नदी जोड़ घातक - मेनका गांधी
भारत की राजनीति और सरकारें अब बाजार की बंधक बन चुकी हैं। खतरा यह है कि हमारी सरकारें जब तक इस बंधन से बाहर निकलेंगी, तब तक काफी देर हो चुकी होगी। भारत की नदियों पर इतने ढांचे बन चुके होंगे... भूगोल से इतनी छेड़छाड़ हो चुकी होगी कि कई पीढ़ियों तक भरपाई संभव नहीं होगी। नदी जोड़ परियोजना से बेहतर तो कम खर्च और स्वावलंबी पानी प्रबंधन की मिसाल बने उफरैखाल, अलवर, महोबा, देवास और स्वयं कच्छ के रण के प्रयोग उनकी प्राथमिकता में क्यों नहीं हैं? हालांकि भाजपा नेता मेनका गांधी ने नदी जोड़ को घातक बताते हुए चुनाव नतीजों से ऐन पहले बयान दिया है कि उन्होंने इस बाबत अटल जी को भी रोका था, लेकिन नदी जोड़ परियोजना को भाजपा के घोषणापत्र में प्राथमिकता पर शामिल किए जाने से भारत सरकार की राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी बांछे निश्चित ही खिली हुई होंगी। वह खुश होगी कि अब कोई रोड़ा नहीं अटकाएगा।विलंब होने से लागत बढ़ेगी; इस बिना पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी एक पूर्व निर्देश अनुकूल है ही। अतः नदी जोड़ परियोजना को एक समयबद्ध कार्यक्रम बनाकर जमीन पर करना ही होगा।
लोकतंत्र के बावजूद कोर्ट और सत्ता ही सुप्रीम है। यही भारतीय लोकतंत्र का वर्तमान स्थिति है। यह सच है। लेकिन राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी तो देश में पानी की समृद्धि लाने के लिए बनी एजेंसी है। पिछले दो दशक में इसके समक्ष नदी जोड़ की अव्यावहारिकता को लेकर जो तर्क रखे गए, उनसे कम से कम इसे तो आशंकित होना चाहिए था। वह इतनी खुश क्यों हैं? नदी जोड़ को जमीन पर उतारने का सपना क्या सचमुच खुश होने की बात है? आइये, जाने।
दो भिन्न समूह के रक्त को मिलाने जैसा खतरनाक नदी जोड़
वैज्ञानिक तथ्य है कि नदियां निर्जीव सड़कें नहीं होती कि उन्हें जहां चाहे जोड़ दिया जाए? प्रत्येक नदी की एक भिन्न जैविकी होती है। भिन्न-भिन्न जैविकी की नदियों को आपस में जोड़ने के नतीजे वैसे ही खतरनाक हो सकते हैं, जैसे ए-ब्लड ग्रुप के खून को बी-ब्लड ग्रुप वाले को चढ़ा देना। नदी को नहर समझने की गलती भी नहीं की जानी चाहिए। नदी जोड़ में प्रस्तावित बांध व विशाल जलाशय पहले ही विवाद व विनाश से जुड़े हुए हैं। विवाद व विनाश को बढ़ाने वालों अनुभवों की बिना पर ही यह परियोजना अभी तक विलंबित रही।
कभी नहीं बनी पूर्ण सहमति
भारत में पहली बार 1956 में तत्कालीन मुख्य अभियंता एन.के. राव द्वारा नदी जोड़ का विचार रखा गया था। उत्तर भारत की गंगा से पटना के निकट 6000 क्यूसेक पानी लेकर दक्षिण की कावेरी को पानी देने का प्रस्ताव था; जो कि नहीं हुआ। 1971 में पायलट कैप्टन दस्तूर ने नदियों के बीच नहरों की माला बनाने की बात की। इसके लिए गठित आयोग ने इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया था।
1980 में पुनः कोशिश हुई। राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी बनाई गई। एजेंसी ने बगैर कोई तकनीकी रिपोर्ट पेश किए... बगैर किसी जनप्रतिनिधि से राय किए 1990 में परियोजना बना डाली। लगभग दो दशक बाद 26 जनवरी. 2002 को तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन ने कहा - “अब भारत कोई बड़े बांध नहीं बनाएगा। क्योंकि सरकार के पास इतना धन नहीं है। केवल पुराने बांधों को पूरा किया जाएगा और टूटफूट पूरी की जाएगी।’’ अचानक रुख बदला।
