राजतरंगिनी में जिन कामों का जिक्र है उनमें सबसे उम्दा काम उत्पल वंश (855-883 ई.) के अवंतिवर्मन के राज में सुय्या द्वारा सिंचाई प्रणाली का निर्माण दिखता है। वितस्ता के पानी की निकासी करके उन्होंने इसे पत्थर के बांध से नियंत्रित किया और नदी की सतह की सफाई करवाई। सुय्या ने सिंधु और वितस्ता नदियों के मेल को तोड़ा और महापद्म झील बनाने के लिए वितस्ता के किनारे-किनारे सात योजन तक तटबंध बनवाया। दूसरा प्रमुख स्रोत है कल्हण की राजतरंगिनी। 1148-1150 ई. में लिखी यह पुस्तक कश्मीर के महाराजाओं की कहानी कहती है। इसमें नहरों, सिंचाई के नालों, तटबंधों, जलसेतुओं, घुमावदार नहरों, बैराजों, कुओं और पनचक्कियों के बारे में सूचनाओं का अंबार है। इतिहासविद् ऑरेल स्टीन के मुताबिक, डल और आंचर झीलों से कई नहरें श्रीनगर शहर के बीचोबीच गुजरती थीं। राजतरंगिनी में भी इसका उल्लेख मिलता है। वास्तव में, उनके मुताबिक, “कल्हण ने जिन परंपराओं का उल्लेख किया है उनमें नहरों का निर्माण एक महत्वपूर्ण हिस्सा था।” कल्हण के मुताबिक, विभिन्न महाराजाओं के काल में जो नहरे बनाई गईं उनमें से कुछ की पहचान तो ऑरेल स्टीन ने भी की है। उनमें से एक नहर सुनमणिकुल थी। राजतंगिनी में इसका नाम सुवर्णमणि कुल्य बताया गया है। इसे प्राचीनतम नहरों में गिना जा सकता है। स्टीन ने नंदी नामक दूसरी नहर की भी पहचान की जिसका नाम संभवतः अवंतिवर्मन के जल निकासी इंतजामों के संदर्भ में आए नंदक गांव से जुड़ा है।
राजतरंगिनी में जिन कार्यों का वर्णन है उनमें सबसे उल्लेखनीय शायद गडसेतु तटबंध है, जिसे दामोदर (द्वितीय) ने बनवाया था। इसके अलावा इन कार्यों का भी जिक्र किया जा सकता है- वितस्ता के बहाव को मोड़ना और कारकोट वंश के ललितादित्य मुक्तिपाद (725-760 ई.) द्वारा कई गांवों में पानी पहुंचाने के लिए पनचक्कियों का निर्माण। परंतु राजतरंगिनी में जिन कामों का जिक्र है उनमें सबसे उम्दा काम उत्पल वंश (855-883 ई.) के अवंतिवर्मन के राज में सुय्या द्वारा सिंचाई प्रणाली का निर्माण दिखता है। वितस्ता के पानी की निकासी करके उन्होंने इसे पत्थर के बांध से नियंत्रित किया और नदी की सतह की सफाई करवाई। सुय्या ने सिंधु और वितस्ता नदियों के मेल को तोड़ा और महापद्म झील बनाने के लिए वितस्ता के किनारे-किनारे सात योजन तक तटबंध बनवाया।
सुय्या की सिंचाई प्रणाली ऐसी थी कि हरेक को उचित मात्रा में पानी मिलता था। ललितादित्य मुक्तिपाद ने भी चक्रधारा (अब शकधार) के पास के गांवों में पानी पहुंचाने के लिए कई अरघट्टा (पनचक्कियां) बनवाईं जिसने वितस्ता का जलस्तर ऊपर उठा दिया। मार्तंड का शुष्क पठार, जिस पर भव्य मार्तंड मंदिर है और जिसके इर्दगिर्द शहर बसा है, तथा उसकी राजधानी परिहासपुरा में थी, आज पानी का संकट हो गया है। मगर उस समय इन उपायों से वहां निरंतर पानी उपलब्ध रहता था।
