अलकनंदा

बही जा रहीं उसी नदी की
यौवन-भरी तरंगें।
गाती हैं उन्मत्त अभी भी
भरने वही उमंगें।
लहरों के इस प्यासे तट पर
एक रात में आकर।
लाया था शशि मुख छाया में
अपनी प्यासी गागर।
लहरों में लिपटी आई तुम
इस छोटे उर में बसने।
वैसा ही फिर हे वन-वासिनी
लहरों में घिर आओ।
गिरि चढ़ने से श्रांत पथिक को
फिर जलगीत सुनाओ।

Path Alias

/articles/alakanandaa

Post By: admin
×