30 सालों के दौरान गाँवों के समाज ने करीब 30 हजार चाल-खाल बनाई हैं। उनके लगे जंगल 100 फिट कैनोपी तक के हैं। जमीन पर ह्यूमस की परत काफी मोटी है। पशु पक्षी भी वहां मौजूद हैं। जंगल खेती और चारा सभी कुछ उगाने के लिए पर्याप्त पानी मौजूद है। इन जंगलों में अब हर तरह का जीवन संगीत गूँज रहा है। बाढ़ और सुखाड़ दोनों ही उस इलाके से जा चुके हैं। ग्लेशियर सूखने की घोषणा और बातें वहां के जंगल अपनी हवा में उड़ा देते हैं। अपने धर्म-कर्म के लिए एक गंगा बहा देते हैं।उफरैखाल, पौड़ी, चमोली और अल्मोड़ा तीन जिलों के बीच स्थित गांव है। जो जिम कार्बेट नेशनल पार्क के उत्तर में और समुद्र तल से 6000 फीट ऊपर पहाड़ों में है। दरअसल उफरैखाल ‘दूधातोली पर्वत श्रृंखला का हिस्सा है।’
उत्तराखंड में बहुत से कस्बों और गाँवों के नाम खाल के नाम पर हैं जैसे... उफरैखाल, चौबाटाखाल, नौगांवखाल, गुमखाल, बूबाखाल, चौखाल, परसुंडाखाल, पौंखाल, बीरोंखाल, भदेलीखाल, अदालीखाल, सतेराखाल, पड़जीखाल, किनगोड़ीखाल आदि। पूरे उत्तराखंड में लगभग ढाई हजार खाल पूर्वजों के बनाए हुए हैं।‘खाल’ एक खास किस्म की जल संरचना है। यह पहाड़ की चोटी पर या ऊंचाई की जमीन पर ही बनाई जाती है। इसको बनाने वाले पशुपालक थे। जानवरों को चराने के लिए पहाड़ों के एक कोने से दूसरे कोने तक घूमना पड़ता था। जानवरों को हरी घास भी चाहिए थी और पानी भी। पशुपालकों ने ‘छोटी जलतलाई’ यानी ‘खाल’ बनाए इससे उनकी दोनों समस्याएं हल हो गईं। खाल बनने से पहाड़ की ऊंचाई पर एक तरफ जानवरों और खुद के लिए पीने का पानी मिला, दूसरे खाल में रुके हुए पानी के रिसाव से पहाड़ में नमी भी बरकरार रहती है। जिससे पहाड़ में हरी घास और झाड़ मिलती है। खाल 25-30 फीट लंबाई-चौड़ाई के आयताकार, वर्गाकार और गोलाकार भी हो सकते हैं। उनकी संरचना का आकार पहाड़ पर उपलब्ध भू-आकृति पर निर्भर करता है। पर एक चीज हमेशा ध्यान रखी जाती है कि खाल की गहराई 2-3 फीट से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। ऐसा जानवरों की सुरक्षा के लिए किया जाता था ताकि वे पानी तो पी लें पर उनके डूबने का खतरा न हो।
खाल से छोटी रचना ‘चाल’ कहलाती है। इसका आकार 5-25 फीट लंबा-चौड़ा हो सकता है पर इसकी भी गहराई 2-3 फीट से ज्यादा नहीं रखी जाती।
करीब 20-22 साल बाद 14 दिसंबर को चार इंच बर्फबारी इस इलाके में हुई है। ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन और अतिरेकी मौसम की चिंता में डूबे लोगों की कुछ चिंताएं तो जरूर उफरैखाल के खाल में डूब जाती हैं। चाल, खाल का काम करने वाले लोगों का दावा है कि हजारों साल के इतिहास में कभी कोई जानवर नहीं डूबा। पर बाढ़ और सूखा दोनों तरह की चिंता को यहां के समाज ने अपने चाल-खाल में डुबो दिया है। उफरैखाल और उसके आसपास के 120 गाँवों के समाज ने करीब 30 हजार चाल-खाल बनाई हैं जिनमें आकाश से बरसी हर बूंद को रोकने का जतन किया जाता है। 30 हजार चाल-खाल में रुका हुआ पानी धीरे-धीरे पौड़ी जिले के थलीसेंण और बीरोखाल विकासखंड के पहाड़ों गाँवों खेतों और चारागाहों को जल संतृप्त कर देता है। उजड़े-खाली पहाड़ और वनभूमि की जमीन में साल भर पानी रहने के कारण प्रकृति स्वयं अनेकों किस्म के घास और पौधे लगा रही है। कई ऐसी पौध प्रजातियाँ भी वहां उगती देखी गई हैं जो दिखाई देनी बंद हो गईं थीं।
पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र जी कहते हैं अगर आप उफरैखाल के जंगल को देखने जाते हैं तो वहां सुनिश्चित पथ के सिवाय इधर-उधर नहीं चल सकते क्योंकि ह्यूमस की एक मोटी परत वहां जमी हुई है। 100 फुट तक की ऊंचाई के पेड़ वहां दिखाई देंगे। यह उस तरह का वृक्षारोपण नहीं है जैसा कि आमतौर पर सरकार जमीन के ऊपर करती है। यहां आपको एक असली प्राकृतिक भरा-पूरा जंगल मिलेगा।
इस इलाके में लोगों द्वारा चाल-खाल और जंगल लगाने का काम 80 के दशक से अब तक जारी है। इसी मेहनत और लगन ने सूख गई तीन छोटी नदियों और 5 नौलों को जीवन दे दिया। उफरैखाल के पड़ोसी गांव गाडखर्क के पास से निकलने वाली एक छोटी नदी ‘गाड़’ जो आजादी के पहले ही पूरी तरह सूख चुकी थी। 1944-45 के इर्वसन बंदोवस्त में इसें सूखा रौला लिखा गया। सूखा रौला का मतलब ऐसी धारा जो साल भर सूखी रहती हो केवल बरसात में पानी की धार बहती हो। जंगल और चाल-खालों ने पहाड़ी के ऊपर जो पानी रोककर रखा उससे पहाड़ से निकलने वाले गाड-गधेरों की धाराएं जलमय हो गईं और देखते-देखते सूखा रौला में साल भर पानी रहने लगा। सूखा रौला अब सूखा न रहा, तब समाज ने सोचा कि क्यों न इसका नाम बदल दिया जाय और समाज के लोगों ने गाड़ गांव के पास से निकलने वाली इस धारा को एक नया नाम दिया। 30 साल की मेहनत और भगीरथ प्रयास से पुनर्जन्म लेने वाली यह नदी गाड़गंगा कहलाई।
पहले यहां के जंगल इनमें रहने वाले जानवरों के लिए और आसपास के गाँवों के लिए ईंधन और जंगली उत्पादों के लिए पर्याप्त हुआ करते थे। घने जंगल पानी के अच्छे स्रोत होते थे। घने जंगल, साफ पानी और खूब सारा चारा की वजह से आसपास के गांव आबाद रहते थे।
अनियंत्रित कटाई से पहाड़ खाली होते चले गए। सरकार के कई अमलों और विभागों का काम जंगलों की कटाई को बढ़ावा देने का रह गया था। इससे गाँवों को अपने जरूरी संसाधनों के लिए दिक्कत होने लगी जंगलों की अनियंत्रित कटाई ने गाँवों में दोहरी समस्या पैदा की- पहलीः चारा, पानी और ईंधन का अकाल तो दूसरीः जंगली जानवर जो पर्याप्त भोजन न मिल पाने के कारण रिहाइशी इलाकों में आने लगे।
समस्या बद से बदतर होती चली गई। 1979 में उफरैखाल और उसके आसपास के गांव के लोगों को खबर मिली कि दूधातोली क्षेत्र में वन विभाग फर-रागा के पेड़ों का कटान कर रहा है। फर-रागा पौध प्रजाति भोजवृक्ष की तरह ही एक दुर्लभ प्रजाति है। नए फर-रागा के पेड़ तो लग नहीं रहे हैं। जो थोड़े बहुत बचे हैं वे लगातार काटे जा रहे हैं। गांव के लोगों को बहुत बुरा लगा। उन्होंने तय किया कि इस कटान को हर कीमत पर रोकना ही चाहिए। गांव के नौजवानों की एक टोली दूधातोली वन क्षेत्र से जुड़े गांव की ओर चल पड़ी। दैड़ा, सुंदरगांव, चौन्डा, कफलेख, पीरसैंण, घूरी आदि गाँवों में उफरैखाल से निकली नौजवानों की टोली पदयात्रा कर लोगों से संपर्क करती हुई यह समझाने का प्रयास कर रही थी कि वनों के विनाश से चारा, पानी, ईंधन की जो समस्या खड़ी होगी वह हम गांव वालों को ही भोगना पड़ेगा। टोली गांव के लोगों को यह समझाने में सफल रही कि भले ही जंगल सरकार के हैं पर जंगलों से रिश्ता-नाता तो हम लोगों का ही है। चारा, पानी इससे हमें मिलता है। ऐसे में जंगलों को बचाने का काम हमें करना होगा। साथ ही वन विभाग के लोगों को उन्होंने समझाया कि दूधातोली पहाड़ियां 45 प्रतिशत ढालू पहाड़ियां हैं और यहां अगर जंगल काटे गए तो भूस्खलन के साथ ही जलस्रोत भी नष्ट हो जाएंगे। वन विभाग के लोगों ने इस समस्या को समझने के लिए एक कमेटी बनाई। कमेटी भी गांव वालों की बात से सहमत थी। दैड़ा गांव में वन अधिकारियों और गांव के लोगों की बैठक हुई और घोषणा की गई कि इस इलाके में पूरी तरह कटान रोक दी जाएगी। इस पूरे अभियान का नेतृत्व गांव के ही एक नौजवान सच्चिदानंद भारती कर रहे थे।
