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सूखा और बाढ़
आपदा बड़ी, राहत छोटी
Posted on 10 Aug, 2014 12:35 AMबाढ़, सुखाड़, भूकंप, शीतलहर, आगलगी और वज्रपात ये ऐसी घटनाएं हैं, जिन पर हमारा सीधा-सीधा नियंत्रण नहीं है। ऐसी घटनाएं आपदा बन जाती हैं। बड़े पैमाने पर जान-माल का नुकसान होता है। इस नुकसान की भरपाई आसान नहीं होता। विशेषज्ञ कहते हैं कि विकास की दौड़ में हम ऐसी छोटी-छोटी बातों की अनदेखी करते हैं, जो आगे चल कर बड़ी कीमत वसूलती हैं। हम हर आपदा की पूर्व सूचना प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे में बचाव और आपदक्या हो उत्तराखंड विकास का मॉडल
Posted on 12 Jul, 2014 01:33 PMउत्तराखंड की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर विकास की नीतियां बनाई जाने की जरूरत है। उत्तराखंड में कोई भी विकास की योजना वहां को लोगों, वहां के पेड़, भू-भौतिकी और इकोलॉजी को ध्यान में रखकर ही बननी चाहिए। पर जो वर्तमान विकास का मॉडल अपनाया गया है, वह विनाशकारी साबित हो रहा है। पहाड़ों में विनाशकारी त्रासदियों का बढ़ना दुखदायी तो है ही, साथ ही उत्तराखंड के नीति-निर्माताओं पर सवाल भी खड़े करता है।अनदेखी और लालच की आपदा
Posted on 12 Jul, 2014 12:10 PMउत्तराखंड में 16-17 जून को आई भीषण आपदा पर अब तक बहुत कुछ कहा-लिखा जा चुका है। इन्द्रेश मैखुरी और साथियों द्वारा तत्काल किए गए दौरे की रिपोर्ट कई अखबारों में प्रकाशित हो चुकी है। पुनः इसे प्रासंगिक समझ कर उत्तरा में दिया जा रहा है।आपदा और महिलाएं
Posted on 12 Jul, 2014 10:21 AMजून माह में आई आपदा के कारण जो त्रासदी हुई, उसकी याद एक दर्द की तरह सालती रहेगी सालों साल!बुंदेलखण्ड की जल चौपाल
Posted on 01 Jul, 2014 01:28 PM
'लोक संस्कृति में जलविज्ञान और प्रकृति' की अध्ययन यात्रा की शुरुआत 'राष्ट्रीय वि
'लोक संस्कृति में जलविज्ञान और प्रकृति' की अध्ययन यात्रा की शुरुआत 'राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद' और 'माधव राव सप्रे स्मृति संचार संग्रहालय एवं शोध संस्थान' के आपसी सहयोग से हुई। इस यात्रा के मार्गदर्शक की भूमिका में जलविज्ञानी श्रीकृष्ण गोपाल व्यास थे।
आपदाओं से बचाव के बहाने सामाजिक न्याय
Posted on 28 Jun, 2014 09:18 AM बदलती मानवीय प्राथमिकताओं में प्राकृतिक संसाधनों का अतिशय शोषण कियपर्यावरण संरक्षण में पंचायती राज का हो सकता है अहम योगदान
Posted on 14 Jun, 2014 09:13 AMभारतीय संविधान के 73वें संशोधन के उपरांत ग्यारहवीं अनुसूची के अंतर्गत पंचायती राज सहकारिता विषय निम्न प्रकार है :कल्याणकारी (प्राकृतिक) खाद द्वारा कृषि विकास
जल संग्रहण विकास
सामाजिक वानिकी
लघु वन उत्पाद
जल निकायों का निकर्षण एवं साफ–सफाई
व्यर्थ जल संग्रहण एवं निष्कासन
सामुदायिक बायोगैस प्लांटों की स्थापना
र्इंधन व चारा विकास
उत्तराखंड त्रासदीः क्या हुआ, क्या बाकी
Posted on 02 Jun, 2014 09:10 AMउत्तराखंड के तमाम पर्वतीय ईलाकों में बादल के कहर ने आपदा प्रबंधन तपरंपरा का पुनः प्रयोग
