पुस्तकें और पुस्तक समीक्षा

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बाँहों वाली नदी
Posted on 16 Sep, 2013 03:05 PM जैसे लहरों की हजार बाँहें खोल
मिलने को आती नदी
वापस लौट गई हो
पराए फूलों की घाटी में
मुड़कर डूब गई हो!
कितना दुखदाई है

किसी भी चीज का
मिलते-मिलते खो जाना
कैसा होता है
अपनी हर बात का
नहीं हुआ हो जाना!

गंगा से
Posted on 16 Sep, 2013 03:04 PM जननि, तुम्हारे तट पर ही जब भूखी ज्वाला
मुझे भस्मकर पी जावे धू-धूकर जननी
घने धुएँ से घिरी रुद्र-दृग-सी विकराला।

और प्राण लेकर मेरे, जब सुख से हँसती
मृत्यु चले चिर अंधलोक को विद्यु-गति से
छोड़, धरा पर मेरी दुनिया जननि बिलखती।

छोड़ मुझे जब अग्नि तुम्हारे पावन तट से
धूम्र लीन हो उड़ जावे, जगती के उर पर
मँडराते गिद्धों के वृहत् परों से सट के।
नदी
Posted on 16 Sep, 2013 03:03 PM वह हिम-गिरि के देवदारु-वन में है विचरण करती
नीरद कुंज बनाकर वह, शशि-बदनी रहती
नहीं किसी ने पिए अझर झरते वे निर्झर
जिन पर रहते हिलते उसके सुमधुर अधर।
शशि-आलिंगित सांध्य जलद से गिरि पर सुंदर।
वह तट पर उल्लास उछाल छलककर बहती
पत्थर में वह फूल खिला फेनिल हो हँसती।

अलकनंदा
Posted on 16 Sep, 2013 12:38 PM बही जा रहीं उसी नदी की
यौवन-भरी तरंगें।
गाती हैं उन्मत्त अभी भी
भरने वही उमंगें।
लहरों के इस प्यासे तट पर
एक रात में आकर।
लाया था शशि मुख छाया में
अपनी प्यासी गागर।
लहरों में लिपटी आई तुम
इस छोटे उर में बसने।
वैसा ही फिर हे वन-वासिनी
लहरों में घिर आओ।
गिरि चढ़ने से श्रांत पथिक को
फिर जलगीत सुनाओ।

आज मंदाकिनी जल में
Posted on 16 Sep, 2013 12:36 PM खेतले हैं वरुण अपनी प्रणय-लीला।
घोर केश-समूह छितरा, काटती अपने किनारे,
गगन को घन-घन कँपाती, पर्वतों को तोड़ विखरा,
गज घटा-से बन बहाती, आज कर्दम धूमिला सरि
नाचती उन्मादिनी-सी, नाचते हैं वरुण जल में
लहर-लहरों में उठाए हाथ पीला,
आज मंदाकिनी जल में
खेलते हैं वरुण अपनी प्रणय-लीला।

नदी चली जाएगी, यह न कभी ठहरेगी
Posted on 16 Sep, 2013 12:35 PM नदी चली जाएगी, यह न कभी ठहरेगी!
उड़ जाएगी शोभा, रोके यह न रुकेगी!
झर जाएँगे फूल, हरे पल्लव जीवन के,
पड़ जाएँगे पीत एक दिन शीत भरण से!
रो-रोकर भी फिर न हरी यह शोभा होगी!
नदी चली जाएगी, यह न कहीं ठहरेगी!

जेठ की गंगा से
Posted on 16 Sep, 2013 12:34 PM हे तपी देश की पुण्य तापसी गंगा!
हे युग-युग से इस आर्य-भूमि की-
सिद्धि-छाप-सी गंगा!

तुम इस निदाध में आज और भी
भारत के अनुरूप हुई
जब वह्नि-दाह में लू-प्रवाह में
धरा तप्त विद्रूप हुई

जब नाच रहा है अनाचार का
दानव भीषण नंगा
तुम आज और भी भारत के
अनुरूप हुई हो गंगा!

तुम एक अमर विश्वास लिए बहती हो
डूबती संध्या
Posted on 16 Sep, 2013 12:32 PM डूबती निस्तब्ध संध्या;
ग्रीष्म की तपती दुपहरी,
प्रबल झंझावात के पश्चात,
सुनसान शांत उदास संध्या।
विरल सरि का चिर-अनावृत्त गात
जो किसी की आँख के अभिराम जादू के परस से
हो उठा है लाल,
ऐसा गात
किस अनागत की प्रतीक्षा में खुला है?
दो किनारे,
व्यथित व्याकुल-
बाहु-बंधन में किसी को बाँधने को
नित्य आकुल;
व्यर्थ ही तो है,
मालव सरिताओं से
Posted on 15 Sep, 2013 04:29 PM शिप्रा,, चंबल, काली सिंध.. उतरो नीचे, छोड़ो विन्ध्य।
झर-झर झरती सरिता धार,
तोड़-फोड़ चट्टान, कगार
अष्टदिशा में जल विस्तार,
बहता मानों आत्मानंद शिला-बंध तजकर स्वच्छंद।
कालिदास के वंशज गा
सोती मालव-भूमि जगा!
उस किसान को समझ सगा
जिसकी किस्मत अब भी मंद, उससे कर घनिष्ठ संबंध।
कवि, सपनों के मीठे जाल-
बुनने में मत लगो अ-काल।
मेरे युवजन, मेरे परिजन
Posted on 15 Sep, 2013 04:28 PM अरुणोदय के पूर्व ही
तम-मग्न खँडहरों के मृद्-गंध-प्रसारों में
उद्ग्रीव कुंद-चंपा-गुलाब की गंध लिए मेरे युवजन-व्यक्तित्व यहां पर महक रहे
क्षिप्रा के तट
वीरान हवाओं में...
अरुणोदय के पूर्व ही।

गंभीर श्याम पीड़ा की डोह-भरी क्षिप्रा
आत्मा के कोमल धनच्छाय एकांतों में
स्वीया, अपरा
उन एकांतों में क्षिप्रा का
संवेदन-जल पी रहे
अंधेरे में
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