सच्चिदानंद भारती पेशे से शिक्षक हैं और उफरैखाल इंटर कॉलेज में पढ़ाते हैं। सन् 1979 में वे चमोली जिले के गोपेश्वर महाविद्यालय में पढ़ रहे थे। उसी दौर में वहां के विश्व प्रसिद्ध चिपको आंदोलन ने जन्म लिया था। भारती ने अपनी पढ़ाई के साथ ही चिपको आंदोलन में खूब बढ़-चढ़कर भाग लिया था। संघर्ष और रचना का दोहरा पाठ चिपको से सीखा था। 1979 में अपनी पढ़ाई पूरी कर वे अपने गांव उफरैखाल लौटे ही थे कि वे दूधातोली जंगल कटान के खिलाफ कूद पड़े थे। समाज ने सोचा कि जब कटान का काम रोक ही दिया गया तो क्यूं न वन संरक्षण का काम किया जाए। गांव-गांव पर्यावरण शिविर लगाए गए। लोग अपने-अपने क्षेत्रों के जंगलों की हालात पर चर्चा करते थे और क्या करना है इसकी जुगत लगाते। उफरैखाल इंटर कॉलेज के कुछ अध्यापक और छात्र साथ ही गांव के लोग इन शिविरों में भाग लेते और कार्यक्रम बनाते।
तय किया गया कि पुराने पेड़ों के पास से बीजों का संग्रह कर नर्सरी बनाई जाएगी। छात्रों ने शिक्षकों की प्रेरणा से तरह-तरह के बीजों का संग्रह शुरू किया और सबसे पहली नर्सरी अखरोट के पौधों की थी और नर्सरी बनाने का काम कई स्थानों पर किया गया। एक तरफ नर्सरियां बनतीं तो दूसरी तरफ गांव के लोग खासकर महिलाएं उन्हें अपने जंगलों में लगातीं। पर्यावरण शिविरों में बातचीत कम पेड़-पौधे लगाने का काम ज्यादा होता था। चूंकि शिविरों का मुख्य विषय ही घास, जंगल, पानी, खेती हुआ करते थे। इसलिए महिलाएं ज्यादा बढ़-चढ़कर भाग लेतीं। महिलाओं ने अपने काम के लिए संगठन बनाया जो ‘महिला मंगल दल’ कहलाए।
‘महिला मंगल दलों’ ने वनों की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी निभाई। यह भी स्वाभाविक है कि जो लोग जंगलों के खत्म होने से सबसे ज्यादा प्रभावित थे वही उसकी रक्षा करने के लिए आगे आएं। क्योंकि गांव के जंगल खत्म होने से औरतों को इंधन और चारे के लिए दूसरे गांव जाना पड़ता था और अगर दूसरे गाँवों के लोग उन्हें लकड़ी लेते हुए देख लेते थे तो पंचायत के सामने उनकी हाजिरी लगाई जाती थी। लकड़ी चुराने के जुर्म में उन पर न केवल जुर्माना होता था बल्कि बेइज्जती भी सहनी पड़ती थी। इसलिए आत्मनिर्भर गांव कहलाने के लिए यह जरूरी था कि उनकी अपनी गांव की सीमा के भीतर उनका अपना खुशहाल जंगल हो।
1987 का साल दूधातोली के लिए एक दुखद खबर लेकर आया पूरे इलाके में भयानक सूखा था और अपने लगाए हुए लाखों पेड़ों को बचाने के लिए पानी की जरूरत थी। साथ ही निचले इलाकों में आए दिन लगने वाली आग से भी सच्चिदानंद भारती और उनकी टीम चिंतित रहती थी। पेड़ों को जिंदा रखने के लिए पेड़ों की थालों में छोटे-छोटे गड्ढे किए गए। ताकि कुछ दिनों तक बारिश न होने पर भी पेड़ों की जड़ों के आसपास गड्ढों में जब कभी बारिश हो तो ज्यादा पानी इकट्ठा हो सके और पेड़ों को जीने के लिए कुछ और समय मिल सके। उसी दौरान ‘आज भी खरे हैं तालाब’ के लेखक अनुपम मिश्र से उन्होंने पानी की छोटी संरचनाओं के बारे में जानना चाहा। संरचनाएं ऐसी हों जो उत्तराखंड के भू-भौतिकी के अनुकूल भी हों। इसके लिए वे देश भर में घूमें। जो भी लोग पानी पर काम कर रहे हैं उनका काम देखा। सबको समझने-बूझने के बाद अनुपम मिश्र के बताए अनुसार उन्होंने चाल-खाल जो उत्तराखंड की परंपरा में रही है, उनको अपने जंगलों में आजमाने का निर्णय किया। महिलाओं ने जंगल लगा-लगाकर बंजर पहाड़ियों को हरा-भरा कर दिया, तो चाल-खालों ने सूखी पहाड़ियों को पानीदार बना दिया।
