भारत के गंवई ज्ञान ने तरुण भारत संघ को इतना तो सिखा ही दिया था कि जंगलों को बचाए बगैर जहाजवाली नदी जी नहीं सकती। लेकिन तरुण भारत संघ यह कभी नहीं जानता था कि पीने और खेतों के लिए छोटे-छोटे कटोरों में रोक व बचाकर रखा पानी, रोपे गए पौधे व बिखेरे गए बीज एक दिन पूरी नदी को ही जिंदा कर देंगे। जहाजवाली नदी के इलाके में भी तरुण भारत संघ पानी का काम करने ही आया था, लेकिन यहां आते ही पहले न तो जंगल संवर्द्धन का काम हुआ और न पानी संजोने का। अपने प्रवाह क्षेत्र के उजड़ने-बसने के अतीत की भांति जहाजवाली नदी की जिंदगी में भी कभी उजाड़ व सूखा आया था। आपके मन में सवाल उठ सकता है कि आखिर एक शानदार झरने के बावजूद कैसे सूखी जहाजवाली नदी? तरुण भारत संघ जब अलवर में काम करने आया था...तो सूखे कुओं, नदियों व जोहड़ों को देखकर उसके मन में भी यही सवाल उठा था।
इस सवाल का जवाब कभी बाबा मांगू पटेल, कभी धन्ना गुर्जर...तो कभी परता गुर्जर जैसे अनुभवी लोगों ने दिया। प्रस्तुत कथन जहाजवाली नदी जलागम क्षेत्र के ही एक गांव घेवर के रामजीलाल चौबे का है।
चौबे जी कहते हैं कि पहले जंगल में पेड़ों के बीच में मिट्टी और पत्थरों के प्राकृतिक टक बने हुए थे। अच्छा जंगल था। बरसात का पानी पेड़ों में रिसता था। ये पेड़ और छोटी-छोटी वनस्पतियां नदी में धीरे-धीरे पानी छोड़ते थे। इससे मिट्टी कटती नहीं थी।
झरने बहते रहते थे। याद रहे कि बहते हुए झरनों के पानी से ही ऐसी नदी बनती है और उसका प्रवाह बना रहता है। पहले लोगों में पेड़ बचाने की परंपरा थी। लोग पेड़ नहीं काटते थे। हर एक गोत्र का एक पेड़ होता था। इसे धराड़ी कहते हैं। धराड़ी यानी धरोहर। हर आदमी अपने गोत्र के धराड़ी वाले पेड़ को जान देकर भी बचाता था।
अंग्रेजों के जमाने से यह परंपरा टूटनी शुरू हुई। जंगल समाज के हाथ से निकल कर जंगलात का हो गया। जंगलात यानी वन विभाग ने ऐसे कानून बनाए, ताकि जंगल सरकार के कब्जे में आ जाए। इस तरह जंगल व जंगलवासियों के बीच में कानून रोड़ा बन गए।
जंगलवासियों के लिए जंगल पराए हो गए। जंगल पराया होते ही अतृप्त मन में लालच आया। साथ ही आई बेईमानी। बेईमानी ने धीरे-धीरे जंगल काटे। घास सूख गई। मिट्टी का कटाव बढ़ गया। वनस्पति रहित जगह पर अधिक बरसात होने से मिट्टी कटने लगी। पानी भी धरती के पेट में न बैठकर धरती के ऊपर दौड़ लगाने लगा। फिर पानी कैसे रिसे? झरने कैसे बनें? धरती का पेट कैसे भरे? धरती भूखी रहने लगी।
नतीजतन झरने बहने बंद हो गए। ऊपर झरने सूखे और नीचे धरती। तब नदी को तो सूखना ही था। धीरे-धीरे नदी भी सूख गई। आप देशभर में कई किस्से सुन सकते हैं - “अरे बाबा के जमाने में तो फलां नदी खूब बहती थी। दहाड़ मारती थी। पर आज नदी नहीं, नाला बन गई है।” ऐसे ही एक दिन जहाजवाली भी सूख गई थी।
भारत के गंवई ज्ञान ने तरुण भारत संघ को इतना तो सिखा ही दिया था कि जंगलों को बचाए बगैर जहाजवाली नदी जी नहीं सकती। लेकिन तरुण भारत संघ यह कभी नहीं जानता था कि पीने और खेतों के लिए छोटे-छोटे कटोरों में रोक व बचाकर रखा पानी, रोपे गए पौधे व बिखेरे गए बीज एक दिन पूरी नदी को ही जिंदा कर देंगे।
जहाजवाली नदी के इलाके में भी तरुण भारत संघ पानी का काम करने ही आया था, लेकिन यहां आते ही पहले न तो जंगल संवर्द्धन का काम हुआ और न पानी संजोने का। यहां तो जंगलात और जंगलवासियों के बीच एक दूसरी ही जंग छिड़ी थी।… जंगल पर हकदारी की जंग! इसीलिए जहाजवाली नदी क्षेत्र में संघर्ष पहले हुआ, रचना बाद में। इ
