उनकी गंदगी और हमारी ज़मीन...

विकास की राह पर तकनीक और मानव, हाथ में हाथ लिए चल रहे हैं। विकसित देशों में कम्प्यूटर और इलेक्ट्रानिक्स जीवन का अटूट अंग हैं, पर खराब इलेक्ट्रानिक कचरे का रूप ले चुके ये इलेक्ट्रानिक्स गैजेट्स जा कहाँ रहे हैं? कहीं भारत इनका रीसाइकल बिन तो नहीं?

हाल तब और बेहाल हो जाता है, जब दूसरे देश भी अपना कूड़ा हमारी धरती पर भेज देते हैं। कनाडा, डेनमार्क, जापान, फ्रांस,यूके, नीदरलैंड, जर्मनी या संयुक्त राज्य अमेरिका से प्रतिवर्ष 600 टन ई-कचरा भारत की सीमाओं को लांघकर आता है। स्पेनिश शहर बार्सिलोना ने मिलेनियम ईयर की शुरुआत ‘गो ग्रीन एंड गार्बेज फ्री’ के सपने के साथ की और उसी वर्ष के अंत बार्सिलोना से भेजा गया कचरा दक्षिण भारत के बंदरगाहों पर मिला। भारत के साथ ऐसा कई देश कर रहे हैं।

आज जिस समय में हम सांस ले रहे हैं वहां निश्चित तौर पर हमने बहुत-सी उपलब्धियाँ जुटाई हैं, लेकिन अपनी इन उपलब्धियों और आत्ममुग्धताओं के बीच शायद हम उस जाल को नहीं देख पा रहे, जो विकास के आसमान में उड़ते परों को चोरी-छिपे फ़ांस रहा है। वर्ल्ड बैंक के मुताबिक इन दिनों हमारे आसपास एक ऐसी मौन समस्या आकार ले रही है, जो 2025 तक वैश्विक चीख में बदल जाएगी। इस बात की पूरी-पूरी आशंका है कि कल सोने की चिड़िया, हमारा देश कूड़े के ढेर पर बैठा होगा। अपने घर को साफ-सुथरा रखने के लिए पड़ोसी के घर के बाहर कचरा फेंकने की आदत से तो हम सभी वाक़िफ़ हैं, लेकिन अब यह परंपरा वैश्विक स्तर पर भी निभाई जा रही है। विश्व पटल पर अपनी साफ-सुथरी छवि को बनाए रखने के लिए विकसित देश अपने यहां का कचरा भारत में फेंक रहे हैं।

क्या कहते हैं आंकड़े


पिछले दिनों ब्रिटेन से जारी रिपोर्ट भी यही कह रही है कि रीयूज, रीसाइकलिंग और रिड्यूसिंग के नाम पर भारत विकसित देशों का डस्टबिन बनता जा रहा है। ‘डिपार्टमेंट ऑफ एन्वायरमेंट फूड एंड रूरल अफेयर’ के मुताबिक हर साल 12 मिलियन टन कचरा भारत आता है। चिंता की बात है कि यह पिछले एक दशक में ही दोगुनी रफ्तार पकड़ चुका है। विश्व बैंक ने 2007 में कहा कि विश्व के सबसे प्रदूषित 20 शहरों में से 16 शहर चीन में हैं। आज भारत भी चीन की राह पर चलता दिख रहा है।

कहा जा रहा है कि ये विदेशी साज़िश है, पर क्या हमारी अपनी लिप्तताएं व अनदेखियां भी इन साजिशों में शामिल नहीं है? सरकारी दस्तावेज़ बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने 1997 में ही हानिकारक कचरे के आयात पर रोक लगा दी थी और ये भी भारत सरकार के आयात आंकड़ों में दर्ज है कि वर्ष 1999 में भारत ने 59 हजार टन व 2000 में 61 हजार टन प्लास्टिक का कचरा आयात किया। क्या इस विरोधाभास का कोई जवाब है हमारे पास? तमिलनाडु की कुछ सीमेंट कंपनियां ईंधन के रूप में इस्तेमाल करने के लिए विदेशों से विशेष तरह का कचरा मंगाती हैं, लेकिन जब इस कचरे में दूसरी तरह का कचरा भी मिलाकर भेज दिया जाता है तब उसे वापस भेजने में कोताही क्यों की जाती है? दरअसल होता यह है कि ऐसे कचरे को वापस भेजने या रिसाइकिल करने के बजाय ज़मीन में दबा दिया जाता है। इस लैंडफिलिंग से जिन हानिकारक गैसों का उत्सर्जन हो रहा है, वे कैंसर और दूसरे खतरनाक रोगों को बढ़ावा दे रही हैं। खतरा तो यह भी है कि कहीं चीन के बाद भारत दूसरी ‘कैंसर कंट्री’ न बन जाए, क्योंकि ख़ामियाज़ा तो अंततः प्रकृति, पर्यावरण और जीवन को ही चुकाना है।

आइए कुछ महानगरों की सैर करें-नई दिल्ली... भारत का दिल, देशी की राजधानी, 16.75 मिलियन लोग और 10,000 टन कचरा हर रोज। बेंगलुरु... देश की आर्थिक पहचान, जो कभी गार्डन सिटी के नाम से मशहूर था, वहां आज हर तरफ खड़े हैं कचरे के पर्वत! मुंबई... सपनों की नगरी, आम से खास बनने की चाहत में देशभर से जुटी हुई भीड़ सपनों और अपनों को संभालते इस शहर की सांसें भी बेदम हैं कचरे के बोझ से...! ये हाल तो बड़े-बड़े महानगरों का है। इनके अलावा मेरठ,गाज़ियाबाद, आगरा, मथुरा, चेन्नई, बनारस और इलाहाबाद... हर जगह यही हाल है।