महिलाओं ने जंगल लगाने का काम जुनून की हद तक किया। कई बार तो एक-एक साल में चार लाख पेड़ भी लगा डाले। अपने जंगलों के लिए जान की बाजी तक लगा डाली। 2000-01 के दौरान पास के एक सरकारी जंगल में लगी आग को बुझाने के लिए महिलाओं ने रात-दिन एक कर दीं। उन्होंने हर कीमत पर अपने जंगल की रक्षा की हालांकि इस पूरे काम में तीन औरतों की जान चली गई। फिर भी वे पीछे नहीं हटीं। अपनी जान देकर जंगल की रक्षा कीं।
वहां आज भी पेड़ों की सुरक्षा औरतें ही करती हैं। उनका तरीका बहुत ही गजब है। सुरक्षा की ये जिम्मेदारी खाखर से पहचानी जाती है। खाखर एक ऐसा डंडा है जिसकी नोंक पर घंटी बंधी होती है जिसके घर के बाहर खाखर बजाई जाती है जंगल की सुरक्षा की जिम्मेदारी उसकी होती है और जब ड्यूटी देने वाली महिला थक जाती है तब वह दूसरे घर के बाहर खाखर ठोंकती है और इस तरह ड्यूटी बदलती रहती है। कोई रजिस्टर नहीं, कोई ड्यूटी लगाने वाला नहीं, कोई शिकायत नहीं, कोई सरकारी आदेश नहीं, कोई दबाव नहीं जंगल की रक्षा के लिए जो है बस उनका अपना है। बिना किसी पैसे के सब श्रमदान करते हैं।
1998 में इस क्षेत्र के वनों और जलागम के विकास के नाम पर विश्व बैंक की 90 करोड़ की योजना आई। एक दिन गांव के लोगों ने देखा कि वहां एक बोर्ड लगा है। जिस पर जानकारी थी कि दूधातोली इलाके में जंगल और जलागम का काम करने के लिए 90 करोड़ की एक परियोजना शुरू की जाएगी। गांव के लोगों ने लखनऊ स्थित विश्व बैंक के एक अधिकारी को चिट्ठी लिखी की जब यहां वनों और जलसंरक्षण का काम गांव वाले खुद ही कर चुके हैं तब सरकार 90 करोड़ रुपए से कौन सा काम शुरू करेगी। लखनऊ से विश्व बैंक के अधिकारियों का एक दल आया। दूधातोली इलाके के गाँवों में लगाए घने जंगलों और चाल-खालों से हुए जलागम को देख कर वे चुपचाप लौट गए और 90 करोड़ की योजना भी साथ ले गए।
1999 में विश्व बैंक का एक दल दूधातोली गया। उनके काम से प्रभावित होकर मदद का प्रस्ताव भी रखा। भारती जी ने बताया कि वेंदा नाम की महिला ने उनसे कहा कि आप लोग बिना पैसे के इतना अच्छा काम कर रहे हैं तो फिर पैसा मिलने के बाद आप और ज्यादा अच्छा काम कर सकते हैं। लेकिन भारती जी ने बड़ी ही विनम्रता से उन्हें धन्यवाद देते हुए उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया और कहा, जो काम समाज ने मिलकर किया है पैसा उसे खत्म कर देगा। हमारा काम हमारे लोगों की मेहनत, जुनून और जंगल के प्रति कर्तव्य से जुड़ा है। अगर उसमें पैसा शामिल हो जाता है तो लोगों के दिलों से कर्तव्य की भावना खत्म हो जाएगी, अपने जंगलों से रिश्ता टूट जाएगा। दिल्ली में रहने वाले लोगों को बंगलों की जरूरत होती है लेकिन उफरैखाल जैसी छोटी जगह में रहने वाले लोगों को जंगलों की जरूरत होती है।
