बाढ़ और सुखाड़ की समस्या के समाधान और शहरों तक पर्याप्त मात्रा में पानी पहुंचाने के नाम पर नदियों की परियोजना का ताना-बाना पिछले कई दशकों से बुना जा रहा है। पिछले दिनों इस दिशा में पहली कामयाबी तब मिली, जब मध्य प्रदेश में नर्मदा और क्षिप्रा नदियों को जोड़ने का काम पूरा कर लिया गया। हालांकि पर्यावरणविद् शुरू से ही नदियों को आपस में जोड़ने या उसके प्राकृतिक बहाव में किसी तरह के कृत्रिम व्यवधान को भविष्य के लिहाज से बेहद खतरनाक मान रहे हैं। क्या है नदियों को जोड़ने की परियोजना का इतिहास और वर्तमान तथा क्या हैं इसके नफा-नुकसान, इसी पर नजर डाल रहा है आज का नालेज...
बिल्कुल संक्षेप में यह समझ लेना चाहिए कि प्रकृति नदी बनाती है, बहाती है और कभी-कभी जरूरत पड़ने पर कुछ लाख सालों की तपस्या करके जरूरत पड़ने पर उनको मिलाती भी है। उनको जोड़ती भी है। कृतज्ञ समाज ऐसी दो नदियों के जुड़ने वाली जगह को संगम की तरह, तीर्थ की तरह देखता है। क्या हमारी इस नई योजना से जो स्थल सामने आएंगे, वे ऐसे संगम बन पाएंगे। जीवनदायी नर्मदा का जल आखिरकार मोक्षदायिनी क्षिप्रा नदी में प्रवाहित हो गया। नर्मदा-क्षिप्रा जोड़ परियोजना का सफल क्रियान्वयन राष्ट्रीय नदी जोड़ो परिकल्पना की एक छोटी, किंतु बेहद अहम कड़ी है और भविष्य की बड़ी नदी जोड़ो परियोजनाओं के लिहाज से एक मिसाल भी है। इस बहुप्रतिक्षित और महत्वाकांक्षी परियोजना को मध्य प्रदेश में तय अवधि में पूरा किया गया है। इन नदियों के जुड़ने के बाद मध्य प्रदेश देश का ऐसा पहला राज्य बन गया है, जिसने नदियों को जोड़ने का ऐतिहासिक काम किया है। दरअसल, इस राज्य में जल की बहुलता होने के बावजूद लोगों को जल संकट का सामना करना पड़ता है। हालांकि देश की प्रमुख नदियों को आपस में जोड़ने की परियोजनाएं फिलहाल केंद्र सरकार के ठंडे बस्ते में है, लेकिन मध्य प्रदेश सरकार ने केंद्र की सहायता के बिना अपने ही बूते दो नदियों को जोड़ने का काम पूरा कर लिया है। 432 करोड़ रुपए की इस परियोजना को ‘नर्मदा-क्षिप्रा सिंहस्थ जोड़ उद्वहन परियोजना’ नाम दिया गया है।
नर्मदा देश की पांचवीं सबसे बड़ी नदी होने के साथ मध्य प्रदेश की जीवन-रेखा मानी जाती है। मध्य प्रदेश से निकल कर महाराष्ट्र और गुजरात में बहने वाली नर्मदा तो बारहमासी नदी है ही, लेकिन अब नर्मदा का पानी क्षिप्रा में प्रवाहित हो जाने से यह भी सदानीरा बन जाएगी। मध्य प्रदेश में इंदौर जिले के क्षिप्रा कुंड से निकलने वाली क्षिप्रा देवास, उज्जैन, रतलाम व मंदसौर जिलों से बहती हुई चंबल नदी में मिल जाती है।
