पुस्तकें और पुस्तक समीक्षा

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दुनिया कुछ ठीक-सी
Posted on 17 Feb, 2015 04:30 PM अब एक दिन क्या
थोड़-सा समय भी नहीं होता
जब दुनिया कुछ ठीक-सी लगे
सुबह उठो तो हरियाली में चहकती चिड़ियां
और हलकी ठंडी हवा में कांपती पत्तियां
सुन्दर तो लगती हैं
पर यह यकीन नहीं दिला पातीं
कि सब ठीक चल रहा है
कहने को यह उनका काम भी नहीं है

सुबह-सुबह रेडियो पर आती है भजनावली
या कि गुजरी तोड़ी या अहीर भैरव की सुरलहरियां
जनपद का वृक्ष
Posted on 17 Feb, 2015 01:40 PM नहीं सुखा पाओगे मुझको
ओ सप्त अश्वधारी भगवान भास्कर
सजल स्रोत जीवन से
गुंथी हुई है
धरती में
जड़ मेरी

झेल चुका हूं
घोर अकाल
वर्षा का अभाव
पूरे जनपद पर मेरे
ग्रीष्म ताप
तेज जलाती किरणें पैनी

तुमने जाना अपने को
रश्मिरथी सम्राट
प्रभु सता का

संकेतों पर चलने वाले
धनपतियों के रक्षक
तैलचित्र का स्रोत
Posted on 17 Feb, 2015 01:28 PM उसके मटमैले गालों पर
ऊपर से नीचे उतरतीं
मोटी-मोटी टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएं
देख रहे हैं आप
वह नहीं हैं वाटर पेंटिंग
और न हैं वे भित्तिचित्र
उसकी खुशहाली के
नहीं हैं निशान वे
किसी उत्सव के
समाज के आखिरी आदमी का सच
बतातीं वे रेखाएं
बनी हैं उसकी आंखों से
ढलकते आंसुओं से

उसके नंगे धुरियाये पेट पर
देख रहे हैं आप जो चकत्ते
कैसे मुमकिन है
Posted on 17 Feb, 2015 01:08 PM कैसे मुमकिन है कि
मेघ इकबारगी छट जाएं
या इकदम से
टूट कर बरस जाएं
मूसलाधार बारिश का पानी
सैलाब में
तब्दील हो जाये

और थोड़े-से
पुख्ता मकानों को छोड़कर
गाँव के बेशतर
कमजोर नीव के ढाँचे
जमींदोज हो जाएं
फसलें मुर्झा जाएं

और
रेतीली जमीन पर
पसरी आबादियां
मौत की नींद सो जाएं
पानी
Posted on 30 Jan, 2015 01:33 PM जलपानी है धरती का जीवन, जीव-जीव को अमृत पानी,
इसका कोई रंग नहीं है, पर इस जग की रंगत पानी।

चट्टानों से लड़कर बढ़ती जिजीविषा की धारा पानी,
नदियाँ
Posted on 30 Jan, 2015 01:31 PM नदीझर-झर झरने, फिर लहरें कल-कल नदियाँ,
बस्ती-बस्ती बाँटें, अमृत-जल नदियाँ।

क्या पाकर, गम्भीर-गहन हो जाती हैं,
बचपन की सोतों जैसी, चंचल नदियाँ।
पानीदार समाज
Posted on 24 Jan, 2015 12:05 PM

भारत का बड़ा हिस्सा पानी के मामले में दूभर माना जाता है। विशेष रूप से राजस्थान, गुजरात का सौराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश का रायलसीमा, महाराष्ट्र का मराठवाड़ा, मध्य प्रदेश का बुन्देलखण्ड, कनार्टक का कुर्ग क्षेत्र लगभग प्रत्येक तीन वर्ष में एक बार अल्प वर्षा व चार वर्ष में एक बार अति वर्षा से जूझता है।

book cover
मैं गंगा क्यों मैली हूँ
Posted on 20 Jan, 2015 10:03 AM हूँ पतित पावनी,जीवन दायी
मैं गंगा क्यों मैली हूँ
तट मेरे सजते कालजयी पर्वोत्सव से
स्वयं क्यों क्षीणा हूँ
कल मैं अपनी लहरों के संग
खूब किल्लोलें करती थी
अमृत सा था ये जल
सबके परलोक सुधारा करती थी
जन गण की प्यास बुझाती
मैं फिर क्यों प्यासी रहती हूँ
महा गरल से त्रस्त हो रही
मरती जाती हूँ
साक्षी रही इतिहास बदलते
छत्तीसगढ़ में एक यात्री कवि
Posted on 06 Jan, 2015 02:54 PM एक
बागबाहरा की उस
रात में
चाँद नाखूनी था
तारों के बीच बस
शुक्र हंसमुख

बागबाहरा के
घर को जब छोड़ रहा था
माँ थी कर्मठ वहाँ
पिता ने दिखाये थे
स्वर्णा, मासूरी और महामाया धान के
खेत
भाइयों ने
अंतरंगता की
एक फिल्म छोड़ दी थी
दिल-दिमाग में मेरे

मैं उसी घर को
भीतर बसाये हुए
धूप
Posted on 26 Dec, 2014 01:38 PM देख रहा हूँ
लम्बी खिड़की पर रक्खे पौधे
धूप की ओर बाहर झुके जा रहे हैं
हर साल की तरह गोरैया
अबकि भी कार्निस पर ला-ला के धरने लगी है तिनके
हालाँकि यह वह गोरैया नहीं
यह वह मकान भी नहीं
ये वे गमले भी नहीं, यह वह खिड़की भी नहीं
कितनी सही है मेरी पहचान इस धूप की

कितने सही हैं ये गुलाब
कुछ कसे हुए और कुछ झरने-झरने को
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