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उत्तराखंड में नदी बचाओ अभियान ने सतत संघर्ष कर अनेक बांधों का निर्माण रद्द करवाया है। इसके फलस्वरूप कई नदियों का प्रवाह पुनः निर्बाध हुआ है। इस पूरे आंदोलन में महिलाओं की अत्यंत सक्रिय भूमिका रही है। उत्तराखंड के नदी बचाओ अभियान की सफल यात्रा को हमारे सामने लाता महत्वपूर्ण आलेख।
उत्तराखंड के सामाजिक कार्यकर्ताओं ने जनता के साथ मिलकर सन् 2008 को नदी बचाओ वर्ष घोषित करके पदयात्राएं की थी। उत्तराखंड के गठन से लोगों को आश थी कि यह नया ऊर्जा प्रदेश नौजवानों का पलायन रोकेगा और उन्हें रोजगार मिलेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यहां कई निजी कम्पनियों ने बिजली बनाने के नाम पर नदियों के उद्गमों को संकट में खड़ा करने हेतु पूरी ताकत झोंक रखी थी और निवेश का लालच देकर समझौता कराने पर आमादा थीं। इसके विरोध में लोग 2003 से जून 2007 तक विभिन्न स्थानों पर जल, जंगल, जमीन बचाने के मुद्दों पर संघर्ष करते रहे। अंततः सन् 2007 में उत्तराखंड के सामाजिक संगठनों को एक साथ इकट्ठा होने का एक ऐतिहासिक मौका भी मिला। इसकी पूर्व तैयारी के लिए उत्तरकाशी में भागीरथी एवं जलकुर घाटी में दो स्थानों पर बैठकें की गई। इसमें सुझाव आया कि नदियों के संकट पर अब राज्य स्तर पर एक व्यापक नदी बचाओ अभियान की आवश्यकता है। दूसरी बैठक 8 जुलाई, 07 को स्व. सरला बहन की पुण्य तिथि पर लक्ष्मी आश्रम कौसानी में हुई। यहां पर नदी बचाओ अभियान की रूप-रेखा बनाई गई। प्रत्येक नदी-घाटी में संयोजक चुने गए।जब समाज और सेवा दो अलग-अलग शब्दों की तरह टूटते हैं तो बीच-बीच खाली जगह से सोशल वर्करों की घुसपैठ होती है। इन्हीं सोशल वर्करों में से तरक्की करके कुछ लोग एनजीओज बनते हैं, फिर इन एनजी.ओज को समाज की बजाए कंप्यूटर की वेबसाइट में ढूंढना पड़ता है।
बूंदों को देखो तो लगता है कि जैसे वे पानी के बीज हों। वर्षा धरती में पानी ही तो बोती है। पहले झले के पानी की एक-एक बूंद को पीकर धरती की गोद हरियाने लगती है। जैसे हरेक बूंद से एक अंकुर फूट रहा हो, जैसे धरती फिर से जी उठी हो। बरसात आते ही वह फूलों, फलों, औषधियों और अन्न को उपजाने के लिए आतुर दिखाई देती है।विकास गतिविधियों के बढ़ने के कारण नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में मौजूद जंगल कम हो रहे हैं। अतिवृष्टि तथा जंगल घटन