30 सालों के दौरान गाँवों के समाज ने करीब 30 हजार चाल-खाल बनाई हैं। उनके लगे जंगल 100 फिट कैनोपी तक के हैं। जमीन पर ह्यूमस की परत काफी मोटी है। पशु पक्षी भी वहां मौजूद हैं। जंगल खेती और चारा सभी कुछ उगाने के लिए पर्याप्त पानी मौजूद है। इन जंगलों में अब हर तरह का जीवन संगीत गूंज रहा है। बाढ़ और सुखाड़ दोनों ही उस इलाके से जा चुके हैं। ग्लेशियर सूखने की घोषणा और बातें वहां के जंगल अपनी हवा में उड़ा देते हैं। अपने धर्म-कर्म के लिए एक गंगा बहा देते हैं।
उत्तराखंड में बहुत से कस्बों और गाँवों के नाम खाल के नाम पर हैं जैसे... उफरैखाल, चौबाटाखाल, नौगांवखाल, गुमखाल, बूबाखाल, चौखाल, परसुंडाखाल, पौंखाल, बीरोंखाल, भदेलीखाल, अदालीखाल, सतेराखाल, पड़जीखाल, किनगोड़ीखाल आदि। पूरे उत्तराखंड में लगभग ढाई हजार खाल पूर्वजों के बनाए हुए हैं।‘खाल’ एक खास किस्म की जल संरचना है। यह पहाड़ की चोटी पर या ऊंचाई की जमीन पर ही बनाई जाती है। इसको बनाने वाले पशुपालक थे। जानवरों को चराने के लिए पहाड़ों के एक कोने से दूसरे कोने तक घूमना पड़ता था। जानवरों को हरी घास भी चाहिए थी और पानी भी। पशुपालकों ने ‘छोटी जलतलाई’ यानी ‘खाल’ बनाए इससे उनकी दोनों समस्याएं हल हो गईं। खाल बनने से पहाड़ की ऊंचाई पर एक तरफ जानवरों और खुद के लिए पीने का पानी मिला, दूसरे खाल में रुके हुए पानी के रिसाव से पहाड़ में नमी भी बरकरार रहती है। जिससे पहाड़ में हरी घास और झाड़ मिलती है। खाल 25-30 फीट लंबाई-चौड़ाई के आयताकार, वर्गाकार और गोलाकार भी हो सकते हैं। उनकी संरचना का आकार पहाड़ पर उपलब्ध भू-आकृति पर निर्भर करता है। पर एक चीज हमेशा ध्यान रखी जाती है कि खाल की गहराई 2-3 फीट से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। ऐसा जानवरों की सुरक्षा के लिए किया जाता था ताकि वे पानी तो पी लें पर उनके डूबने का खतरा न हो।
खाल से छोटी रचना ‘चाल’ कहलाती है। इसका आकार 5-25 फीट लंबा-चौड़ा हो सकता है पर इसकी भी गहराई 2-3 फीट से ज्यादा नहीं रखी जाती।
करीब 20-22 साल बाद 14 दिसंबर को चार इंच बर्फबारी इस इलाके में हुई है। ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन और अतिरेकी मौसम की चिंता में डूबे लोगों की कुछ चिंताएं तो जरूर उफरैखाल के खाल में डूब जाती हैं। चाल, खाल का काम करने वाले लोगों का दावा है कि हजारों साल के इतिहास में कभी कोई जानवर नहीं डूबा। पर बाढ़ और सूखा दोनों तरह की चिंता को यहां के समाज ने अपने चाल-खाल में डुबो दिया है। उफरैखाल और उसके आसपास के 120 गाँवों के समाज ने करीब 30 हजार चाल-खाल बनाई हैं जिनमें आकाश से बरसी हर बूंद को रोकने का जतन किया जाता है। 30 हजार चाल-खाल में रुका हुआ पानी धीरे-धीरे पौड़ी जिले के थलीसेंण और बीरोखाल विकासखंड के पहाड़ों गाँवों खेतों और चारागाहों को जल संतृप्त कर देता है। उजड़े-खाली पहाड़ और वनभूमि की जमीन में साल भर पानी रहने के कारण प्रकृति स्वयं अनेकों किस्म के घास और पौधे लगा रही है। कई ऐसी पौध प्रजातियाँ भी वहां उगती देखी गई हैं जो दिखाई देनी बंद हो गईं थीं।
पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र जी कहते हैं अगर आप उफरैखाल के जंगल को देखने जाते हैं तो वहां सुनिश्चित पथ के सिवाय इधर-उधर नहीं चल सकते क्योंकि ह्यूमस की एक मोटी परत वहां जमी हुई है। 100 फुट तक की ऊंचाई के पेड़ वहां दिखाई देंगे। यह उस तरह का वृक्षारोपण नहीं है जैसा कि आमतौर पर सरकार जमीन के ऊपर करती है। यहां आपको एक असली प्राकृतिक भरा-पूरा जंगल मिलेगा।
