रघुवंशी
अपनी वसीयत नर्मदा को
Posted on 25 Jul, 2014 04:49 PM
मैंने वसीयत में लिख दिया
राष्ट्र के नाम
अपना राष्ट्र गीत राष्ट्र ध्वज
राष्ट्र भाषा
और संविधान अपना

लिख दिया विश्व के नाम
चांद सूरज तारे
हवा पानी प्रकाश
पर्यावरण

और अंत में सबके लिए
सृजन के संकल्प
और प्रार्थनाएं अनन्त

नहीं लिखा
विनाश का कोई भी शब्द
किसी के लिए कहीं

मैंने सौंप दी
नर्मदा की सहायक अजनाल के बारे में
Posted on 25 Jul, 2014 04:43 PM
नर्मदा से मिलने वाली सहायक
हरदा की अजनाल नदी के बारे में
बार-बार पूछते फोन पर
इन्दौर से कृष्णकान्त बिलों से
और हर बार उसांसें छोड़ते
बताना पड़ता उन्हें
कि अजनाल अब जीवित नदी नहीं है यहां
और जो जीवित थी उसे तो तुम
हरदा छोड़ते वक्त अपने साथ ले गये
थेअपनी यादों की झोली में तभी

वैसे कुछ लोग हैं
जो तुम्हारे वक्त की अजनाल में तैरने
झारी भर नर्मदा
Posted on 25 Jul, 2014 04:40 PM
वर्षों पूर्व जुहू के समन्दर में
नहाया था पहली बार
तब नमकीन हथेलियों से
पल्लर पल्लर सहलाते हुए
पूछा था सागर ने कि-
मुझमें नहाने के पहले कहां
सेनहा कर आया हूं मैं

तब मैंने अपनी नर्मदा में
डुबकियां लगाकर बम्बई आने
काबताया था उसे
जिसे सुनते ही
रेत तक मेरा बदन पोंछता
ले आया जुहू का सागर प्यार से बाहर

और बोला-
जब भी याद करता नर्मदा को
Posted on 25 Jul, 2014 04:37 PM
मैंने तो
मकर संक्रान्ति की शीत लहर में
ठंड से कांपती नर्मदा को
कुनकुनी रेत के अलाव पर
बदन सेंकते देखा है घाट-घाट
बांटते देखा है सदाबरत और
गुड़-बिल्ली का परसाद
हंस-हंसकर दिनभर

रोते भी देखा उस वक्त
जब सावन की मूसलाधार झरी में
गांव के गांव बहे थे गोद में उसकी

रखवाली करते तो-
पिछली गरमी में ही देखा उसे
जब नहाते वक्त
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