इसके मात्र साढ़े छह माह बाद राष्ट्रपति पद पर आसीन एक अति प्रतिष्ठित वैज्ञानिक ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने 15 अगस्त, 2002 को राष्ट्र के नाम जारी संदेश में नदी जोड़ को राष्ट्र के लिए लाभदायक और आवश्यक बता दिया। इस पर अमल करते हुए अक्तूबर के पहले पखवाड़े में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल जी ने नदी जोड़ परियोजना लागू करने की घोषणा कर दी। 20 नदी घाटियों में 44 नदियों पर 30 जोड़, 400 बांध, अनेक जलाशय, नहरें और 56000 करोड़ रुपये।
देखिए! मात्र ढाई महीने बाद ही एक जनहित याचिका के जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने काम में तेजी का सुझााव दे भी डाला। इस बीच कार्यदल बना। उसके अध्यक्ष सुरेश प्रभु कुछ कर पाते, उससे पहले जनता ने राजग गठबंधन को रिजेक्ट कर दिया। राजग को विपक्ष में बैठना पड़ा।
केन-बेतवा : लाभार्थी खुद खिलाफ
केन-बेतवा इस परियोजना का पहला जोड़ है। इसके क्षेत्र में आने वाले पन्ना, अजयगढ़, राजनगर पथरिया, दमोह, छतरपुर से लेकर झांसी, बांदा, चित्रकूट धाम तक के जिला पंचायत अध्यक्ष, इंजीनियर, शासन, प्रशासन ने परियोजना को अर्थहीन, नुकसानदेह, अव्यावहारिक बताते हुए विकल्पों की बात की। बावजूद इसके तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उसका उद्घाटन कर आए। राहुल गांधी ने कहा - “परियोजना लाभ से ज्यादा, नुकसान करेगी।’’
यूपीए-एक के जलसंसाधन मंत्री सैफुद्दीन सोज से राज्यों के बीच सहमति के बगैर नहीं होने का बयान देकर परियोजना को लटका दिया। परियोजना में तेजी लाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने फिर एक निर्देश जारी किया।
गौरतलब है कि परियोजना दस्तावेज में इसे राष्ट्रीय एकता बढ़ाने वाली, रोजगारपरक, बिजलीदाता, कुपोषण कम करने में सहायक, ईंधन की खपत में कमी वाला अदि आदि बताया गया है। अटल जी ने इसे दो लक्ष्य सुनिश्चित करने वाला बताया: पहला, नदियों का जल बहकर समुद्र मेें बेकार न जाए और दूसरा यह कि नदी बेसिन का पूरा उपयोग हो।
वह भूल गए कि यदि नदियों का पर्याप्त जल समुद्र में नहीं जाएगा, तो समुद्र के खारेपन के कारण किनारे के इलाकों का जल जहर बन जाएगा। पूरा जलचक्र ही असंतुलित हो जाएगा। कालांतर में इस परियोजना को जलमार्गों के विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण बताया जाने लगा। किंतु इस परियोजना का मूल उद्देश्य आज भी बाढ़ और सुखाड़ से मुक्ति ही बताया जाता है।
सोच का संकट
कोई उन्हें बताए कि बाढ़ गैरजरूरी नहीं। बाढ़ सिर्फ नुकसान पहुुंचाती हो, ऐसा नहीं है। बाढ़ अपने साथ उपजाऊ मिट्टी और मछलियां लाती है। बाढ़ ही नदी और बाढ़ क्षेत्र के जल व मिट्टी का शोधन करती है। बाढ़ के कारण ही आज गंगा का उपजाऊ मैदान है। बंगाल का माछ-भात है। बाढ़ नुकसान नहीं करती है; नुकसान करती है बाढ़ की तीव्रता और टिकाउपन। तटबंध व बांध इस नुकसान को रोकते नहीं, बल्कि और बढ़ाते ही हैं।