इस इलाके में लोगों द्वारा चाल-खाल और जंगल लगाने का काम 80 के दशक से अब तक जारी है। इसी मेहनत और लगन ने सूख गई तीन छोटी नदियों और 5 नौलों को जीवन दे दिया। उफरैखाल के पड़ोसी गांव गाडखर्क के पास से निकलने वाली एक छोटी नदी ‘गाड़’ जो आजादी के पहले ही पूरी तरह सूख चुकी थी। 1944-45 के इर्वसन बंदोवस्त में इसें सूखा रौला लिखा गया। सूखा रौला का मतलब ऐसी धारा जो साल भर सूखी रहती हो केवल बरसात में पानी की धार बहती हो। जंगल और चाल-खालों ने पहाड़ी के ऊपर जो पानी रोककर रखा उससे पहाड़ से निकलने वाले गाड-गधेरों की धाराएं जलमय हो गईं और देखते-देखते सूखा रौला में साल भर पानी रहने लगा। सूखा रौला अब सूखा न रहा, तब समाज ने सोचा कि क्यों न इसका नाम बदल दिया जाय और समाज के लोगों ने गाड़ गांव के पास से निकलने वाली इस धारा को एक नया नाम दिया। 30 साल की मेहनत और भगीरथ प्रयास से पुनर्जन्म लेने वाली यह नदी गाड़गंगा कहलाई।
पहले यहां के जंगल इनमें रहने वाले जानवरों के लिए और आसपास के गाँवों के लिए ईंधन और जंगली उत्पादों के लिए पर्याप्त हुआ करते थे। घने जंगल पानी के अच्छे स्रोत होते थे। घने जंगल, साफ पानी और खूब सारा चारा की वजह से आसपास के गांव आबाद रहते थे।
अनियंत्रित कटाई से पहाड़ खाली होते चले गए। सरकार के कई अमलों और विभागों का काम जंगलों की कटाई को बढ़ावा देने का रह गया था। इससे गाँवों को अपने जरूरी संसाधनों के लिए दिक्कत होने लगी जंगलों की अनियंत्रित कटाई ने गाँवों में दोहरी समस्या पैदा की- पहलीः चारा, पानी और ईंधन का अकाल तो दूसरीः जंगली जानवर जो पर्याप्त भोजन न मिल पाने के कारण रिहाइशी इलाकों में आने लगे।
समस्या बद से बदतर होती चली गई। 1979 में उफरैखाल और उसके आसपास के गांव के लोगों को खबर मिली कि दूधातोली क्षेत्र में वन विभाग फर-रागा के पेड़ों का कटान कर रहा है। फर-रागा पौध प्रजाति भोजवृक्ष की तरह ही एक दुर्लभ प्रजाति है। नए फर-रागा के पेड़ तो लग नहीं रहे हैं। जो थोड़े बहुत बचे हैं वे लगातार काटे जा रहे हैं। गांव के लोगों को बहुत बुरा लगा। उन्होंने तय किया कि इस कटान को हर कीमत पर रोकना ही चाहिए। गांव के नौजवानों की एक टोली दूधातोली वन क्षेत्र से जुड़े गांव की ओर चल पड़ी। दैड़ा, सुंदरगांव, चौन्डा, कफलेख, पीरसैंण, घूरी आदि गाँवों में उफरैखाल से निकली नौजवानों की टोली पदयात्रा कर लोगों से संपर्क करती हुई यह समझाने का प्रयास कर रही थी कि वनों के विनाश से चारा, पानी, ईंधन की जो समस्या खड़ी होगी वह हम गांव वालों को ही भोगना पड़ेगा। टोली गांव के लोगों को यह समझाने में सफल रही कि भले ही जंगल सरकार के हैं पर जंगलों से रिश्ता-नाता तो हम लोगों का ही है। चारा, पानी इससे हमें मिलता है। ऐसे में जंगलों को बचाने का काम हमें करना होगा। साथ ही वन विभाग के लोगों को उन्होंने समझाया कि दूधातोली पहाड़ियां 45 प्रतिशत ढालू पहाड़ियां हैं और यहां अगर जंगल काटे गए तो भूस्खलन के साथ ही जलस्रोत भी नष्ट हो जाएंगे। वन विभाग के लोगों ने इस समस्या को समझने के लिए एक कमेटी बनाई। कमेटी भी गांव वालों की बात से सहमत थी। दैड़ा गांव में वन अधिकारियों और गांव के लोगों की बैठक हुई और घोषणा की गई कि इस इलाके में पूरी तरह कटान रोक दी जाएगी। इस पूरे अभियान का नेतृत्व गांव के ही एक नौजवान सच्चिदानंद भारती कर रहे थे।