दक्षिण भारत में ताल, तालाब बनवाना पुण्य का काम माना जाता था। यह समय-समय पर बनाए गए कृत्रिम जलाशयों और तालाबों से साबित होता ही है, बल्कि शिलालेखों से भी इसका प्रमाण मिलता है। कन्नड़भाषी क्षेत्रों में कोडगे का अर्थ था वह भूमि जिससे होने वाली आमदनी का इस्तेमाल तालाबों और जलाशयों के निर्माण और मरम्मत पर किया जाता था। कई शिलालेखों में विस्तृत वर्णन मिलता है कि तालाबों से गाद की सफाई करने और तालाबों के रखरखाव के लिए क्या उपाय किए जाते थे। तमिलभाषी क्षेत्रों में तालाबों के रखरखाव की निगरानी के लिए छह सदस्यीय समिति हुआ करती थी। 1388 ई. के एक शिलालेख में एक दिलचस्प सूचना रुद्र के बेटे सिंगया भट्ट के बारे में मिलता है जो पानी के इंतजाम के इंजीनियर ‘जलला सूत्रदा’ थे।
राजतरंगिनी में जिन कार्यों का वर्णन है उनमें सबसे उल्लेखनीय शायद गडसेतु तटबंध है, जिसे दामोदर (द्वितीय) ने बनवाया था। इसके अलावा इन कार्यों का भी जिक्र किया जा सकता है- वितस्ता के बहाव को मोड़ना और कारकोट वंश के ललितादित्य मुक्तिपाद (725-760 ई.) द्वारा कई गांवों में पानी पहुंचाने के लिए पनचक्कियों का निर्माण। परंतु राजतरंगिनी में जिन कामों का जिक्र है उनमें सबसे उम्दा काम उत्पल वंश (855-883 ई.) के अवंतिवर्मन के राज में सुय्या द्वारा सिंचाई प्रणाली का निर्माण दिखता है। वितस्ता के पानी की निकासी करके उन्होंने इसे पत्थर के बांध से नियंत्रित किया और नदी की सतह की सफाई करवाई। सुय्या ने सिंधु और वितस्ता नदियों के मेल को तोड़ा और महापद्म झील बनाने के लिए वितस्ता के किनारे-किनारे सात योजन तक तटबंध बनवाया।
सुय्या की सिंचाई प्रणाली ऐसी थी कि हरेक को उचित मात्रा में पानी मिलता था। ललितादित्य मुक्तिपाद ने भी चक्रधारा (अब शकधार) के पास के गांवों में पानी पहुंचाने के लिए कई अरघट्टा (पनचक्कियां) बनवाईं जिसने वितस्ता का जलस्तर ऊपर उठा दिया। मार्तंड का शुष्क पठार, जिस पर भव्य मार्तंड मंदिर है और जिसके इर्दगिर्द शहर बसा है, तथा उसकी राजधानी परिहासपुरा में थी, आज पानी का संकट हो गया है। मगर उस समय इन उपायों से वहां निरंतर पानी उपलब्ध रहता था।
दक्षिण भारत में ताल, तालाब बनवाना पुण्य का काम माना जाता था। यह समय-समय पर बनाए गए कृत्रिम जलाशयों और तालाबों से साबित होता ही है, बल्कि शिलालेखों से भी इसका प्रमाण मिलता है। कन्नड़भाषी क्षेत्रों में कोडगे का अर्थ था वह भूमि जिससे होने वाली आमदनी का इस्तेमाल तालाबों और जलाशयों के निर्माण और मरम्मत पर किया जाता था। कई शिलालेखों में विस्तृत वर्णन मिलता है कि तालाबों से गाद की सफाई करने और तालाबों के रखरखाव के लिए क्या उपाय किए जाते थे। तमिलभाषी क्षेत्रों में तालाबों के रखरखाव की निगरानी के लिए छह सदस्यीय समिति हुआ करती थी। 1388 ई. के एक शिलालेख में एक दिलचस्प सूचना रुद्र के बेटे सिंगया भट्ट के बारे में मिलता है जो पानी के इंतजाम के इंजीनियर ‘जलला सूत्रदा’ थे।
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