उत्तराखंड

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उत्तराखंड के नवनिर्माण में मीडिया की भूमिका
Posted on 10 Jun, 2014 03:21 PM पहाड़ के जो हित हैं या फिर इकोलाॅजी, संस्कृति और पर्यावरण से जुड़े
उत्तराखण्ड
उत्तराखंड त्रासदीः क्या हुआ, क्या बाकी
Posted on 02 Jun, 2014 09:10 AM उत्तराखंड के तमाम पर्वतीय ईलाकों में बादल के कहर ने आपदा प्रबंधन त
पानी के पड़ोस में
Posted on 10 Feb, 2014 08:55 AM
`चाल’ सामान्य अर्थ में सिर्फ वाटर टैंक नहीं हुआ करते थे। पहाड़ों पर यह पानी को सहेजने का एक तरीका हुआ करता था। पर अब चाल-खाल गायब हो रहे हैं। इसके साथ ही गायब हो रही है पहाड़ की पारंपरिक जल प्रबंधन की व्यवस्था। जाहिर है, आगे की कहानी त्रासद है।
लोगों की गाड़गंगा
Posted on 01 Dec, 2013 09:20 AM 30 सालों के दौरान गाँवों के समाज ने करीब 30 हजार चाल-खाल बनाई हैं। उनके लगे जंगल 100 फिट कैनोपी तक के हैं। जमीन पर ह्यूमस की परत काफी मोटी है। पशु पक्षी भी वहां मौजूद हैं। जंगल खेती और चारा सभी कुछ उगाने के लिए पर्याप्त पानी मौजूद है। इन जंगलों में अब हर तरह का जीवन संगीत गूँज रहा है। बाढ़ और सुखाड़ दोनों ही उस इलाके से जा चुके हैं। ग्लेशियर सूखने की घोषणा और बातें वहां के जंगल अपनी हवा में उड़ा देते हैं। अपने धर्म-कर्म के लिए एक गंगा बहा देते हैं।उफरैखाल, पौड़ी, चमोली और अल्मोड़ा तीन जिलों के बीच स्थित गांव है। जो जिम कार्बेट नेशनल पार्क के उत्तर में और समुद्र तल से 6000 फीट ऊपर पहाड़ों में है। दरअसल उफरैखाल ‘दूधातोली पर्वत श्रृंखला का हिस्सा है।’

उत्तराखंड में बहुत से कस्बों और गाँवों के नाम खाल के नाम पर हैं जैसे... उफरैखाल, चौबाटाखाल, नौगांवखाल, गुमखाल, बूबाखाल, चौखाल, परसुंडाखाल, पौंखाल, बीरोंखाल, भदेलीखाल, अदालीखाल, सतेराखाल, पड़जीखाल, किनगोड़ीखाल आदि। पूरे उत्तराखंड में लगभग ढाई हजार खाल पूर्वजों के बनाए हुए हैं।
चाल से खुशहाल
Posted on 29 Aug, 2013 03:13 PM
उत्तराखंड के उफरैंखाल में कुछ लोगों ने किसी सरकारी या बाहरी मदद के बिना जो किया है उसमें कई हिमालयी राज्यों के सुधार का हल छिपा है।

सबसे पहले लोगों ने अखरोट के पौधों की एक नर्सरी बनाई। इन पौधों की बिक्री प्रारंभ हुई। वहीं के गाँवों से वहीं की संस्था को पौधों की बिक्री से कुछ आमदनी होने लगी। यह राशि फिर वहीं लगने जा रही थी। एक के बाद एक शिविर लगते गए और धीरे-धीरे उजड़े वन क्षेत्रों में वनीकरण होने लगा। इन्हीं शिविरों में हुई बातचीत से यह निर्णय भी सामने आया कि हर गांव में अपना वन बने। वह सघन भी बने ताकि ईंधन, चारे आदि के लिए महिलाओं को सुविधा मिल सके। इस तरह हर शिविर के बाद उन गाँवों में महिलाओं के अपने नए संगठन उभरकर आए, ये ‘महिला मंगल दल’ कहलाए ये महिला दल कागजी नहीं थे।ढौंड गांव के पंचायत भवन में छोटी-छोटी लड़कियां नाच रही थीं। उनके गीत के बोल थे : ठंडो पाणी मेरा पहाड़ मा, ना जा स्वामी परदेसा। ये बोल सामने बैठे पूरे गांव को बरसात की झड़ी में भी बांधे हुए थे। भीगती दर्शकों में ऐसी कई युवा और अधेड़ महिलाएं थीं जिनके पति और बेटे अपने जीवन के कई बसंत ‘परदेस’ में ही बिता रहे हैं। ऐसे वृद्ध भी इस कार्यक्रम को देख रहे थे जिन्होंने अपने जीवन का बड़ा भाग ‘परदेस’ की सेवा में लगाया है और भीगी दरी पर वे छोटे बच्चे-बच्चियां भी थे, जिन्हें शायद कल परदेस चले जाना है। एक गीत पहाड़ों के इन गाँवों से लोगों का पलायन भला कैसे रोक पाएगा? लेकिन गीत गाने वाली टुकड़ी गीत गाती जाती है। आज ढौंड गांव में है तो कल डुलमोट गांव में, फिर जंद्रिया में, भरनों में, उफरैंखाल में। यह केवल सांस्कृतिक आयोजन नहीं है। इसमें कुछ गायक हैं, नर्तक हैं, एक हारमोनियम, ढोलक है तो सैकड़ों कुदाल-फावड़े भी हैं जो हर गांव में कुछ ऐसा काम कर रहे हैं कि वहां बरसकर तेजी से बह जाने वाला पानी वहां कुछ थम सके, तेजी से बह जाने वाली मिट्टी वहीं रुक सके और इन गाँवों में उजड़ गए वन, उजड़ गई खेती फिर से संवर सके।
chalkhal
रावण सुनाए रामायण
Posted on 28 Jun, 2013 09:46 AM
सनातन धर्म से भी पुराना एक और धर्म है। वह है नदी धर्म। गंगा को बचाने की कोशिश में लगे लोगों को पहले इस धर्म को मानना पड़ेगा।