प्राकृतिक रूप से क्षिप्रा बारिश का मौसम खत्म होने के तकरीबन छह माह बाद ही सूख जाती थी, जबकि प्रत्येक 12 वर्षों के अंतराल पर इसी नदी के किनारे उज्जैन में ‘कुंभ’ लगता है। कुंभ में यहां आने वाले देश-दुनिया के करोड़ों श्रद्धालु क्षिप्रा में डुबकी लगा कर पुण्य-लाभ कमाने के साथ मोक्ष का मार्ग भी प्रशस्त करते हैं। इसीलिए इसे मोक्षदायिनी नदी कहा जाता है। किंतु क्षिप्रा में पर्याप्त निर्मल जल का अभाव रहता था। लफूंदर नदी पर बने गंभीर बांध से पानी लाकर क्षिप्रा मे भरा जाता था, जो प्रवाहित न रहने के चलते जल्दी ही गंदा और प्रदूषित हो जाता था। लेकिन अब उम्मीद की जा रही है कि वर्ष 2016 में लगने वाले कुंभ में श्रद्धालुओं को क्षिप्रा की बहती जलधारा में स्नान करने का मौका मिलेगा। इतना ही नहीं, जलसंकट से जूझ रहे मालवा अंचल के देवास और उज्जैन जिलों की पेयजल समस्या का समाधान होगा। भूजल स्तर बढ़ेगा और 70 नगरों तथा तीन हजार गांवों के लोगों को इस जल का सीधा लाभ मिलेगा। हालांकि इस जल का सिंचाई के लिए उपयोग करने पर प्रतिबंध है। नदियों को जोड़ने की यह परिकल्पना खंडवा जिले में नर्मदा नदी पर बने ओंकारेश्वर बांध के पूरे हो जाने से संभव हुई है। बांध में पर्याप्त पानी है। बांध की नहर से पांच मिलियन क्यूबिक मीटर पानी लिफ्ट करके सिसलिया तालाब में डाला गया। इसे फिर तीन चरणों में बूस्टर पंप से लिफ्ट करके पाइप लाइन के जरिए करीब 50 किलोमीटर दूर इंदौर जिले के उज्जैयिनी गांव के जिजालवंती नाले में डाला गया। इस नाले के माध्यम से नर्मदा का जल क्षिप्रा मे प्रवाहित होकर इसे सालभर सदानीरा बनाए रखेगा।
देश की विभिन्न नदियों को जोड़ने का सपना देश की आजादी के तुरंत बाद देखा गया था। इसे डॉ. मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया, डॉ. राममनोहर लोहिया और डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम जैसी हस्तियों का समर्थन मिलता रहा है। हालांकि, आजादी से पूर्व भारत में नदियों को जोड़ने की पहली पहल ऑर्थर कॉटन ने बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में की थी। लेकिन इस माध्यम से फिरंगी हुकूमत का मकसद देश में गुलामी के शिकंजे को और मजबूत करने के साथ देश की बहुमूल्य प्राकृतिक संपदा का दोहन था, क्योंकि उस समय भारत में सड़कों और रेल-मार्गों की संरचना अपने पहले चरण में थी, इसलिए अंग्रेज नदियों को जोड़कर जल-मार्ग विकसित करना चाहते थे।
हालांकि आजादी के बाद 1971-72 में तत्कालीन केंद्रीय जल एवं ऊर्जा मंत्री तथा इंजीनियर डॉ. कनूरी लक्ष्मण राव ने गंगा कावेरी को जोड़ने का प्रस्ताव भी तैयार किया था। दरअसल, राव खुद जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री औरर इंदिरा गांधी कि सरकारों में जल संसाधन मंत्री भी रहे। लेकिन जिन सरकारों में राव मंत्री रहे, उन सरकारों ने इस महत्वाकांक्षी प्रस्ताव को कभी गंभीरता से नहीं लिया, अन्यथा चालीस साल पहले ही नदी जोड़ो अभियान की बुनियाद रखी जा चुकी होती। राव के इस प्रस्ताव से प्रभावित होकर प्रख्यात तमिल कवि सुब्रह्म्ण्यम भारती ने भी अपनी कविताओं में कामना की थी कि उत्तर भारत की पवित्र नदियों की अटूट जलराशि दक्षिण की शुष्क भूमि के लिए वरदान बने?
