उत्तरकाशी जिला

Term Path Alias

/regions/uttarkashi-district

उत्तराखंड में मानव जनित विकास की ’बाढ़’
Posted on 27 Jul, 2013 09:25 AM मौजूदा स्थिति में विकास के नाम पर 558 परियोजनाओं से 40,000 मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। इन बिजली परियोजनाओं के निर्माण के लिए नदियों के किनारों से होकर गुजरने वाले राष्ट्रीय राजमार्गों को चौड़ा ही इसलिए किया जा रहा है ताकि बड़ी-बड़ी भीमकाय मशीनें सुरंग बांधों के निर्माण के लिए पहाड़ों की गोद में पहुंचाई जा सकें। यहाँ तो हर रोज सड़कों का चौड़ीकरण विस्फोटों और जेसीबी मशीनों द्वारा हो रहा है। जिसके कारण नदियों के आर-पार बसे अधिकांश गांव राजमार्गों की ओर धंसते नजर आ रहे हैं। हिमालयी क्षेत्र में बाढ़, भूस्खलन, भूकंप की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। उत्तराखंड हिमालय से निकलने वाली पवित्र नदियां, भागीरथी, मंदाकिनी, अलकनंदा, भिलंगना, सरयू, पिंडर, रामगंगा आदि के उद्गम से आगे लगभग 150 किमी तक सन् 1978 से लगातार जलप्रलय की घटनाओं की अनदेखी होती रही है। 16-17 जून 2013 को केदारनाथ में हजारों तीर्थ यात्रियों के मरने से पूरा देश उत्तराखंड की ओर नजर रखे हुए है। इस बीच ऐसा लगा कि मानो इससे पहले यहाँ कोई त्रासदी नहीं हुई होगी, जबकि गंगोत्री से उत्तरकाशी तक पिछले 35 वर्षों में बाढ़, भूकंप से लगभग एक हजार से अधिक लोग मारे गए। 1998 में ऊखीमठ और मालपा, 1999 में चमोली आदि कई स्थानों पर नजर डालें तो 600 लोग भूस्खलन की चपेट में आकर मरे हैं। 2010-12 से तो आपदाओं ने उत्तराखंड को अपना घर जैसा बना दिया है। इन सब घटनाओं को यों ही नजरअंदाज करके आपदा के नाम पर प्रभावित समाज की अनदेखी की जा रही है।
आपदा के बाद सरकार तय करे राहत के मायने
Posted on 15 Jul, 2013 01:52 PM

यूँ तो सारे पहाड़ में और जहाँ-जहाँ बड़ी पनविद्युत परियोजनाएँ और सुरंगे बनी वहाँ-वहाँ भयानक तबाही देखने को मिली ह

