मालव सरिताओं से

शिप्रा,, चंबल, काली सिंध.. उतरो नीचे, छोड़ो विन्ध्य।
झर-झर झरती सरिता धार,
तोड़-फोड़ चट्टान, कगार
अष्टदिशा में जल विस्तार,
बहता मानों आत्मानंद शिला-बंध तजकर स्वच्छंद।
कालिदास के वंशज गा
सोती मालव-भूमि जगा!
उस किसान को समझ सगा
जिसकी किस्मत अब भी मंद, उससे कर घनिष्ठ संबंध।
कवि, सपनों के मीठे जाल-
बुनने में मत लगो अ-काल।
नभ में छाई घटा कराल।
वह सौदर्य अतंद्र अनिंद्य-सब में फैले, छोड़ो विन्ध्य-
शिप्रा, चंबल, काली सिंध... जैसे वेगवान हों छंद!

1948

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