आखिरकार, पहली बार अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार में इस योजना को मूर्त रूप देने की योनजा बनाई गई। हालांकि, एक कार्यबल गठित किए जाने के सिवा वाजपेयी भी इस योजना का क्रियान्वयन नहीं करा सके। दरअसल, इस योजना के औचित्य पर इतने सवाल कड़े कर दिए गए कि इसे शुरू कर पाना संभव ही नहीं हो पाया। खासकर पर्यावरणविद नदियों के प्राकृतिक बहाव मे किसी भी तरह के कृत्रिम हस्तक्षेप के खिलाफ थे। इसके साथ ही, इस योजना के अमल में बड़ी मात्रा मे धन जुटाने और भूमि अधिग्रहण जैसी चुनौतियां भी सामने आईं। इन्हीं विवादों के क्रम में यह योजना उच्चतम न्यायालय में विवाद के हल के लिए पहुंचा दी गई। आखिरकार, 28 फरवरी, 2012 को न्यायालय ने सरकार को नदी जोड़ो परियोजना को चरणबद्ध तरीके से अमल मे लाने की हरी झंडी दे दी। इस बाधा के दूर होने पर नर्मदा और क्षिप्रा को जोड़ने की इच्छाशक्ति शिवराज सिंह चौहान ने दिखाई और उन्होंने तय समय-सीमा मे दो नदियों को जोड़ने के काम को अंजाम तक पहुंचा दिया। अगली बारी अब केन और बेतवा नदियों को जोड़ने की है। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के भूगोल में बहने वाली इन नदियों को जोड़ने पर सहमति दोनों प्रदेशों के बीच बन भी चुकी है। लगता है अब नदियों को जोड़ने का सिलसिला अनवरत बना रहेगा।
अनुपम मिश्र
यह सचमुच बहुत पुरानी योजना है। ऐसी योजना जो समय-समय पर ऊपर आकर तैरती है और फिर न जाने किन कारणों से डूब भी जाती है। थोड़ा पीछे लौटें तो नेहरूजी के समय से देश की नदियों को इस कोने से उस कोने तक जोड़ कर एक आदर्श जलमाला भारतमाता को पहनाने की कल्पना की गई थी।
उनका एकछत्र राज था। इसलिए ऐसा मान सकते हैं कि यदि तब नदी जोड़ो योजना नहीं बन पाई, तो उसके पीछे कारण सशक्त विरोध नहीं रहा होगा, बल्कि इस योजना की अव्यवहारिकता कारण बनी होगी।
फिर एनडीए के समय में नदी जोड़ो की यह योजना फिर से सामने आई। कुछ लाख-करोड़ का बजट भी निर्धारित हो गया और श्री सुरेश प्रभु जैसे अनुभवी व्यक्ति को इस काम का प्रभारी भी बना दिया गया था।
एक बार फिर याद करें कि शासन था एनडीए। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सत्तारूढ़ घटक तो इसके पक्ष में था ही, विरोधी दल के सदस्य सोनिया गांधी समेत अन्य विरोधी दल भी इसके पक्ष में थे। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उस समय देश की सबसे बड़ी अदालत भी इस योजना को तुरत-फुरत पूरा हुआ देखना चाहती थी। लेकिन वह योजना तब भी प्रारंभ नहीं हो पाई।
अब मध्य प्रदेश के एक हिस्से में इसका नारियल फोड़ा गया है और श्रेय के टुकड़े भी आपस में बांटे जा रहे हैं। सूखी नदी क्षिप्रा में पानी होगा और एक बड़े क्षेत्र का भूजल स्तर ऊपर उठ जाएगा। जैसे आश्वासन और विज्ञापन छप रहे हों। इन सबके बीच किसी को फुरसत नहीं है यह सोचने की कि एक अच्छी खासी बहती नदी सूखी कैसे और एक बड़े भूभाग में जहां खूब अच्छी बारिश होती हो, वहां का भूजल कैसे सूख गया?