गंगा को कब्जियायें नहीं
Posted on 14 Jul, 2013 10:48 AM पिछले कुछ वर्षों में कावड़ यात्रा, चारधाम यात्रा हेमकुंड सहित की यात्रा में अप्रत्याषित वृद्धि हुई है। जिन धार्मिक संगठनों ने इन्हें बढ़ावा दिया है। उन्होंने भी कभी गंगा जी के स्वास्थ्य को इन यात्राओं से जोड़कर नहीं देखा। आस्था के नाम पर, जिसमें आस्था है उसे ही रौंद दिया। ना यात्रियों की सुरक्षा पर कोई ध्यान दिया गया। सरकार को तो आज हम सब दोष दे ही रहे थे। वैसे सरकार अपने इस गैर जिम्मेदार व्यवहार के लिए, यात्रियों की इतनी परेशिानियों और मौंतों के दोष से सरकार बच नहीं सकती। उत्तराखंड में आई आपदा ने, जिसे मेधापाटकर जी ने ‘काफी हद तक शासन निर्मित’ करार दिया है, उत्तराखंड का नक्शा बदल दिया है। नदियों पर बने पुल टूटे और रास्ते बदले हैं। अब उत्तराखंड के पुननिर्माण में पिछली सब गलतियों को ध्यान में रखना होगा। दिल्ली जैसे तथाकथित विकास को एक तरफ करके ग्राम आधारित विकास की रणनीति बनानी होगी। केदारनाथ मंदिर निर्माण के साथ उत्तराखंड निर्माण पर ध्यान देना होगा। केदारनाथ मंदिर की स्थापत्य कला को देखे तो मालूम पड़ेगा कि पुराने समय में इंजिनीयरिंग हमसे कहीं आगे थी। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री जी का कहना है कि भू-वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों की सलाह मंदिर बनाने के लिए ली जाएगी साथ में केदारनाथ यमुनोत्री के लिए पंजीकरण कराने का प्रस्ताव है। पर गंगोत्री और बद्रीनाथ के लिए हमें किसी आपदा का इंतजार नहीं करना चाहिए वहां भी इस समय काफी बर्बादी हुई है। पंजीकरण चारोधाम के लिए अनिर्वाय करना चाहिए।
विकास, प्रगति और उत्तराखंड की त्रासदी
Posted on 12 Jul, 2013 02:28 PM पश्चिम का विज्ञान अधूरा है और अब तो वह पूंजीवाद का नौकर हो कर रह गया है। साथ ही यह साधारण मनुष्य को भयंकर रूप से अहंकारी, आस्थावा
आपदा प्राकृतिक, मौत हमने बुलाई
Posted on 09 Jul, 2013 11:09 AM यदि नदी के प्राकृतिक मार्गों में निर्माण होगा तो प्रकृति इसी तरह अतिक्रमण हटाएगी
कहीं बन न जाए राजनीतिक आपदा
Posted on 07 Jul, 2013 02:13 PM अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने 22 मई 2013 को लैंडसेट-8 उपग्रह के
Urban management
भगीरथ तो मन में ही बसा
Posted on 02 Jul, 2013 11:36 AM 16वीं और 17वीं सदी तक गंगा-यमुना इलाका घने जंगलों से ढंका था। पर ध
आपदा प्रबंधन के मोर्चे पर
Posted on 02 Jul, 2013 10:47 AM कुदरत को नियंत्रित नहीं किया जा सकता। अलबत्ता मुकम्मल तैयारी हो तो प्राकृतिक आपदा से होने वाली तबाही बहुत हद तक कम की जा सकती है। मौसम के तीव्र उतार-चढ़ाव और जलवायु बदलाव के दौर में आपदा प्रबंधन की अहमियत और बढ़ गई है। लेकिन उत्तराखंड की त्रासदी से एक बार फिर जाहिर हुआ है कि हमारे देश में आपदा प्रबंधन बहुत लचर है। इसकी खामियों की पड़ताल कर रहे हैं, प्रसून लतांत।

प्राकृतिक आपदाएं प्राचीन काल से आती रही हैं, जिन्हें हम प्रकृति का, ईश्वर का प्रकोप मान कर छाती पर पत्थर रख कर फिर नए सिरे से जीवन की शुरुआत करते रहे हैं। हमारे देश में न केवल बड़ी आपदाओं से बल्कि छोटी-मोटी दुर्घटनाओं और बीमारियों तक से मुकाबला करने और उससे निजात पाने के तौर-तरीके उपलब्ध थे पर नए तरह के तथाकथित आधुनिक ज्ञान-विज्ञान ने हमारी परंपराओं और सरोकारों को पिछड़ा बताकर हमें उन तौर-तरीकों से अलग-थलग कर दिया है।

उत्तराखंड में आसमान फटने, लगातार मूसलाधार बारिश होने और पहाड़ के टूट कर बिखरने से हुई तबाही में जानमाल की जो हानि हुई है, उससे एक बार फिर आपदा प्रबंधन पर सवालिया निशान लगा है। अभी तक आपदा प्रबंधन के नाम पर किसी एजेंसी की इस मामले में कोई भूमिका देखने सुनने को नहीं मिल रही है। उलटे उसका खोखलापन ही सामने आ रहा है। राजनीतिक दल एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने तक सीमित हैं। यह भी तय नहीं हो पा रहा है कि केदारनाथ घाटी में आई आपदा राष्ट्रीय है या स्थानीय। विपक्ष इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित करने की मांग कर रहा है तो केंद्र इस मामले में चुप्पी साधे हैं। पर्यावरणविद और भू-वैज्ञानिक जहां इसे प्रकृति के साथ खिलवाड़ और अंधाधुंध विकास का दुष्परिणाम बता रहे हैं वहीं कुछ अंधविश्वासी लोग ईश्वर या दैवीय प्रकोप बताकर लोगों को भ्रम में डाल रहे हैं।
चुनौतियों के बरक्स
Posted on 01 Jul, 2013 04:10 PM अंतरराष्ट्रीय मंचों के साथ-साथ राष्ट्रों की सरकारें भी आपदा प्रबंध
आपदा का आर्थिक कनेक्शन
Posted on 01 Jul, 2013 11:16 AM यदि हमारे दल व मीडिया ऐसे साजिशों से अनभिज्ञ हैं, तो यह मामला और जागरूक होने का है। यदि जानते-बूझते वे इनकी वकालत कर रहे हैं, तो
disaster
×