पुस्तकें और पुस्तक समीक्षा

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सरिता के प्रति
Posted on 06 Dec, 2013 10:31 AM सजनि! कहां से बही आ रही, चली किधर किस ओर?
किसके लिए मची है हिय में, यह व्याकुलता घोर?

अगणित हृदयों में छेड़ी है मूक व्यथा अनजान,
कितने ही सूनेपन का, कर डाला है अवसान।

बिछा प्रकृति का अंचल सुंदर तेरा स्वागत सार,
चूम-चूमकर वृक्ष झूमते, ले-ले निज उपहार।

सतत तुम्हारे मन-रंजन को विहग करें कल्लोल,
तुझे हंसाने को ही निशि-दिन बोलें मीठे बोल!
दृश्य और भाव
Posted on 06 Dec, 2013 10:29 AM आकाश
उतना ही नीला
जितना आंखों का उस पर
भरोसा
नीला

सूरज
उतना ही पीला
जितना पुतलियों में
दीप्ति का रंग
पीला

नदी का पानी
उतना ही गीला
जितना तरल होने का संस्कार
पानी को करता गीला।

भाषा का जल
Posted on 05 Dec, 2013 11:07 AM भाषा के जल की नदी है
जैसे यह जल है भाषा का
जैसे भाषा ही जल है
जैसे कबीर का कूप है कहीं आसपास
जैसे कूप में जल नहीं
भाषा है कबीर की

इस नदी में नाव है एक
इस तरह इस नदी में
जल के अलावा भी कुछ है
इस तरह नदी के जल को
सहूलियत से बरतने के लिए
भाषा पतवार है

जल की भाषा नाव की भाषा से अलग है
कविता के बीच
Posted on 05 Dec, 2013 11:02 AM हमेशा बहती रहती है
मेरे अंदर यह नदी
जैसे धमनियों के अंदर
बहता है खून मुझे जिंदा किए हुए
मेरे अंदर उसी तरह
रहता है मेरा गांव व
लहलहाते खेत, खलिहान,
मस्त हवा में झूमते पेड़
जैसे जीवन के आखिरी पलों तक
रहती है मां की याद और
मेरे बाद भी यह नदी
यह बलुहे तट
यह मझधार में तैरती
नावों पर गूंजता मांझी गीत और
बंसी की डोर से कसे
अनंत दीप
Posted on 05 Dec, 2013 10:55 AM हिमालय पिघल के
उतर आया
सागर से मिलने को आतुर

पृथ्वी के वक्ष से
बह रही गंगा

यह कैसी संध्या है!
घुल रहे जलधार में
आरती के मंत्र
ठहर गया हवा में
अंतस का संगीत

उतर आया
एक उत्सव घाट पर
गंगा से आ लिपटी
आकाशगंगा
पृथ्वी की गोद में
जल की लहरों पर
उर में अग्नि लिए
प्रकंपमान जगत्प्राण में
सलापड़
Posted on 05 Dec, 2013 10:53 AM पर कटे पर्वत का
बींधकर उदर
पानी से पानी मिला
घाटी से घाटी

मानसरोवर में जा डूबा
व्यास-कुंड
शतद्रु से जा गले मिली
वत्सला विपाशा

मस्तिष्क के विस्तार में
आदमी के हाथों ने
भविष्य के लिए रचा है
एक और पुराण।

5 नवंबर, 1999, मंडी से मनाली जाते हुए

पण्डोह
Posted on 05 Dec, 2013 10:52 AM विकास बुद्धि ने
रोक दिया
छलछलाती निरंतर बहती
नील-श्वेत नदी का रास्ता

बीच में ही टोक दिया
जल का राग

पृथ्वी की धमनी में
जम गया रक्त का थक्का

पाशबद्ध है
मुनि वशिष्ठ की विपाशा

क्रोध में कांप रही।
गहरी हरी झील।

एक निर्जन नदी के किनारे
Posted on 05 Dec, 2013 10:50 AM मैं जानता हूं
तुम कुछ नहीं सोचती मेरे बारे में
तुम्हारी एक अलग दुनिया है
जादुई रंगों और
करिश्माई बांसुरियों की

एक सुनसान द्वीप पर अकेले तुम
आवाज देती हो
जल-पक्षियों को
एक निर्जन नदी के किनारे में
कभी अंजलि भरता हूं
बहते पानी से
कभी बालू पर लिखता हूं वे अक्षर
जिनसे तुम्हारा नाम बनता है

जमा होती गई हैं मुझमें
सूखी नदियों के पाट
Posted on 05 Dec, 2013 10:48 AM सूखी नदियों के पाटों का रंग
चलो दिखाऊं गर हिम्मत है तो
आकार केवल आकार
नदियों का नाम उन्हें फिर भी मिला हुआ
रेत हमारे सीने तक आ जाती है
यह है नदी का रास्ता
यह सूखापन भी जाता है आरंभ तक अंत तक
पंछी उन्हें पार करता है और मन में
हूक उठती है
एक कल्पना जो अतृप्त रहेगी की चले चलें
इसके साथ-साथ
और ध्यान देने पर यह बात उभरती आती है
नदी नहीं था मैं
Posted on 05 Dec, 2013 10:46 AM मैं धूप था मैं बारिश
नदी नहीं था मैं
मुझे बुहत दुःख था

पहाड़ था मैं
पहाड़ का पेड़ था
पहाड़ के चरागाह
रेवड़
निर्भ्रांत आकाश
नदी नहीं था पर
दुःख था बहुत दुःख था

गड़रिया था
पत्ते चरती बकरी था
मधु ढूंढता भ्रमर था
तिनके से उलझा पंछी था
पहाड़ का ढहा कगार था
पहाड़ का प्यार था

बहुत कुछ था
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