भारत

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गतिविधियाँ
Posted on 17 Sep, 2013 03:48 PM

गतिविधि 1 : बढ़ते ताप के खतरे को काबू में रखना।


उद्देश्य : हमारे देश की ऊर्जा क्षमता को बेहतर करने के उपायों द्वारा वैश्विक तापवृद्धि को धीमा करना। जब तक हम कारों से निकली गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित नहीं करते, कोई भी तापवृद्धि संबंधी उपाय सफल नहीं हो सकते।
वैश्विक तापवृद्धि से भविष्य में स्वास्थ्य के लिए खतरे
Posted on 17 Sep, 2013 02:56 PM अगले 50 सालों में, वायुमंडल के समतापमंडल के मौजूद ओज़ोन के क्षरण के
भारतीय परिदृश्य
Posted on 17 Sep, 2013 01:39 PM विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, एशिया-प्रशांत क्षेत्र में हर वर्ष मलेरिया और डेंगू जैसे रोगों सहित अ
पानी के बिना जीवन की कल्पना नहीं
Posted on 17 Sep, 2013 01:18 PM भारतीय लोक जीवन में तो जल की महत्ता और सत्ता अपरंपार है। वह प्राणदायी नहीं अपितु प्राण है। वह प्रकृति के कण-कण में है। वह पानी के
अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य
Posted on 16 Sep, 2013 04:22 PM

वैश्विक तापवृद्धि के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों का अध्ययन करने वाले लोग अल नीनो अथवा दक्षिणी दोलन

मौसम की प्रचंडता-जनजीवन पर प्रभाव
Posted on 16 Sep, 2013 03:20 PM धरा पर तापवृद्धि के फलस्वरूप उन्मुक्त हुई सामान्य और प्रचंड मौसमी स्थितियाँ तबाही का कारण बन रही हैं।
स्वर्ण रेखा
Posted on 16 Sep, 2013 03:10 PM मैं गुजरा हूँ उन खेतों से,
मंद बयार के अहरह झोंको में,
जहाँ गदराई हरीतिमा
झूम रही थी-
और अब मैं रुकता हूँ
और पीछे मुड़कर देखता हूँ-
वहाँ स्वर्ण-रेखा है-
सोने की लकीर, उसका
उत्फुल्ल जल
उस चट्टान पर उच्छल
जिस पर हम बैठे थे
और प्यार की बातें की थीं,
धूम-भूरे बादल से
कोमल तिपहरी में :
वे रहे हमारे पदचिन्ह
सीमांत
Posted on 16 Sep, 2013 03:08 PM ...और यह वह स्थल,
यही नदी वह
जिसके तट बैठे थे सट हम दोनों,
पहली बार:
और नयन के मूक-मुखर स्वर में
बातें दो-चार कर लेते थे..
आँखों के वे स्वर
मूक, निरर्थक,
फिर भी, सुख पीड़ा के
व्यंग्य-मार से पिच्छल,
और-किंतु, वह था विगत जन्म में।

यह नदी, स्वर्ण-रेखा
स्मृति के दो तट जिसके,
यह हम में है;
और क्षणों का ढूह-रेत,
माँझी
Posted on 16 Sep, 2013 03:07 PM माँझी! जल का छोर न आता
अब भी तट आँखों से ओझल माँझी! जल का छोर न आता
भरी नदी बरसाती धारा
घन-गर्जन अंबर अँधियारा
काली-काली मेघ घटाएँ आ पहुँची रजनी अज्ञाता
माँझी! जल का छोर न आता
क्षुब्ध पवन वन-पथ में रोता दुर्दिन को उन्मत्त बनाता
नभ अश्रांत गाढ़ी तम छाया
मन वियोगिनी का भर आया
प्राणों की आशा बादल पर खींच रही जो मौन सुजाता
माँझी! जल का छोर न आता
बाँहों वाली नदी
Posted on 16 Sep, 2013 03:05 PM जैसे लहरों की हजार बाँहें खोल
मिलने को आती नदी
वापस लौट गई हो
पराए फूलों की घाटी में
मुड़कर डूब गई हो!
कितना दुखदाई है

किसी भी चीज का
मिलते-मिलते खो जाना
कैसा होता है
अपनी हर बात का
नहीं हुआ हो जाना!

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