महाकुंभ (1953)
क्षितिज नील, तदुपरि बैंगनी, और फिर नीला,
महाकाश को घेरे जाड़े की घनमाला,
गंगा बीचोंबीच, पार झूसी का टीला,
सम्मुख कुंभनगर दिन का साँवला उजाला,
आड़ी सीधी, टेढ़ी राजमार्ग की माला
पहने हुए बस्तियाँ क्रम से चली गई हैं,
तंबू, कुरिया, टाट-चटाई-टीनों वाला
आट-ठाट छाजन का, एकाकार कई हैं,
भिन्न कई हैं, अपनी-अपनी चाल गई हैं,
साज-बाज दिखलाती हुई नवीन बस्तियाँ,
नर-नारी की धाराएँ आनंदमयी हैं,
और कहाँ वह चुहल, यह लहर और मस्तियाँ,
जहाँ श्वेत चमकीले बादल जैसा रेता
था, अब वहाँ ध्यान-लोचन दर्शक है देता
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