सीलिए जहाजवाली नदी के पुनर्जीवन का चित्र रखते वक्त हम आपको संघर्ष से पहले रूबरू करा रहे हैं….और रचना से बाद में। यूं भी यहां संघर्ष ने एकजुटता के लिए जरूरी माहौल बनाने का अच्छा ही काम किया।
इस सवाल का जवाब कभी बाबा मांगू पटेल, कभी धन्ना गुर्जर...तो कभी परता गुर्जर जैसे अनुभवी लोगों ने दिया। प्रस्तुत कथन जहाजवाली नदी जलागम क्षेत्र के ही एक गांव घेवर के रामजीलाल चौबे का है।
चौबे जी कहते हैं कि पहले जंगल में पेड़ों के बीच में मिट्टी और पत्थरों के प्राकृतिक टक बने हुए थे। अच्छा जंगल था। बरसात का पानी पेड़ों में रिसता था। ये पेड़ और छोटी-छोटी वनस्पतियां नदी में धीरे-धीरे पानी छोड़ते थे। इससे मिट्टी कटती नहीं थी।
झरने बहते रहते थे। याद रहे कि बहते हुए झरनों के पानी से ही ऐसी नदी बनती है और उसका प्रवाह बना रहता है। पहले लोगों में पेड़ बचाने की परंपरा थी। लोग पेड़ नहीं काटते थे। हर एक गोत्र का एक पेड़ होता था। इसे धराड़ी कहते हैं। धराड़ी यानी धरोहर। हर आदमी अपने गोत्र के धराड़ी वाले पेड़ को जान देकर भी बचाता था।
अंग्रेजों के जमाने से यह परंपरा टूटनी शुरू हुई। जंगल समाज के हाथ से निकल कर जंगलात का हो गया। जंगलात यानी वन विभाग ने ऐसे कानून बनाए, ताकि जंगल सरकार के कब्जे में आ जाए। इस तरह जंगल व जंगलवासियों के बीच में कानून रोड़ा बन गए।
जंगलवासियों के लिए जंगल पराए हो गए। जंगल पराया होते ही अतृप्त मन में लालच आया। साथ ही आई बेईमानी। बेईमानी ने धीरे-धीरे जंगल काटे। घास सूख गई। मिट्टी का कटाव बढ़ गया। वनस्पति रहित जगह पर अधिक बरसात होने से मिट्टी कटने लगी। पानी भी धरती के पेट में न बैठकर धरती के ऊपर दौड़ लगाने लगा। फिर पानी कैसे रिसे? झरने कैसे बनें? धरती का पेट कैसे भरे? धरती भूखी रहने लगी।
नतीजतन झरने बहने बंद हो गए। ऊपर झरने सूखे और नीचे धरती। तब नदी को तो सूखना ही था। धीरे-धीरे नदी भी सूख गई। आप देशभर में कई किस्से सुन सकते हैं - “अरे बाबा के जमाने में तो फलां नदी खूब बहती थी। दहाड़ मारती थी। पर आज नदी नहीं, नाला बन गई है।” ऐसे ही एक दिन जहाजवाली भी सूख गई थी।
ऐसे ही सूखती हैं नदियां ! इन्हें इंसान ही सुखाता है
भारत के गंवई ज्ञान ने तरुण भारत संघ को इतना तो सिखा ही दिया था कि जंगलों को बचाए बगैर जहाजवाली नदी जी नहीं सकती। लेकिन तरुण भारत संघ यह कभी नहीं जानता था कि पीने और खेतों के लिए छोटे-छोटे कटोरों में रोक व बचाकर रखा पानी, रोपे गए पौधे व बिखेरे गए बीज एक दिन पूरी नदी को ही जिंदा कर देंगे।
जहाजवाली नदी के इलाके में भी तरुण भारत संघ पानी का काम करने ही आया था, लेकिन यहां आते ही पहले न तो जंगल संवर्द्धन का काम हुआ और न पानी संजोने का। यहां तो जंगलात और जंगलवासियों के बीच एक दूसरी ही जंग छिड़ी थी।… जंगल पर हकदारी की जंग! इसीलिए जहाजवाली नदी क्षेत्र में संघर्ष पहले हुआ, रचना बाद में। इ
सीलिए जहाजवाली नदी के पुनर्जीवन का चित्र रखते वक्त हम आपको संघर्ष से पहले रूबरू करा रहे हैं….और रचना से बाद में। यूं भी यहां संघर्ष ने एकजुटता के लिए जरूरी माहौल बनाने का अच्छा ही काम किया।
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