कश्मीर का ‘गहना’ बचाने में जुटे जरीफ

श्रीनगर. जरीफ अहमद जरीफ। करीब 67 साल के हैं। उन्हें आज भी 1982 का वह पल याद है। श्रीनगर दूरदर्शन की ओर से राजबाग को जोड़ने वाले पुल को बनाने के मकसद से 300 साल पुराने चिनार को काटने के लिए सरकार के नुमाइंदे पहुंचे थे। वे लोग चिनार को काटने की जिद कर रहे थे। जरीफ अकेले उनसे लड़ रहे थे। उन्हें रोक रहे थे। चिपको आंदोलन की तरह जरीफ और उनके कश्मीरी पंडित दोस्त बंसी उस चिनार के दरख्त से चिपक गए। उन्हें ऐसा करता देख आस-पास कई लोग इकट्ठा होकर उनके पास आ गए। आखिरकार चिनार बच गया। लेकिन सिर्फ थोड़े वक्त के लिए। रात के समय सरकारी कर्मचारियों ने चुपके से उसे काट डाला। इससे जरीफ को इतना दुख पहुंचा कि उसी दिन से उन्होंने घाटी में चिनार के दरख्तों को बचाने की कसम उठा ली।

जरीफ के मुताबिक चिनार ‘कश्मीर का गहना’ (ऑर्नामेंटल ट्री) है। कश्मीर की इस पहचान को पंडित और मुसलमानों ने मिलकर बचाने का प्रण लिया। जब धरती के दुश्मन तेजी से चिनार काट रहे थे और इंसानियत के दुश्मन खूनखराबे में लगे थे, तब उसी रफ्तार से जरीफ चिनार के बूटे लगाने का काम कर रहे थे। जरीफ ने 1982 में अपने साथियों के साथ मिलकर हर साल 100 चिनार के बूटे लगाने का प्रण लिया। करीब एक दशक तक उन्होंने अपने प्रण को बखूबी निभाया। आज वे सौ पेड़ तो नहीं लगा पाते लेकिन हर साल चिनार के 30 बूटे तो लगाते ही हैं।

अब तक जरीफ 1500 से ज्यादा चिनार अपने हाथों लगा चुके हैं। इनमें से करीब 1,000 विशालकाय पेड़ बन चुके हैं। जरीफ के मुताबिक, ‘कश्मीर में 1945 तक 45 हजार चिनार के पेड़ थे। आज 15 हजार से भी कम बाकी रह गए हैं।’ वे चिनार की खासियत बताते हैं, ‘ये पेड़ सदियों तक साथ निभाते हैं। करीब तीन-चार सौ साल तक इनका साया रहता है। अनंतनाग के बिजबिहेड़ा में मुगल शहजादे द्वारा लगाया 700 साल पुराना चिनार आज भी मौजूद है। अंग्रेजी-हिंदी में चिनार कहलाने वाला यह पेड़ कश्मीरी में ‘बून’ कहलाता है।’ जरीफ और उनके साथियों ने चिनार काटनेवालों के खिलाफ पूरी घाटी में लड़ाई भी छेड़ी। उनके जज्बे को देखकर सरकार ने खासतौर पर ‘चिनार डेवलपमेंट ऑफिस’ बनाया। पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाले देश-विदेश के संगठनों, राज्य के फ्लोरीकल्चर विभाग ने उन्हें कई बार सम्मानित भी किया।

जरीफ खुश होकर कहते हैं, ‘हर कश्मीरी चाहता है कि घाटी से उसकी पहचान चिनार कभी लुप्त न हो। यही वजह है कि जो बूटा मैं लगाता हूं, उसे स्थानीय लोग पेड़ बनने तक सींचते हैं। घाटी के युवा भी इस काम में भरपूर मदद करते हैं। उसे कश्मीरी पंडित इसे भवानी (मां) कहते थे। ‘खुशी होती है, तसल्ली मिलती है, यह सब देखकर।’

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