मेरे युवजन, मेरे परिजन

अरुणोदय के पूर्व ही
तम-मग्न खँडहरों के मृद्-गंध-प्रसारों में
उद्ग्रीव कुंद-चंपा-गुलाब की गंध लिए मेरे युवजन-व्यक्तित्व यहां पर महक रहे
क्षिप्रा के तट
वीरान हवाओं में...
अरुणोदय के पूर्व ही।

गंभीर श्याम पीड़ा की डोह-भरी क्षिप्रा
आत्मा के कोमल धनच्छाय एकांतों में
स्वीया, अपरा
उन एकांतों में क्षिप्रा का
संवेदन-जल पी रहे
अंधेरे में
मेरे युवजन
मैदान-हवाओं में लिपटे।

उस गहन अँधेरे में
प्राचीन मृत्तिका की उजाड़ करुणा मन में,
अभिनव पुष्पों की हृदय-गंध के साथ-साथ
कंटकित ज्ञान-केतकी महकती जीवन में।

पीड़ामय डोह-लहर पीकर अंजुलियों से
अनजाने में, फैलते जा रहे बाँह-हाथ
मानो अछोर मैदान-महक के पार, किसी
पर्वत-उतार पर खिले हुए
जादुई, दूर, द्युतिमत् गुलाब
ले आएँगे!!

है लहर-लहर में प्रतिबिंबित तारक-द्युतियाँ
पीड़ाओं में मर्मानुभूत दृष्टियाँ
विचारों की धृतियाँ
मेरे युवजन, मेरे परिजन
लहरों में घुली-मिली ज्योतियाँ
पी रहे अँधेरे में
मैदान-हवाओं में लिपटे!!

अकस्मात्
श्यामल गंभीर बृहद-आकार एक पक्षी
साँवले पंख फैला
मँडराता है सिर पर।
संतुलित पंख विस्तृत कोणों में सक्रिय हैं।
प्रिय है, प्रिय है,
उसका उभार, उसका प्रवास
उसकी उद्विग्न श्याम चिंता।
मेरे युवजन, मेरे परिजन
एकाग्र, एकटक उसे देखते रहते हैं;
उनको शंका,
उनका यह अभिमत है कि गहन
क्षिप्राके मूलोद्गम-स्थित वन
का वासी वह
सिर पर मँडराने आया है।

वे पाते हैं-
पीड़ा की परंपरा-क्षिप्रा युग-युग वाही
पापों की कारण-परंपरा-कंदरा-वनों में से निकली,
मेरे युवजन, मेरे परिजन
अंतः सलिला का पाते हैं दूसरा सिरा,
दूसरे सिरे के देख रहे वे जंगल-वन!!

वे जंगल-वन
उनका यात्री
श्यामल गंभीर बृहद पक्षी
वह युगानुयुग जन-शोषण-पाप-दृश्य-दर्शी
सिर पर मँडराता है
उसके संवेदनमय स्वर में
रक्ताक्त व्यथामय कथा निवेदित है।

मैं लेखक हूँ
प्रतिपल युवजन-व्यक्तित्व अध्ययन करता हूँ
उनके हिय के तालाबों में
सिर से पैरों तक लहूलुहान नहाता है
चेतना-पुरुष।
वह बिजली-भरा रक्त है जो घुलता है
श्यामल लहरों में
वे लाल रक्त-रेखाएँ गहरी ज्योतित हैं।
उन रक्तांगारों के संदर्भों से युवजन का हूँ।
इस रात्रि-श्यामला वेला में
आगामी प्रांतों की ओस सुगंधित है।
क्या करूँ कि मुझकों ओस-कणों में
लाल ज्योति दिखती
मानों वे शत-शत रुधिर-बिंदु थरथरा रहे
उनकी प्रदीप्त किरनों को गिनने का
मैं यत्न कर रहा हूँ।

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