बिल्कुल संक्षेप में यह समझ लेना चाहिए कि प्रकृति नदी बनाती है, बहाती है और कभी-कभी जरूरत पड़ने पर कुछ लाख सालों की तपस्या करके जरूरत पड़ने पर उनको मिलाती भी है। उनको जोड़ती भी है।
कृतज्ञ समाज ऐसी दो नदियों के जुड़ने वाली जगह को संगम की तरह, तीर्थ की तरह देखता है। क्या हमारी इस नई योजना से जो स्थल सामने आएंगे, वे ऐसे संगम बन पाएंगे।
प्रस्तुति कन्हैया झा
1. 37 नदियों को जोड़ने की योजना बनाई गई है।
2. 31 लिंक बनाए जाएंगे देशभर में नदियों के।
3. 140 अरब डॉलर रकम खर्च होने का सरकारी अनुमान है इस परियोजना पर।
4. 7 प्रमुख नदियों को शामिल किया गया है इस परियोजना में।
5. 432 करोड़ रुपए की परियोजना है नर्मदा-क्षिप्रा सिंहस्थ जोड़ उद्वहन परियोजना, जिसे नदी जोड़ परियोजना का आरंभ माना जा रहा है।
6. 9000 किमी लंबी नहरें बनाई जाएंगी इस परियोजना के तहत विभिन्न नदियों को जोड़ने के लिए।
7. 4000 अरब क्यूबिक मीटर वार्षिक तौर पर औसत बारिश की दर है भारत में।
बिल्कुल संक्षेप में यह समझ लेना चाहिए कि प्रकृति नदी बनाती है, बहाती है और कभी-कभी जरूरत पड़ने पर कुछ लाख सालों की तपस्या करके जरूरत पड़ने पर उनको मिलाती भी है। उनको जोड़ती भी है। कृतज्ञ समाज ऐसी दो नदियों के जुड़ने वाली जगह को संगम की तरह, तीर्थ की तरह देखता है। क्या हमारी इस नई योजना से जो स्थल सामने आएंगे, वे ऐसे संगम बन पाएंगे। जीवनदायी नर्मदा का जल आखिरकार मोक्षदायिनी क्षिप्रा नदी में प्रवाहित हो गया। नर्मदा-क्षिप्रा जोड़ परियोजना का सफल क्रियान्वयन राष्ट्रीय नदी जोड़ो परिकल्पना की एक छोटी, किंतु बेहद अहम कड़ी है और भविष्य की बड़ी नदी जोड़ो परियोजनाओं के लिहाज से एक मिसाल भी है। इस बहुप्रतिक्षित और महत्वाकांक्षी परियोजना को मध्य प्रदेश में तय अवधि में पूरा किया गया है। इन नदियों के जुड़ने के बाद मध्य प्रदेश देश का ऐसा पहला राज्य बन गया है, जिसने नदियों को जोड़ने का ऐतिहासिक काम किया है। दरअसल, इस राज्य में जल की बहुलता होने के बावजूद लोगों को जल संकट का सामना करना पड़ता है। हालांकि देश की प्रमुख नदियों को आपस में जोड़ने की परियोजनाएं फिलहाल केंद्र सरकार के ठंडे बस्ते में है, लेकिन मध्य प्रदेश सरकार ने केंद्र की सहायता के बिना अपने ही बूते दो नदियों को जोड़ने का काम पूरा कर लिया है। 432 करोड़ रुपए की इस परियोजना को ‘नर्मदा-क्षिप्रा सिंहस्थ जोड़ उद्वहन परियोजना’ नाम दिया गया है।
नर्मदा देश की पांचवीं सबसे बड़ी नदी होने के साथ मध्य प्रदेश की जीवन-रेखा मानी जाती है। मध्य प्रदेश से निकल कर महाराष्ट्र और गुजरात में बहने वाली नर्मदा तो बारहमासी नदी है ही, लेकिन अब नर्मदा का पानी क्षिप्रा में प्रवाहित हो जाने से यह भी सदानीरा बन जाएगी। मध्य प्रदेश में इंदौर जिले के क्षिप्रा कुंड से निकलने वाली क्षिप्रा देवास, उज्जैन, रतलाम व मंदसौर जिलों से बहती हुई चंबल नदी में मिल जाती है।
कुंभ में पर्याप्त पानी
