डूबती संध्या

डूबती निस्तब्ध संध्या;
ग्रीष्म की तपती दुपहरी,
प्रबल झंझावात के पश्चात,
सुनसान शांत उदास संध्या।
विरल सरि का चिर-अनावृत्त गात
जो किसी की आँख के अभिराम जादू के परस से
हो उठा है लाल,
ऐसा गात
किस अनागत की प्रतीक्षा में खुला है?
दो किनारे,
व्यथित व्याकुल-
बाहु-बंधन में किसी को बाँधने को
नित्य आकुल;
व्यर्थ ही तो है,
युगों से इस अनावृत्त मुग्ध यौवन का
उपेक्षित देह का आह्वान
छवि का गान!
वक्ष पर फैली सुनहली
अलस मन, अभिराम, सिकता;
तन बिछाए,
चिर-समर्पित जी छिपाए,
युगों से चुपचाप-रिक्ता!
अस्त होते अरुण रवि का स्नेह-वैभव
इस चरम अवसान के पल में
बिखेरा चाहता है
विश्व पर अपनी प्रभा का दान
इसी से प्रत्येक पल,
मानों किसी अतिरेक का हो घनीभूत स्वरूप,
पलक में बुझ जाएगा ऐसे प्रकंपित दीप के
स्नेहिल हृदय का रूप।
थकी किरणों का जगत् को प्रीति का उपहार-
मन की कालिमा को
प्यार से धो डालने का चिरंतन व्यापार,
जो कि पल-भर में अभी हो जाएगा निःशेष,
हो उठा है
इसी से अपनी क्षणिकता में मधुर छविमान!
दूर जीवन के थपेड़ों से परे
सूने गगन में आँख फाड़े
कल्पना-प्रिय युवक-कवि-सी सहज निष्प्रभ
खड़ी हैं वैभव-विहीन पहाड़ियाँ!
इस विभा के मधुर पल में भी नहीं है
पत्थरों के
इन पहाड़ी पत्थरों के हृदय में कुछ स्नेह-कंपन
प्राण का संचार
वे खड़े हैं अचल चिर अविकार!
वह विचित्र कुरूपता उनकी
विभा के पार्श्व में
है हो उठी कुछ और भी असमान।
खूब तनकर यों अकेले खड़े रहने का
असंगत दर्प,
उच्चता का गर्व,
अपनी पूर्णता का वह निरंतर भान,
ओछा अकिंचन अभिमान,
लगता है निरर्थक।
इस ऊँचाई का नहीं है
भूमि के रसमय प्रणय में योग,
इसलिए,
हलकी प्रलंबित मौन छायाएँ गिराता
छिप गया सूरज कहीं पर दूर,
और थककर चूर
दिन सोने लगा है साँझ की गहरी उदासी में।

‘तार सप्तक’ से

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