दुनिया कुछ ठीक-सी

अब एक दिन क्या
थोड़-सा समय भी नहीं होता
जब दुनिया कुछ ठीक-सी लगे
सुबह उठो तो हरियाली में चहकती चिड़ियां
और हलकी ठंडी हवा में कांपती पत्तियां
सुन्दर तो लगती हैं
पर यह यकीन नहीं दिला पातीं
कि सब ठीक चल रहा है
कहने को यह उनका काम भी नहीं है

सुबह-सुबह रेडियो पर आती है भजनावली
या कि गुजरी तोड़ी या अहीर भैरव की सुरलहरियां
और नहीं तो कुक्कुट बिलावल
पर भरोसा नहीं होता कि
इतनी देर के लिये सही
दुनिया विन्यस्त हो गयी
अपनी धुरी पर आ गयी

हर समय चलती रहती हैं दुनिया में
गोलियां दुश्मनों पर नहीं तो पड़ोसी पर
चुराते रहते हैं बच्चे गोदामों से नहीं तो
घूरों से जूठी रोटियां
और बिसूरता है एक अधेड़ कवि
अपने शब्दों के लगातार अनर्थ पर
धरती के जिस भी हिस्से में रात हो
सोते हैं कई बिना उजाले सपनों और लिहाफ के

जिस भी हिस्से में दिन हो
भागते हैं कई बेकुसूर हथकड़ी, फाके और साहूकारों से
बाजार से हर चीज चमक-दमक के साथ मिल रही है
लालच का पारा एकदम ऊंचा चढ़ा हुआ है
अंटी में न पूरा पैसा है, न टिकाऊ धीरज
समय बेतहाशा खर्च हो रहा है
जिन्दगी कम पड रही है

लोगों के पास शब्द कम हो रहे हैं
जिसमें फूलों या सब्जियों के नाम ले सकें
अपने दुख और तकलीफ को नाम दे सकें
सिर्फ दुख कहने से दुख का ठीक पता नहीं चल पाता
शब्दों के बिना
आंखों में सूख गये आंसू की तरह
तकलीफ सूख जाती है
बाहर नहीं निकल पाती

सुख के लिये तो छोड़ो
दुनिया अब दुख के लिये भी ठीक नहीं रह गयी है
कइयों के पास अब ऐसा दुख है
जो न दुनिया में समाता है न किसी मसीहा के रामझरोखे में
न किसी दुकान के रंगीन लिफाफे में
न शब्दों के किसी रूपाकार में

शायद दुनिया लिखती है
अपनी असंख्य चीजों, हरकतों, धड़कनों और मौन से
शब्दों, दुखों, चिड़ियों, प्रार्थनाओं और अंधेरों से
कभी न खत्म होनेवाली एक कविता
सदियों, कल्पान्तों तक चलनेवाला एक रोजनामचा
एक अथक उपन्यास
जिसमें सब दर्ज है
हमारा सुख-दुख, तकलीफ और सपने
हम ही ठीक-ठाकपन के चक्कर में
उसे पढ़ने की हिकमत नहीं जानते
हिम्मत नहीं कर पाते
दुनिया से पूछो तो पलटकर वह कह सकती है
कि ठीक-ठाक क्या होता है
दुनिया धड़ल्ले से चल रही है
कठिन, सुन्दर और अन्तहीन
शब्दातीत, सुख-दुख से, हमसे भी अतीत

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