हमारे समाज ने गंगा को मां माना और ठेठ संस्कृत से लेकर भोजपुरी तक में ढेर सारे श्लोक मंत्र, गीत, सरस, सरल साहित्य रचा। समाज ने अपना पूरा धर्म उसकी रक्षा में लगा दिया। इस धर्म ने यह भी ध्यान रखा कि हमारे धर्म, सनातन धर्म से भी पुराना एक और धर्म है। वह है नदी धर्म। नदी अपने उद्गम से मुहाने तक एक धर्म का, एक रास्ते का, एक घाटी का, एक बहाव का पालन करती है। हम नदी धर्म को अलग से इसलिए नहीं पहचान पाते क्योंकि अब तक हमारी परंपरा तो उसी नदी धर्म से अपना धर्म जोड़े रखती थी। पर फिर न जाने कब विकास नाम के एक नए धर्म का झंडा सबसे ऊपर लहराने लगा। बिलकुल अलग-अलग बातें हैं। प्रकृति का कैलेंडर और हमारे घर-दफ्तरों की दीवारों पर टंगे कैलेंडर/काल निर्णय/पंचाग को याद करें बिलकुल अलग-अलग बातें हैं। हमारे कैलेंडर/संवत्सर के पन्ने एक वर्ष में बारह बार पलट जाते हैं। पर प्रकृति का कैलेंडर कुछ हजार नहीं, लाख करोड़ वर्ष में एकाध पन्ना पलटता है। आज हम गंगा नदी पर बात करने यहां जमा हुए हैं तो हमें प्रकृति का, भूगोल का यह कैलेंडर भूलना नहीं चाहिए। पर करोड़ों बरस के इस कैलेंडर को याद रखने का यह मतलब नहीं कि हम हमारा आज का कर्तव्य भूल बैठें। वह तो सामने रहना ही चाहिए।

गंगा मैली हुई है। उसे साफ करना है। सफाई की अनेक योजनाएं पहले भी बनी हैं। कुछ अरब रुपए इसमें बह चुके हैं- बिना कोई परिणाम दिए। इसलिए केवल भावनाओं में बह कर हम फिर ऐसा कोई काम न करें कि इस बार भी अरबों रुपयों की योजनाएं बनें और गंगा जस की तस गंदी ही रह जाए।

