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आसाढ़ी पूनो दिना
Posted on 16 Mar, 2010 03:16 PM
आसाढ़ी पूनो दिना, निर्मल उगै चन्द।
पीव जाव तुम मालवै, अट्ठै है दुख द्वंद।।


भावार्थ- यदि आषाढ़ की पूर्णिमा के दिन आसमान में स्वच्छ (बादल रहित) चंद्रमा निकले, तो हे स्वामी! तुम मालवा चले जाना क्योंकि यहाँ कठिन दु:ख देखना पड़ेगा अर्थात् वर्षा अच्छी नहीं होगी।

अगहन दूना पूस सवाई
Posted on 16 Mar, 2010 03:11 PM
अगहन दूना पूस सवाई।
फागुन बरसे घर से जाई।।


भावार्थ- यदि अगहन में बारिश होती है तो रबी की फसल को दूना लाभ होता है, पौष मास में पानी बरसता है तो सवाया लाभ होता है और यदि फाल्गुन मास में पानी बरसे तो किसान की फसल नष्ट हो जाती है। उसकी फसल की लागत भी चली जाती है।

अद्रा बरसै पुनर्बस जाय।
Posted on 16 Mar, 2010 03:04 PM
अद्रा बरसै पुनर्बस जाय।
दीन अन्न कोऊ नहिं खाय।।


भावार्थ- यदि आर्द्रा नक्षत्र में बरसता पानी पुनर्वस तक बरसता रहे तो ऐसे अनाज को यदि कोई मुफ्त में भी दे तो नहीं खाना चाहिए क्योंकि वह अनाज विषैला हो जाता है।

अगहन में सरवा भर
Posted on 16 Mar, 2010 02:26 PM
अगहन में सरवा भर, फिर करवा भर।

शब्दार्थ- सरवा – कुल्हड़, करवा – घड़ा ।

भावार्थ- अगहन में यदि फसल को सरवा या सकोरा भर भी पानी मिल जाये तो वह अन्य समय के एक घड़े पानी के बराबर लाभदायक होता है, अर्थात् अगहन का थोड़ा भी पानी फसल के लिए पर्याप्त होता है।

असुनी गल भरनी गली
Posted on 16 Mar, 2010 02:24 PM
असुनी गल भरनी गली, गलियो जेष्ठा मूर।
पुरबाषाढ़ा धूल कित, उपजै सातो तूर।।


शब्दार्थ – मूर – मूल । तूर – अन्न ।
वर्षा सम्बन्धी कहावतें
Posted on 16 Mar, 2010 01:54 PM

असनी गलिया अन्त विनासै। गली रेवती जल को नासै।।
भरनी नासै तृनौ सहूतो। कृतिका बरसै अन्त बहूतो।।


शब्दार्थ- असनी- अश्विनी।
आई बरखा बहार
Posted on 08 Mar, 2010 07:47 AM

छह ऋतुओं का देश है भारत। प्रत्येक ऋतु का अपना अलग ही सौंदर्य है, उसकी अपनी प्राकृतिक पहचान है जिससे प्रभावित होकर कवियों ने अनेक छंद रचे तो चित्रकारों एवं संगीतकारों की भी सदैव प्रेरणा स्त्रोत रही है। छह ऋतुओं के अंतर्गत जो ऋतुएं प्रकृति में स्पष्ट परिवर्तन लातीं है तथा जिनके आगमन से जनमानस आनंदातिरेक के कारण फाग तथा कजरी–जैसे गीत प्रकारों को शब्द–बद्ध एवं स्वरबद्ध करता है, वह हैं – वसंत तथा वर

सरिता संगम-संस्कृति
Posted on 28 Feb, 2010 07:48 AM जो भूमि केवल वर्षा के पानी से ही सींची जाती है और जहां वर्षा के आधार पर ही खेती हुआ करती है , उस भूमि को ‘देव मातृक’ कहते है, इसके विपरीत, जो भूमि इस प्रकार वर्षा पर आधार नहीं रखती, बल्कि नदी के पानी से सींची जाती है और निश्चित फसल देती है, उसे ‘नदी मातृक’ कहते हैं। भारतवर्ष में जिन लोगों ने भूमि के इस प्रकार दो हिस्से किए, उन्होंने नदी को कितना महत्व दिया था, यह हम आसानी से समझ सकते है। पंजाब का
बरसाती गीत (भाग 2)
Posted on 27 Feb, 2010 09:28 AM मेवाजी मनावां हम तो आज
मन का तो मंगल जी गावियां
म्हारा राज.... ।।टेक।।

आबां पे चमके है चम-चम बीज
काली ने पिली जी बादलियां
म्हारा राज....... ।।1।।

बरसा हुई है घनघोर
नदी ने नाला जी भरिया
म्हारा राज........।।2।।


बागा में नाचे है ढाढर मोर
मोरनी की मन में जी भावियां
म्हारा राज........।।3।।
बरसाती गीत
Posted on 27 Feb, 2010 08:25 AM पेली पोथी रे बीमा खोली के राखी
दूजली हांता का मांय म्हारा वीरा
आवो म्हारा मेव राजा बरसो नी बरसो
बरसो नी बरसो, बरसो नी बरसो.........आवो

राम लखन जाग्या, जाग्या सीत मरूर
खेड़ा-खेड़ा पे जाग्या हे हनुमान्या
आवो म्हारा मेव राजा बरसो नी बरसो
बरसो नी बरसो, बरसो नी बरसो.........आवो

तमारा बर्स्या से धरती मां निबजे
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