ये हाल तब और बेहाल हो जाता है, जब दूसरे देश भी अपना कूड़ा हमारी धरती पर भेज देते हैं। कनाडा, डेनमार्क, जापान, फ्रांस,यूके, नीदरलैंड, जर्मनी या संयुक्त राज्य अमेरिका से प्रतिवर्ष 600 टन ई-कचरा भारत की सीमाओं को लांघकर आता है। स्पेनिश शहर बार्सिलोना ने मिलेनियम ईयर की शुरुआत ‘गो ग्रीन एंड गार्बेज फ्री’ के सपने के साथ की और उसी वर्ष के अंत बार्सिलोना से भेजा गया कचरा दक्षिण भारत के बंदरगाहों पर मिला। भारत के साथ ऐसा कई देश कर रहे हैं।

विदेशों से आने वाले इस कचरे में प्लास्टिक से लेकर केमिकल, इलेक्ट्रॉनिक, खाद्य, सीवेज, रेडियोएक्टिव, डोमेस्टिक, इंडस्ट्रियल और क्लिनिकल वेस्ट के अलावा दूसरे अन्य हानिकारक अपशिष्ट शामिल थे। आंकड़े तो यहां तक कहते हैं कि यूएसए अपना 80 प्रतिशत ई-कचरा चीन, इंडोनेशिया, भारत और पाकिस्तान में फेंकता है। सुविधा संपन्न ये देश अपने द्वारा उत्सर्जित कचरे को खुद रीयूज, रीसाइकल और रीड्यूस क्यों नहीं करते? क्योंकि कचरे की रीसाइकलिंग में औसतन जितना खर्चा आता है उससे चौथाई कम लागत लगती है भारत भेजने में। दूसरा हमारे बंदरगाहों पर उन्नत स्केनर्स की कमी है, जिसके कारण हम आयातित कचरे में मिलाकर भेजे गए। अन्य तरह के कचरे को मौके पर नहीं पकड़ पाते और तीसरा सबसे अहम कारण है पर्यावरण संरक्षण क़ानूनों का सख़्ती से पालन व भ्रष्टाचार। यह समय आत्ममुग्धताओं से ज्यादा आत्मावलोकन का है।

1. वैश्विक स्तर पर हर साल 4 से 5 करोड़ टन इलेक्ट्रानिक अपशिष्ट यानी ई-कचरा प्राप्त होता है, जिसमें भारत की हिस्सेदारी केवल 8 लाख टन है।
2. इस 8 लाख टन में से पांच फीसदी से भी कम ई-कचरा रीसाइकिल हो पाता है।
3. कुछ इलेक्ट्रानिक कचरे में कम्प्यूटर उपकरणों की हिस्सेदारी 68 प्रतिशत, दूरसंचार का 12 प्रतिशत, इलेक्ट्रिक उपकरणों का 8 प्रतिशत, चिकित्सा उपकरणों का 7 प्रतिशत होती है। अन्य इलेक्ट्रॉनिक कचरे की हिस्सेदारी शेष 5 फीसदी होती है।

(स्रोत : एसोचैम)

बेस्ट आउट ऑफ वेस्ट


1. यूरोप में करीब साढ़े चार सौ केंद्रों पर कचरे से बिजली बनाने का काम चल रहा है।
2. हाल ही में ‘अट्टेरो’ (पुराने, बेकार हो चुके इलेक्ट्रॉनिक सामानों को प्रबंध करने वाली प्रमुख कंपनी) ने ई-कचरे के निस्तारण के लिए इंटरनेशनल फाइनेंस कॉर्पोरेशन के साथ मिलकर एक स्वच्छ इलेक्ट्रॉनिक भारत अभियान शुरू किया है।
3. नागपुर के जीएच रायसोनी कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग में कचरे से उपलब्धियों का एक नया अध्याय रच रही हैं अलका उमेश झाडगांवकर। केमिस्ट्री विभाग की अध्यक्ष अलका ने यहां स्वास्थ्य के लिए सबसे हानिकारक माने जाने वाले प्लास्टिक के कचरे से एक तरल हाइड्रो कार्बन और पेट्रोल निर्मित किया है। कल-कारख़ानों को सस्ते दामों पर उपलब्ध हो रहा यह ईंधन देश के आर्थिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए शुभ संकेत है।
4. कचरे के निस्तारण के लिए देशभर में कई प्लांट्स बनाए जा रहे हैं। इन प्लांट्स में ठोस कचरे को प्लांट में भेजा जाता है, जहां इसकी छंटनी होती है। ग्रीन कचरा (सब्जियों के छिलके, सड़े फल-सब्जी, पेड़-पौधों के अवशेष आदि को खाद बनाने के लिए अलग किया जाता है। लुगदी, कागज, हल्का प्लास्टिक ईंधन बनाने के लिए निकाल लिया जाता है।)

भारत में कचरे का आयात


देश

मात्रा

बार्सिलोना, स्पेन

103.7 टन

ग्रीस

20 कंटेनर

मलेशिया

9 कंटेनर

सऊदी अरब

72.59 टन

 



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