नदी प्रवाह मार्ग में बनने वाले जलाशय गाद बढ़ाते हैं। बढ़ती गाद नदी का मार्ग बदलकर नदी को विवश करती है कि वह हर बार नए क्षेत्र को अपना शिकार चुनेे। नया इलाका होने के कारण जलनिकासी में वक्त लगता है। बाढ़ टिकाऊ हो जाती है। पहले तीन दिन टिकने वाली बाढ़ अब पूरे पखवाड़े कहर बरपाती है। नदी को बांधने की कोशिश बाढ़ की तीव्रता बढ़ाने की दोषी हैं। तीव्रता से कटाव व विनाश की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।
पूरा उत्तर बिहार इसका उदाहरण है। नदी जोड़ में प्रस्तावित बांध और जलाशय बाढ़ घटाएंगे या बढ़ाएंगे? कोई बताए। यूं भी जिन नदियों को यह कहकर दूसरी नदियों से जोड़ा जा रहा है, कि उनमें अतिरिक्त पानी है; उनके पानी में लगातार कमी आ रही है। बारिश के दिनों में जब ऊपर की नदियों में अतिरिक्त जल होता है, तब नीचे की नदियों में भी पर्याप्त पानी होता है। जब नीचे पानी की जरूरत होती है, तब ऊपर की नदियों में भी अतिरिक्त जल नहीं होता। गंगा कावेरी के पहले प्रस्ताव में मात्र 150 दिन पानी देने की बात थी। अब तो वह भी संभव नहीं है।
कर्ज बढ़ाएगी, विनाश लाएगी
हकीकत यह है कि यह परियोजना बाढ़-सुखाड़ के समाधान और विकास के तमाम मनगढ़ंत परिणाम लाने नहीं, बल्कि भारत को कचराघर समझकर कचरा बहाने आ रहे उद्योगों के लिए पानी जुटाने, नदी में कचरा बहाना आसान बनाने तथा देश को कर्जदार बनाने आ रही है। पिछले 10 सालों से देश के हर कोने से यही बात समझाने की कोशिश हो रही है। नुकसान के अनुभव के आधार पर सोवियत रूस और स्पेन जैसे देश नदी जोड़ के विचार को सिरे से नकार चुके हैं।
राजग कार्यकाल में नदी जोड़ कार्यदल के तत्कालीन अध्यक्ष रहे सुरेश प्रभु ने 14 मई, 2008 को उदयपुर में दिए एक बयान में स्वयं माना कि नदियों को जोड़ देने मात्र से देश में व्याप्त जल संकट का समाधान नहीं हो सकता। जल संकट हल करने के लिए पानी की हर बूंद का उपयोग करना होगा। अब मेनका गांधी ने इसका विरोध नदियों के भिन्न चरित्र से होने वाले जैविक संकट और भूमि की उपलब्धता की बिना पर किया है।
विकल्प : न मंहगा, न विनाशक
दो राय नहीं कि आकाश से बरसे पानी के बीजों को संजो लेने से अच्छा, सस्ता, स्वावलंबी और टिकाऊ विकल्प कोई और नहीं। प्रश्न यही है कि तमाम उक्तियों और वैज्ञानिक तथ्यों के बावजूद इसके नदी जोड़ परियोजना हमारी सरकारों के एजेंडे में आज भी क्यों बनी हुई है?
जनाकांक्षाओं का सैलाब ओढ़कर सामने आए श्री नरेन्द्र मोदी के एजेंडे में भी नदी जोड़ ही क्यों दिखाई दे रहा है? कम खर्च और स्वावलंबी पानी प्रबंधन की मिसाल बने उफरैखाल, अलवर, महोबा, देवास और स्वयं कच्छ के रण के प्रयोग उनकी प्राथमिकता में क्यों नहीं हैं? वह मानने को क्यों तैयार नहीं है कि ‘रिवर फ्रंट डेवलपमेंट’ का साबरमती प्रयोग नदी को नदी की परिभाषा से दूर ले जाता है; या वह ये सब जानते हुए भी मानना नहीं चाहते?
यदि यही सच है तो मान लेना चाहिए कि भारत की राजनीति और सरकारें अब बाजार की बंधक बन चुकी हैं। खतरा यह है कि हमारी सरकारें जब तक इस बंधन से बाहर निकलेंगी, तब तक काफी देर हो चुकी होगी। भारत की नदियों पर इतने ढांचे बन चुके होंगे... भूगोल से इतनी छेड़छाड़ हो चुकी होगी कि कई पीढ़ियों तक भरपाई संभव नहीं होगी। इसलिए जरूरी है कि जिस राष्ट्रवाद को आगे रखकर बहुमत वोटर ने इस चुनाव में राजग गठबंधन को आगे रखा है, उसी राष्ट्रवाद की रक्षा के लिए जरूरी है कि वे सभी नदी जोड़ परियोजना के विरोध में आगे आएं।
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