जम्मू और कश्मीर

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संकट ग्रस्त औषधीय पौधा सालम पंजा
Posted on 31 Aug, 2018 02:04 PM

संरक्षण की दृष्टि से प्रकृति में पेड़-पौधों एवं जीव-जन्तुओं के अस्तित्व पर नजर रखने वाली अन्तरराष्ट्रीय संस्था इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन अॉफ नेचर (International Union for Conservation of Nature) ने इस पौधे को अति संकट ग्रस्त श्रेणी में रखा है, जिसका अर्थ स्पष्ट है कि अगर जंगलों से चोरी छुपे इस पौधे का खनन इसी तरह चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब यह पौधा भारत से विलुप्त हो जाएगा।
सालम पंजा
सोच…शौचालय की, सूखे शौचालय या फ्लश शौचालय
Posted on 09 Jun, 2018 06:13 PM


लेह, लद्दाख/बदलते समय के साथ जीवन बहुत व्यस्त हो गया है, इस व्यस्तता के कारण हमें परिवारों के साथ बैठकर पौष्टिक और पर्याप्त भोजन करने तक का समय नहीं मिलता। हम इतने व्यस्त हैं कि हमारे पास साँस लेने तक की फुरसत नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि हम सिर्फ एक मशीन की तरह काम करने के लिये खाना-पानी और साँस ले रहे हैं।

सूखा शौचालय
जैविक सपने
Posted on 10 Jan, 2015 01:22 PM बात उत्तराखण्ड के एक कृषि मेले की है। देश के कई राज्यों से किसान इस कृषि मेले में भाग लेने आए थे। उनमें एक था जम्मू के आरएस पुरा तहसील का किसान स्वर्ण लाल। स्वर्ण लाल मेले में प्रदर्शित जैविक खेती (ऑर्गेनिक फॉर्मिंग) से सम्बन्धित आधुनिकतम उपकरणों को काफी उत्सुकता और कौतूहल भरी नजरों से देख रहा था। वहाँ उसने जो कुछ भी देखा उससे उसे एक सुखद सपने की उम्मीद जगी। उसने भी अपने पंचायत क्षेत्र सुचेतगढ़
त्रासदी में तोहमत के तीर
Posted on 28 Sep, 2014 09:40 AM प्राकृतिक आपदाएं बगैर किसी पूर्वानुमान व तैयारी के जब हम पर कहर ढा
मौसम बिगड़ने की अदृश्य चेतावनियां
Posted on 23 Sep, 2014 11:13 AM 21वीं सदी की शुरुआत में ही आए प्राकृतिक प्रकोपों ने साफ कर दिया है
weather
कश्मीर का ‘गहना’ बचाने में जुटे जरीफ
Posted on 23 Apr, 2011 11:54 AM

श्रीनगर. जरीफ अहमद जरीफ। करीब 67 साल के हैं। उन्हें आज भी 1982 का वह पल याद है। श्रीनगर दूरदर्शन की ओर से राजबाग को जोड़ने वाले पुल को बनाने के मकसद से 300 साल पुराने चिनार को काटने के लिए सरकार के नुमाइंदे पहुंचे थे।

जल प्रलय से सबक
Posted on 17 Aug, 2010 08:17 AM लेह में पर्यावरण से खिलवाड ही खलनायक बन गया है। लालची वन ठेकेदारों और उनके राजनीतिक आकाओं व सहयोगियों ने मिलकर पहाडों पर पेड काटते-काटते लेह को गंजा कर दिया है। दुखद है, ऎसा केवल लेह ही नहीं, पूरे देश में हुआ है, खूब पेड काटे गए हैं। न भारत, न पाकिस्तान और न चीन, कोई भी भीषण बाढ से अनजान नहीं है, लेकिन जल प्रलय ने इस बार तीनों देशों में भयावह व झकझोर देने वाले दृश्य पेश कर दिए। सबसे पहले पाकिस्तान में तो स्थितियां असाधारण और अभूतपूर्व हो गई, याद नहीं आता कि ऎसी भारी बारिश कभी पाकिस्तान में हुई होगी। मौत से बात करती बल खाती लहरों ने 1 करोड 20 लाख से ज्यादा लोगों को प्रभावित किया। कम से कम 1 लाख 40 हजार लोग घर-बार गंवा बैठे। करीब 2000 पुरूष, महिलाएं व बच्चे मारे गए। अकथ विनाश हुआ। हद तो यह कि सिन्धु नदी अब विनाशलीला को दक्षिण मे सिंध की ओर लिए बढ रही है। यह वही
क्यों फटते हैं बादल
Posted on 16 Aug, 2010 10:05 PM
लेह में हुई त्रासदी बादल फटने की कोई पहली घटना नहीं है। इससे पहले उत्तराखंड और हिमाचल में भी कई बार ऐसी घटना हो चुकी है। बादल आखिर फटते क्यों हैं?
लेह की विपदा के सबक
Posted on 13 Aug, 2010 03:27 PM यह प्राकृतिक विपदा है। पर एक बार घटित हो गई है तो स्थिति को नियंत्रित करने की, लोगों के पुनर्वास की व्यवस्था प्रादेशिक, राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर मनुष्य-समाज को ही करनी है। वही हो भी रहा है। लोग और सेना के जवान ही राहत कार्यों में जुटे हैं। पुल बनाए जा रहे हैं। मलबा हटाया जा रहा हैं। सड़कों को दुरुस्त करने की कोशिश हो रही है। एक गांव चोगलुमसर तो बह ही गया है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक लगभग प
कश्मीर की कथा
Posted on 05 Aug, 2010 08:36 AM राजतरंगिनी में जिन कामों का जिक्र है उनमें सबसे उम्दा काम उत्पल वंश (855-883 ई.) के अवंतिवर्मन के राज में सुय्या द्वारा सिंचाई प्रणाली का निर्माण दिखता है। वितस्ता के पानी की निकासी करके उन्होंने इसे पत्थर के बांध से नियंत्रित किया और नदी की सतह की सफाई करवाई। सुय्या ने सिंधु और वितस्ता नदियों के मेल को तोड़ा और महापद्म झील बनाने के लिए वितस्ता के किनारे-किनारे सात योजन तक तटबंध बनवाया। दूसरा प्रमुख स्रोत है कल्हण की राजतरंगिनी। 1148-1150 ई. में लिखी यह पुस्तक कश्मीर के महाराजाओं की कहानी कहती है। इसमें नहरों, सिंचाई के नालों, तटबंधों, जलसेतुओं, घुमावदार नहरों, बैराजों, कुओं और पनचक्कियों के बारे में सूचनाओं का अंबार है। इतिहासविद् ऑरेल स्टीन के मुताबिक, डल और आंचर झीलों से कई नहरें श्रीनगर शहर के बीचोबीच गुजरती थीं। राजतरंगिनी में भी इसका उल्लेख मिलता है। वास्तव में, उनके मुताबिक, “कल्हण ने जिन परंपराओं का उल्लेख किया है उनमें नहरों का निर्माण एक महत्वपूर्ण हिस्सा था।”
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