दिल्ली

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पानी की बस्ती
Posted on 28 Jul, 2014 12:43 PM सूखे तालाब में खड़ी थी ग्रीष्म की वनस्पति आक कटैड़ी
फैला था कूड़ा कर्कट
अब सब तैर रहा है पानी पर बरसात के बाद

मेढ़क, सांप, केंकड़े और मछलियां
एक घर की प्रतीक्षा में
रह रहे थे धरती पर इधर-उधर ओनों-कोनों में
जलमुर्गिंयां और बतखें जीवन काट रही थीं
जाने किन राहत शिविर में

अब सबको अपने घर मिल गये हैं
तुम्हारे कितने नाम हैं ब्रह्मपुत्र
Posted on 28 Jul, 2014 12:27 PM तुम्हारे कितने नाम हैं ब्रह्मपुत्र
तिब्बत के जिस बर्फ से ढके अंचल में
तुम्हारा जन्म हुआ वहीं से निकली हैं
शतद्रू और सिन्धु की धाराएं
सगर तल से सोलह हजार फीट की ऊंचाई पर
टोकहेन के पास संगम होता है तीनों हिम प्रवाहों का

तिब्बती में कहते हैं-
कूबी सांगपो, सेमून डंगसू और मायून सू
यह संगम कैलाश पर्वत श्रेणी के दक्षिण में होता है
बिन पानी सब सून
Posted on 28 Jul, 2014 11:57 AM

जल में उतपति जल में बास

कबीरदास

जल में उतपति जल में बास। जल में नलिनी तोर निवास।।
ना तलि तपति न ऊपरी आगि। तोर हेतु कहु कासनि लागि।।
कहै कबीर जे उदक समान। ते नहीं मुए हंमारे जान।।

सिमटि सिमटि जल भरहिं तलावा

तुलसीदास

घन घमंड नभ गरजत घोर। प्रिया हीन डरपत मन मोरा।।
दामिन दमक रही घन माहीं। खल के प्रीति जथा थिर नाहीं।।
पावस ऋतु में मेघ मल्हार
Posted on 27 Jul, 2014 09:00 AM पावस ऋतु में मल्हार अंग के रागों का गायन-वादन अत्यन्त सुखदायी होता है। वर्षाकालीन सभी रागों में सबसे प्राचीन राग मेघ मल्हार माना जाता है। काफी थाट का यह राग औड़व-औड़व जाति का होता है, अर्थात इसके आरोह और अवरोह में 5-5 स्वरों का प्रयोग होता है। गांधार और धैवत स्वरों का प्रयोग नहीं होता। समर्थ कलासाधक कभी-कभी परिवर्तन के तौर पर गांधार स्वर का प्रयोग करते हैं। भातखंडे जी ने अपने ‘संगीत-शास्त्र’ ग
दृष्टि
Posted on 26 Jul, 2014 07:33 AM नीचे प्रलय काष
प्रवाह था
कुछ लोग
ऊपर देख रहे थे
इन्द्रधनुष....

सवाल

कितना कुछ धुला
कितना बह गया
इस बारिश में

मगर कहां बहे
जस के तस रहे
औरतों के आंसू
भूखों की लाचारियां
आम अवाम की पेरशानियां.....

निपट

कभी सूखा
उघाड़ देता
एकबारगी

कभी बाढ़
लपेट लेतीं
बाढ़-कुछ त्रिपदियां
Posted on 26 Jul, 2014 07:24 AM एक कई नदियों ने मिल-जुलकर
फिर से रच डाला है एक समन्दर
आदमी नहीं है पर जलचर।

दो
नदियां देन हैं प्रकृति की
बाढ़ नहीं, इसे तो रचा गया है
आपकी व्यूढ़ हिंसा इच्छाओं द्वारा।

तीन
पानी के साथ हमें जीना
आता था, यह तो आपने कर
दियाहै जीना मुहाल पानी का।
चार
किसने रोकी है किसकी राह
नदियों ने हमारी या हमने नदियों
अपनी वसीयत नर्मदा को
Posted on 25 Jul, 2014 04:49 PM मैंने वसीयत में लिख दिया
राष्ट्र के नाम
अपना राष्ट्र गीत राष्ट्र ध्वज
राष्ट्र भाषा
और संविधान अपना

लिख दिया विश्व के नाम
चांद सूरज तारे
हवा पानी प्रकाश
पर्यावरण

और अंत में सबके लिए
सृजन के संकल्प
और प्रार्थनाएं अनन्त

नहीं लिखा
विनाश का कोई भी शब्द
किसी के लिए कहीं

मैंने सौंप दी
नर्मदा की सहायक अजनाल के बारे में
Posted on 25 Jul, 2014 04:43 PM नर्मदा से मिलने वाली सहायक
हरदा की अजनाल नदी के बारे में
बार-बार पूछते फोन पर
इन्दौर से कृष्णकान्त बिलों से
और हर बार उसांसें छोड़ते
बताना पड़ता उन्हें
कि अजनाल अब जीवित नदी नहीं है यहां
और जो जीवित थी उसे तो तुम
हरदा छोड़ते वक्त अपने साथ ले गये
थेअपनी यादों की झोली में तभी

वैसे कुछ लोग हैं
जो तुम्हारे वक्त की अजनाल में तैरने
झारी भर नर्मदा
Posted on 25 Jul, 2014 04:40 PM वर्षों पूर्व जुहू के समन्दर में
नहाया था पहली बार
तब नमकीन हथेलियों से
पल्लर पल्लर सहलाते हुए
पूछा था सागर ने कि-
मुझमें नहाने के पहले कहां
सेनहा कर आया हूं मैं

तब मैंने अपनी नर्मदा में
डुबकियां लगाकर बम्बई आने
काबताया था उसे
जिसे सुनते ही
रेत तक मेरा बदन पोंछता
ले आया जुहू का सागर प्यार से बाहर

और बोला-
जब भी याद करता नर्मदा को
Posted on 25 Jul, 2014 04:37 PM मैंने तो
मकर संक्रान्ति की शीत लहर में
ठंड से कांपती नर्मदा को
कुनकुनी रेत के अलाव पर
बदन सेंकते देखा है घाट-घाट
बांटते देखा है सदाबरत और
गुड़-बिल्ली का परसाद
हंस-हंसकर दिनभर

रोते भी देखा उस वक्त
जब सावन की मूसलाधार झरी में
गांव के गांव बहे थे गोद में उसकी

रखवाली करते तो-
पिछली गरमी में ही देखा उसे
जब नहाते वक्त
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