प्राकृतिक रूप से क्षिप्रा बारिश का मौसम खत्म होने के तकरीबन छह माह बाद ही सूख जाती थी, जबकि प्रत्येक 12 वर्षों के अंतराल पर इसी नदी के किनारे उज्जैन में ‘कुंभ’ लगता है। कुंभ में यहां आने वाले देश-दुनिया के करोड़ों श्रद्धालु क्षिप्रा में डुबकी लगा कर पुण्य-लाभ कमाने के साथ मोक्ष का मार्ग भी प्रशस्त करते हैं। इसीलिए इसे मोक्षदायिनी नदी कहा जाता है। किंतु क्षिप्रा में पर्याप्त निर्मल जल का अभाव रहता था। लफूंदर नदी पर बने गंभीर बांध से पानी लाकर क्षिप्रा मे भरा जाता था, जो प्रवाहित न रहने के चलते जल्दी ही गंदा और प्रदूषित हो जाता था। लेकिन अब उम्मीद की जा रही है कि वर्ष 2016 में लगने वाले कुंभ में श्रद्धालुओं को क्षिप्रा की बहती जलधारा में स्नान करने का मौका मिलेगा। इतना ही नहीं, जलसंकट से जूझ रहे मालवा अंचल के देवास और उज्जैन जिलों की पेयजल समस्या का समाधान होगा। भूजल स्तर बढ़ेगा और 70 नगरों तथा तीन हजार गांवों के लोगों को इस जल का सीधा लाभ मिलेगा। हालांकि इस जल का सिंचाई के लिए उपयोग करने पर प्रतिबंध है। नदियों को जोड़ने की यह परिकल्पना खंडवा जिले में नर्मदा नदी पर बने ओंकारेश्वर बांध के पूरे हो जाने से संभव हुई है। बांध में पर्याप्त पानी है। बांध की नहर से पांच मिलियन क्यूबिक मीटर पानी लिफ्ट करके सिसलिया तालाब में डाला गया। इसे फिर तीन चरणों में बूस्टर पंप से लिफ्ट करके पाइप लाइन के जरिए करीब 50 किलोमीटर दूर इंदौर जिले के उज्जैयिनी गांव के जिजालवंती नाले में डाला गया। इस नाले के माध्यम से नर्मदा का जल क्षिप्रा मे प्रवाहित होकर इसे सालभर सदानीरा बनाए रखेगा।
नदियों को जोड़ने की परियोजना का इतिहास
देश की विभिन्न नदियों को जोड़ने का सपना देश की आजादी के तुरंत बाद देखा गया था। इसे डॉ. मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया, डॉ. राममनोहर लोहिया और डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम जैसी हस्तियों का समर्थन मिलता रहा है। हालांकि, आजादी से पूर्व भारत में नदियों को जोड़ने की पहली पहल ऑर्थर कॉटन ने बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में की थी। लेकिन इस माध्यम से फिरंगी हुकूमत का मकसद देश में गुलामी के शिकंजे को और मजबूत करने के साथ देश की बहुमूल्य प्राकृतिक संपदा का दोहन था, क्योंकि उस समय भारत में सड़कों और रेल-मार्गों की संरचना अपने पहले चरण में थी, इसलिए अंग्रेज नदियों को जोड़कर जल-मार्ग विकसित करना चाहते थे।
हालांकि आजादी के बाद 1971-72 में तत्कालीन केंद्रीय जल एवं ऊर्जा मंत्री तथा इंजीनियर डॉ. कनूरी लक्ष्मण राव ने गंगा कावेरी को जोड़ने का प्रस्ताव भी तैयार किया था। दरअसल, राव खुद जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री औरर इंदिरा गांधी कि सरकारों में जल संसाधन मंत्री भी रहे। लेकिन जिन सरकारों में राव मंत्री रहे, उन सरकारों ने इस महत्वाकांक्षी प्रस्ताव को कभी गंभीरता से नहीं लिया, अन्यथा चालीस साल पहले ही नदी जोड़ो अभियान की बुनियाद रखी जा चुकी होती। राव के इस प्रस्ताव से प्रभावित होकर प्रख्यात तमिल कवि सुब्रह्म्ण्यम भारती ने भी अपनी कविताओं में कामना की थी कि उत्तर भारत की पवित्र नदियों की अटूट जलराशि दक्षिण की शुष्क भूमि के लिए वरदान बने?
