जेठ की गंगा से

हे तपी देश की पुण्य तापसी गंगा!
हे युग-युग से इस आर्य-भूमि की-
सिद्धि-छाप-सी गंगा!

तुम इस निदाध में आज और भी
भारत के अनुरूप हुई
जब वह्नि-दाह में लू-प्रवाह में
धरा तप्त विद्रूप हुई

जब नाच रहा है अनाचार का
दानव भीषण नंगा
तुम आज और भी भारत के
अनुरूप हुई हो गंगा!

तुम एक अमर विश्वास लिए बहती हो
तुम भारत का इतिहास लिए बहती हो

तुम ओ अमरों की प्रिया! विष्णु-पद-जन्या
तुम पार्थिव कारा में निबद्ध भी धन्या!
तुम विरल-नीर इस कृश शरीर पर कैसे
युग का पीड़न-अभिशाप-पाप सहती हो
किस चिदानंद किस गुरु गंभीर आत्मा का
नित बर्द्धमान उल्लास लिए बहती हो!

तुम जेठ महीने में कैसे मधुमास लिए बहती हो!
तुम किस भावी का एक अमर विश्वास लिए बहती हो!
तुम इस दुरंत दुर्दिन में भी नित कल-कल-कलित-तरंगा
तुम सच संचित साधना-तपस्या भारत की हो गंगा!

वह तप्त देश अभिशप्त वहाँ के वासी
गंगा! तुम जिसके बनी चरण की दासी
वह सुप्त लुप्त-अनुभाव-प्रभाव विलासी
है रिक्त कलश-सी उसकी मथुरा-काशी

सुरसरि! जिस पुण्य देश का अब तक तुमने मरण सुधारा
था सिद्ध लोक जिसका केवल परलोक चिंत्य अति प्यारा
उस पतित देश-उस व्यथित देश को आज न नरक डराता
अथवा अपवर्ग स्वर्ग का मोहक रूप न उसे लुभाता
इसलिए कि उसका जीवन ही बन गया नरक की ज्वाला
इसलिए कि उसका जीवन ही बन गया चिता-सा काला

अब मरण न, जीवन के रौरव से उसे उबारो गंगा
पीछे होगा परलोक प्रथम तो लोक सुधारो गंगा!

दरभंगा, 1944

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