Posted on 23 Aug, 2013 10:58 AMसूखे से पस्त बुंदेलखंड जैसे इलाकों को वित्तीय पैकेज की नहीं बल्कि परंपरा से उपजे उस प्रयोग की जरूरत है जो देवास का कायाकल्प करके महोबा पहुंच चुका है..देवास के हर गांव में आज सफलताओं की ऐसी कई छोटी-बड़ी कहानियां मौजूद हैं। पानी और चारा होने के कारण लोगों ने दोबारा गाय-भैंस पालना शुरू कर दिया है और अकेले धतूरिया गांव से ही एक हजार लीटर दूध प्रतिदिन बेचा जा रहा है। पर्यावरण पर भी इन तालाबों का सकारात्मक असर हुआ है। आज विदेशी पक्षियों और हिरनों के झुंड इन तालाबों के पास आसानी से देखे जा सकते हैं। किसानों ने भी पक्षियों की चिंता करते हुए अपने तालाबों के बीच में टापू बनाए हैं। इन टापुओं पर पक्षी अपने घोंसलें बनाते हैं और चारों तरफ से पानी से घिरे रहने के कारण अन्य जानवर इन घोंसलों को नुकसान भी नहीं पहुंचा पाते।
किस्सा 17वीं शताब्दी का है बुंदेलखंड के महाराजा छत्रसाल के बेटे जगतराज को एक गड़े हुए खज़ाने की खबर मिली जगतराज ने यह ख़ज़ाना खुदवा कर निकाल लिया। छत्रसाल इस पर बहुत नाराज़ हुए और उन्होंने इस खज़ाने को जन हित में खर्च करने के आदेश दिए, जगतराज को आदेश मिला कि इस खज़ाने से पुराने तालाबों की मरम्मत की जाए और नए तालाब बनवाए जाएं, उस दौर में बनाए गए कई विशालकाय तालाब आज भी बुंदेलखंड में मौजूद हैं, सदियों तक ये तालाब किसानों के साथी रहे। कहा जाता है कि बुंदेलखंड में जातीय पंचायतें भी अपने किसी सदस्य को गलती करने पर दंड के रूप में तालाब बनाने को ही कहती थीं। सिंचाई से लेकर पानी की हर आवश्यकता को पूरा करने की ज़िम्मेदारी तालाबों की होती थी।बांध से पानी छोड़ने का सूचना तंत्र बनाओ
Posted on 29 Aug, 2012 01:56 PMभारत के तराई इलाकों में नेपाल नदियों में अचानक पानी छोड़ कर कभी भी बाढ़ ला देता है। भारत के सरकारी तंत्र की ओर से आश्वासन दिया जाता है कि उससे बात करके समस्या का स्थायी समाधान निकाला जायेगा। ऐसे में नेपाली अधिकारी यह कहकर जले पर नमक छिड़कते हैं कि वे तो पानी छोड़ने से पहले भारत के संबंधित अधिकारियों को सूचित करने का अपना फर्ज निभाते ही हैं। यह हर साल के मानसून का खेल हैं। झूठे आश्वासन देने का यह सरकारी ड्रामा हर साल का है। इस बार बहराइच के बाढ़पीड़ितों के सब्र का बांध टूट गया और वे आरपार के संघर्ष पर उतर आये। पर सरकारें ऐसी समस्याओं पर कोई स्थाई समाधान लाने की बजाय लोगों के दमन पर उतारू हो जाती है बता रहे हैं कृष्ण प्रताप सिंह।28 अगस्त 2012। यों तो कई अन्य राज्यों की तरह उत्तर प्रदेश भी सूखे का कहर झेल रहा है, लेकिन उसके नेपाल सीमा के आसपास के जिले बाढ़ की विभीषिका से भी दो-चार हैं। बहराइच, श्रवस्ती, बस्ती, बाराबंकी, गोंडा व फैजाबाद वगैरह में घाघरा व राप्ती नदियों में नेपाल से बहकर आये पानी ने लोगों का जीवन नर्क बना रखा है। अगर साफ कहें तो यह बाढ़ ‘आयातित’ है। शायद ही कोई साल ऐसा गुजरता हो जब ऐसा न होता हो। कई बार इसका खामियाजा उत्तर प्रदेश के पड़ोसी बिहार के भी एक बड़े हिस्से को चुकाना पड़ता है और पीड़ितों को संभलने तक का मौका नहीं मिलता। उन्हें पता तो नहीं होता कि कब नेपाल में पानी बरसेगा, उनके सिर पर ‘ओरौनी’ चूने लगेगी और नदियों को काबू करने के लिए बनाये गये तटबंधों को बेकार कर देगी।