वाजपेयी सरकार में कार्यबल का गठन
आखिरकार, पहली बार अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार में इस योजना को मूर्त रूप देने की योनजा बनाई गई। हालांकि, एक कार्यबल गठित किए जाने के सिवा वाजपेयी भी इस योजना का क्रियान्वयन नहीं करा सके। दरअसल, इस योजना के औचित्य पर इतने सवाल कड़े कर दिए गए कि इसे शुरू कर पाना संभव ही नहीं हो पाया। खासकर पर्यावरणविद नदियों के प्राकृतिक बहाव मे किसी भी तरह के कृत्रिम हस्तक्षेप के खिलाफ थे। इसके साथ ही, इस योजना के अमल में बड़ी मात्रा मे धन जुटाने और भूमि अधिग्रहण जैसी चुनौतियां भी सामने आईं। इन्हीं विवादों के क्रम में यह योजना उच्चतम न्यायालय में विवाद के हल के लिए पहुंचा दी गई। आखिरकार, 28 फरवरी, 2012 को न्यायालय ने सरकार को नदी जोड़ो परियोजना को चरणबद्ध तरीके से अमल मे लाने की हरी झंडी दे दी। इस बाधा के दूर होने पर नर्मदा और क्षिप्रा को जोड़ने की इच्छाशक्ति शिवराज सिंह चौहान ने दिखाई और उन्होंने तय समय-सीमा मे दो नदियों को जोड़ने के काम को अंजाम तक पहुंचा दिया। अगली बारी अब केन और बेतवा नदियों को जोड़ने की है। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के भूगोल में बहने वाली इन नदियों को जोड़ने पर सहमति दोनों प्रदेशों के बीच बन भी चुकी है। लगता है अब नदियों को जोड़ने का सिलसिला अनवरत बना रहेगा।
नदियों को बचाने की है जरूरत
अनुपम मिश्र
यह सचमुच बहुत पुरानी योजना है। ऐसी योजना जो समय-समय पर ऊपर आकर तैरती है और फिर न जाने किन कारणों से डूब भी जाती है। थोड़ा पीछे लौटें तो नेहरूजी के समय से देश की नदियों को इस कोने से उस कोने तक जोड़ कर एक आदर्श जलमाला भारतमाता को पहनाने की कल्पना की गई थी।
उनका एकछत्र राज था। इसलिए ऐसा मान सकते हैं कि यदि तब नदी जोड़ो योजना नहीं बन पाई, तो उसके पीछे कारण सशक्त विरोध नहीं रहा होगा, बल्कि इस योजना की अव्यवहारिकता कारण बनी होगी।
फिर एनडीए के समय में नदी जोड़ो की यह योजना फिर से सामने आई। कुछ लाख-करोड़ का बजट भी निर्धारित हो गया और श्री सुरेश प्रभु जैसे अनुभवी व्यक्ति को इस काम का प्रभारी भी बना दिया गया था।
एक बार फिर याद करें कि शासन था एनडीए। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सत्तारूढ़ घटक तो इसके पक्ष में था ही, विरोधी दल के सदस्य सोनिया गांधी समेत अन्य विरोधी दल भी इसके पक्ष में थे। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उस समय देश की सबसे बड़ी अदालत भी इस योजना को तुरत-फुरत पूरा हुआ देखना चाहती थी। लेकिन वह योजना तब भी प्रारंभ नहीं हो पाई।
अब मध्य प्रदेश के एक हिस्से में इसका नारियल फोड़ा गया है और श्रेय के टुकड़े भी आपस में बांटे जा रहे हैं। सूखी नदी क्षिप्रा में पानी होगा और एक बड़े क्षेत्र का भूजल स्तर ऊपर उठ जाएगा। जैसे आश्वासन और विज्ञापन छप रहे हों। इन सबके बीच किसी को फुरसत नहीं है यह सोचने की कि एक अच्छी खासी बहती नदी सूखी कैसे और एक बड़े भूभाग में जहां खूब अच्छी बारिश होती हो, वहां का भूजल कैसे सूख गया?
बिल्कुल संक्षेप में यह समझ लेना चाहिए कि प्रकृति नदी बनाती है, बहाती है और कभी-कभी जरूरत पड़ने पर कुछ लाख सालों की तपस्या करके जरूरत पड़ने पर उनको मिलाती भी है। उनको जोड़ती भी है।
कृतज्ञ समाज ऐसी दो नदियों के जुड़ने वाली जगह को संगम की तरह, तीर्थ की तरह देखता है। क्या हमारी इस नई योजना से जो स्थल सामने आएंगे, वे ऐसे संगम बन पाएंगे।
प्रस्तुति कन्हैया झा
1. 37 नदियों को जोड़ने की योजना बनाई गई है।
2. 31 लिंक बनाए जाएंगे देशभर में नदियों के।
3. 140 अरब डॉलर रकम खर्च होने का सरकारी अनुमान है इस परियोजना पर।
4. 7 प्रमुख नदियों को शामिल किया गया है इस परियोजना में।
5. 432 करोड़ रुपए की परियोजना है नर्मदा-क्षिप्रा सिंहस्थ जोड़ उद्वहन परियोजना, जिसे नदी जोड़ परियोजना का आरंभ माना जा रहा है।
6. 9000 किमी लंबी नहरें बनाई जाएंगी इस परियोजना के तहत विभिन्न नदियों को जोड़ने के लिए।
7. 4000 अरब क्यूबिक मीटर वार्षिक तौर पर औसत बारिश की दर है भारत में।
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