बेटे-बेटियां जिद्दी हो सकते हैं। कुपुत्र-कुपुत्री हो सकते हैं पर अपने यहां प्राय: यही तो माना जाता है कि माता, कुमाता नहीं होती, तो जरा सोचें कि जिस गंगा मां के बेटे-बेटी उसे स्वच्छ बनाने कोई 30-40 बरस से प्रयत्न कर रहे हैं - वहां भी साफ क्यों नहीं होती।
Book cover Anupam Mishra
ਨਾ ਜਾ ਸਵਾਮੀ ਪਰਦੇਸਾ
Posted on 05 Jul, 2012 06:32 PM ਢੌਡ ਪਿੰਡ ਦੇ ਪੰਚਾਇਤ ਭਵਨ ਵਿੱਚ ਛੋਟੀਆਂ-ਛੋਟੀਆਂ ਕੁੜੀਆਂ ਨੱਚ ਰਹੀਆਂ ਸਨ। ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਗੀਤ ਦੇ ਬੋਲ ਸਨ - ਠੰਡੋ ਪਾਨੀ ਮੇਰਾ ਪਹਾੜ ਮਾ, ਨਾ ਜਾ ਸਵਾਮੀ ਪਰਦੇਸਾ। ਇਹ ਬੋਲ ਸਾਹਮਣੇ ਬੈਠੇ ਪੂਰੇ ਪਿੰਡ ਨੂੰ ਬਰਸਾਤ ਦੀ ਝੜੀ ਵਿੱਚ ਵੀ ਬੰਨ ਕੇ ਰੱਖੇ ਹੋਏ ਸਨ। ਭਿੱਜਣ ਵਾਲੇ ਦਰਸ਼ਕਾਂ ਵਿੱਚ ਅਜਿਹੇ ਕਈ ਨੌਜਵਾਨ ਅਤੇ ਅਧੇੜ ਔਰਤਾਂ ਸਨ ਜਿੰਨ੍ਹਾ ਦੇ ਪਤੀ ਅਤੇ ਬੇਟੇ ਆਪਣੇ ਜੀਵਨ ਦੇ ਕਈ ਬਸੰਤ 'ਪਰਦੇਸ' ਵਿੱਚ ਹੀ ਬਿਤਾ ਰਹੇ ਸਨ। ਅਜਿਹੇ ਬਜ਼ੁਰਗ ਵੀ ਇਸ ਪ੍ਰੋਗਰਾਮ ਨੂੰ ਦੇਖ ਰਹੇ ਸਨ, ਜਿੰਨ੍ਹਾ ਨੇ ਆਪਣੇ ਜੀ
जंगल को बचाने का प्रयास
Posted on 23 May, 2012 12:28 PM प्रकृति की अद्भुत देन है जंगल। इन जंगलों की वजह से हमें फल-फूल, जलावन के लिए लकड़ी, हरियाली, आदि मिलती है। इन जंगलों को जहां कुछ माफिया लोग अपने फायदे के लिए उजाड़ रहे हैं वहीं कुछ ऐसे भी महापुरुष हैं जो इनको बचाने में लगे हुए हैं। जंगलों की अंधाधुंध कटाई के इस दौर में भरत मंसाता, जादव और नारायण सिंह जैसे लोग भी हैं, जिन्होंने अपने संकल्प से अकेले दम पर वीराने में बहार ला दी। इन अद्भुत प्रयास क
चिपको : छोटे गांव का बड़ा संदेश
Posted on 04 Apr, 2012 10:10 AM

पिछले कुछ वर्षों से यह घाटी विस्फोटकों के धमाकों से दहल रही है। ये धमाके पनबिजली परियोजना की एक पूरी श्रृखंला के निर्माण के मकसद से किए जा रहे हैं। इनमें से कई स्थल, जो पहाड़ों पर घावों जैसे नजर आते हैं, हमारी उन परस्पर विरोधी भावनाओं के लिए जवाबदेह थे, जिनका जिक्र शुरूआत में किया गया था। अकेली निति घाटी में 20 से ज्यादा छोटे-बड़े बांध प्रस्तावित हैं, इनमें से खुद तो बायोस्फीयर रिजर्व के अंदर है। इनकी इकॉलॉजिकल और सामाजिक लागत को लेकर सिविल सोसायटी के अनुरोध विरोध का कोई असर नहीं हुआ है।

ऋषिकेश से जोशीमठ तक घुमावदार सड़क पर काफी आवाजाही होती है। उसी सड़क से यात्रा करते हुए हम विरोधाभासी भावनाओं से घिरे हुए थे। एक ओर तो साधारण इन्सानों के समान हम विशाल और अपराजेय पहाड़ों के समक्ष बौना और विनम्र महसूस कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर, हम यह भी देख रहे थे कि इंसान किस तरह का विनाश करने की क्षमता रखता है। लाता गांव पहुंचने तक यह भावनात्मक उथल-पुथल अपने चरम पर पहुंच चुकी थी। लाता उत्तराखंड का एक छोटा सा गांव है, जहां चिपको आंदोलन का सूत्रपात हुआ था। भारत के इतिहास में यह गांव एक पूरे अध्याय का हकदार है।
राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रूड़की द्वारा प्रकाशित तकनीकी पत्रिका ‘जल चेतना’ के लिए लेख आमंत्रण
Posted on 30 Dec, 2011 10:35 AM राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थानन, रूड़की ने वैज्ञानिक एवं तकनीकी कार्यों में राजभाषा हिंदी के प्रयोग को व्यापक बढ़ावा एवं प्रोत्साहन देने के दृष्टिकोण से सितम्बर-2011 माह से ‘जल चेतना’ तकनीकी पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया है। पत्रिका का द्वितीय संस्करण फरवरी-2012 में प्रकाशित किया जाना निर्धारित है। इस पत्रिका में तकनीकी रिपोर्ट, शोध पत्रों का विश्लेषण, महत्वपूर्ण तकनीकी जानकारियां तथा अन्य प्रासं
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