सच्चिदानंद भारती पेशे से शिक्षक हैं और उफरैखाल इंटर कॉलेज में पढ़ाते हैं। सन् 1979 में वे चमोली जिले के गोपेश्वर महाविद्यालय में पढ़ रहे थे। उसी दौर में वहां के विश्व प्रसिद्ध चिपको आंदोलन ने जन्म लिया था। भारती ने अपनी पढ़ाई के साथ ही चिपको आंदोलन में खूब बढ़-चढ़कर भाग लिया था। संघर्ष और रचना का दोहरा पाठ चिपको से सीखा था। 1979 में अपनी पढ़ाई पूरी कर वे अपने गांव उफरैखाल लौटे ही थे कि वे दूधातोली जंगल कटान के खिलाफ कूद पड़े थे। समाज ने सोचा कि जब कटान का काम रोक ही दिया गया तो क्यूं न वन संरक्षण का काम किया जाए। गांव-गांव पर्यावरण शिविर लगाए गए। लोग अपने-अपने क्षेत्रों के जंगलों की हालात पर चर्चा करते थे और क्या करना है इसकी जुगत लगाते। उफरैखाल इंटर कॉलेज के कुछ अध्यापक और छात्र साथ ही गांव के लोग इन शिविरों में भाग लेते और कार्यक्रम बनाते।
तय किया गया कि पुराने पेड़ों के पास से बीजों का संग्रह कर नर्सरी बनाई जाएगी। छात्रों ने शिक्षकों की प्रेरणा से तरह-तरह के बीजों का संग्रह शुरू किया और सबसे पहली नर्सरी अखरोट के पौधों की थी और नर्सरी बनाने का काम कई स्थानों पर किया गया। एक तरफ नर्सरियां बनतीं तो दूसरी तरफ गांव के लोग खासकर महिलाएं उन्हें अपने जंगलों में लगातीं। पर्यावरण शिविरों में बातचीत कम पेड़-पौधे लगाने का काम ज्यादा होता था। चूंकि शिविरों का मुख्य विषय ही घास, जंगल, पानी, खेती हुआ करते थे। इसलिए महिलाएं ज्यादा बढ़-चढ़कर भाग लेतीं। महिलाओं ने अपने काम के लिए संगठन बनाया जो ‘महिला मंगल दल’ कहलाए।
‘महिला मंगल दलों’ ने वनों की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी निभाई। यह भी स्वाभाविक है कि जो लोग जंगलों के खत्म होने से सबसे ज्यादा प्रभावित थे वही उसकी रक्षा करने के लिए आगे आएं। क्योंकि गांव के जंगल खत्म होने से औरतों को इंधन और चारे के लिए दूसरे गांव जाना पड़ता था और अगर दूसरे गाँवों के लोग उन्हें लकड़ी लेते हुए देख लेते थे तो पंचायत के सामने उनकी हाजिरी लगाई जाती थी। लकड़ी चुराने के जुर्म में उन पर न केवल जुर्माना होता था बल्कि बेइज्जती भी सहनी पड़ती थी। इसलिए आत्मनिर्भर गांव कहलाने के लिए यह जरूरी था कि उनकी अपनी गांव की सीमा के भीतर उनका अपना खुशहाल जंगल हो।
1987 का साल दूधातोली के लिए एक दुखद खबर लेकर आया पूरे इलाके में भयानक सूखा था और अपने लगाए हुए लाखों पेड़ों को बचाने के लिए पानी की जरूरत थी। साथ ही निचले इलाकों में आए दिन लगने वाली आग से भी सच्चिदानंद भारती और उनकी टीम चिंतित रहती थी। पेड़ों को जिंदा रखने के लिए पेड़ों की थालों में छोटे-छोटे गड्ढे किए गए। ताकि कुछ दिनों तक बारिश न होने पर भी पेड़ों की जड़ों के आसपास गड्ढों में जब कभी बारिश हो तो ज्यादा पानी इकट्ठा हो सके और पेड़ों को जीने के लिए कुछ और समय मिल सके। उसी दौरान ‘आज भी खरे हैं तालाब’ के लेखक अनुपम मिश्र से उन्होंने पानी की छोटी संरचनाओं के बारे में जानना चाहा। संरचनाएं ऐसी हों जो उत्तराखंड के भू-भौतिकी के अनुकूल भी हों। इसके लिए वे देश भर में घूमें। जो भी लोग पानी पर काम कर रहे हैं उनका काम देखा। सबको समझने-बूझने के बाद अनुपम मिश्र के बताए अनुसार उन्होंने चाल-खाल जो उत्तराखंड की परंपरा में रही है, उनको अपने जंगलों में आजमाने का निर्णय किया। महिलाओं ने जंगल लगा-लगाकर बंजर पहाड़ियों को हरा-भरा कर दिया, तो चाल-खालों ने सूखी पहाड़ियों को पानीदार बना दिया।
