पानी की बस्ती

सूखे तालाब में खड़ी थी ग्रीष्म की वनस्पति आक कटैड़ी
फैला था कूड़ा कर्कट
अब सब तैर रहा है पानी पर बरसात के बाद

मेढ़क, सांप, केंकड़े और मछलियां
एक घर की प्रतीक्षा में
रह रहे थे धरती पर इधर-उधर ओनों-कोनों में
जलमुर्गिंयां और बतखें जीवन काट रही थीं
जाने किन राहत शिविर में

अब सबको अपने घर मिल गये हैं
सुनो तो कैसा कलरव है धरती पर पानी की बस्ती में

पानी की इच्छाएं (1998)


घने-घने वृक्षों में नहीं बदलेगी कभी सुना अब
पानी तेरी इच्छाएं
फलों-सी नहीं फलेगी कभी सुना अब
पानी तेरी इच्छाएं
जीभ पर नहीं चुएगी रस-सी कभी सुना अब
पान तेरी इच्छाएं
धमनियों-शिराओं में संचरित नहीं होगी कभी सुना अब
पानी तेरी इच्छाएं

नदी (1998)


सुना तु सूख गयी है
सांवली काली पड़ गयी है तेरी काया
संसार की सबसे उदास नींद सो गयी है तू
चांद के झरने के नीचे

पानी की बेल (2006)


दोपहर में सूख गया था पूरी तरह
डबरे का पानी
रह गया नीले-पीले फूलों से लदी
पानी की बेलों का जाल

सूर्य ने सोख ली सारी नमी
हवा ने हर ली सारी गंध

अब जो अवशेष था वहां
उसे लिया जाना सम्भव नहीं था
निर्जन में दिख जानेवाली ढोर की हड्डियों-सा
बिखर पड़ा था अभी भी वहां
बेलों का जाल
पानी का कंकाल

तालाब (1995)


स्मृति है उन दिनों की
जब समुद्र का पानी फोड़कर
ऐरावतों के दलबल-सा
पहाड़ों के गढ़ लांघता
गर्जन-जर्तन करता
बढ़ता चला आया था मेघ

मोर चौंक रहे थे
चिड़ियां धूल में दुबक, हिल रही थीं
चींटिंयां कण दबाए किले की दीवार चढ़ रही थीं
बिल्लियां पेड़ों में भाग रही थीं
और तब गांव में घुसने से पहले ही
झरझराकर छूट पड़ा था मेघ
और धरती ने ओक कर ली थी
और बौछारों से भीज गया था
धरती का समूचा गात

(‘अपनों में नहीं रह पाने का गीत’ से साभार)
सुपरिचित कवि व लेखक

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Post By: pankajbagwan
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