महिलाओं ने जंगल लगाने का काम जुनून की हद तक किया। कई बार तो एक-एक साल में चार लाख पेड़ भी लगा डाले। अपने जंगलों के लिए जान की बाजी तक लगा डाली। 2000-01 के दौरान पास के एक सरकारी जंगल में लगी आग को बुझाने के लिए महिलाओं ने रात-दिन एक कर दीं। उन्होंने हर कीमत पर अपने जंगल की रक्षा की हालांकि इस पूरे काम में तीन औरतों की जान चली गई। फिर भी वे पीछे नहीं हटीं। अपनी जान देकर जंगल की रक्षा कीं।
वहां आज भी पेड़ों की सुरक्षा औरतें ही करती हैं। उनका तरीका बहुत ही गजब है। सुरक्षा की ये जिम्मेदारी खाखर से पहचानी जाती है। खाखर एक ऐसा डंडा है जिसकी नोंक पर घंटी बंधी होती है जिसके घर के बाहर खाखर बजाई जाती है जंगल की सुरक्षा की जिम्मेदारी उसकी होती है और जब ड्यूटी देने वाली महिला थक जाती है तब वह दूसरे घर के बाहर खाखर ठोंकती है और इस तरह ड्यूटी बदलती रहती है। कोई रजिस्टर नहीं, कोई ड्यूटी लगाने वाला नहीं, कोई शिकायत नहीं, कोई सरकारी आदेश नहीं, कोई दबाव नहीं जंगल की रक्षा के लिए जो है बस उनका अपना है। बिना किसी पैसे के सब श्रमदान करते हैं।
1998 में इस क्षेत्र के वनों और जलागम के विकास के नाम पर विश्व बैंक की 90 करोड़ की योजना आई। एक दिन गांव के लोगों ने देखा कि वहां एक बोर्ड लगा है। जिस पर जानकारी थी कि दूधातोली इलाके में जंगल और जलागम का काम करने के लिए 90 करोड़ की एक परियोजना शुरू की जाएगी। गांव के लोगों ने लखनऊ स्थित विश्व बैंक के एक अधिकारी को चिट्ठी लिखी की जब यहां वनों और जलसंरक्षण का काम गांव वाले खुद ही कर चुके हैं तब सरकार 90 करोड़ रुपए से कौन सा काम शुरू करेगी। लखनऊ से विश्व बैंक के अधिकारियों का एक दल आया। दूधातोली इलाके के गाँवों में लगाए घने जंगलों और चाल-खालों से हुए जलागम को देख कर वे चुपचाप लौट गए और 90 करोड़ की योजना भी साथ ले गए।
1999 में विश्व बैंक का एक दल दूधातोली गया। उनके काम से प्रभावित होकर मदद का प्रस्ताव भी रखा। भारती जी ने बताया कि वेंदा नाम की महिला ने उनसे कहा कि आप लोग बिना पैसे के इतना अच्छा काम कर रहे हैं तो फिर पैसा मिलने के बाद आप और ज्यादा अच्छा काम कर सकते हैं। लेकिन भारती जी ने बड़ी ही विनम्रता से उन्हें धन्यवाद देते हुए उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया और कहा, जो काम समाज ने मिलकर किया है पैसा उसे खत्म कर देगा। हमारा काम हमारे लोगों की मेहनत, जुनून और जंगल के प्रति कर्तव्य से जुड़ा है। अगर उसमें पैसा शामिल हो जाता है तो लोगों के दिलों से कर्तव्य की भावना खत्म हो जाएगी, अपने जंगलों से रिश्ता टूट जाएगा। दिल्ली में रहने वाले लोगों को बंगलों की जरूरत होती है लेकिन उफरैखाल जैसी छोटी जगह में रहने वाले लोगों को जंगलों की जरूरत होती है।
30 सालों के दौरान गाँवों के समाज ने करीब 30 हजार चाल-खाल बनाई हैं। उनके लगे जंगल 100 फिट कैनोपी तक के हैं। जमीन पर ह्यूमस की परत काफी मोटी है। पशु पक्षी भी वहां मौजूद हैं। जंगल खेती और चारा सभी कुछ उगाने के लिए पर्याप्त पानी मौजूद है। इन जंगलों में अब हर तरह का जीवन संगीत गूंज रहा है। बाढ़ और सुखाड़ दोनों ही उस इलाके से जा चुके हैं। ग्लेशियर सूखने की घोषणा और बातें वहां के जंगल अपनी हवा में उड़ा देते हैं। अपने धर्म-कर्म के लिए एक गंगा बहा देते हैं।
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