दिल्ली

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जल जीवन है, सीवर जीवन की असलियत
Posted on 20 Oct, 2012 12:05 PM अधिकांश शहरों के आज के गंदे नाले अतीत की साफ नदियां हुआ करती थीं।
नदियों के जुड़ने पर जमीन की प्रकृति में होगा बदलाव
Posted on 19 Oct, 2012 10:53 AM सपने दिखाने वाली ऐसी योजनाएं अपने साथ जो पेचीदगियां लाएगी उसका भान
रेनवॉटर हार्वेस्टिंग के प्रति बढ़ी जागरूकता
Posted on 18 Oct, 2012 04:32 PM वर्षाजल कों नालियों में न बहाकर अपने ही नलकूप, कुऐं या बावड़ी में प्रविष्ट कराने की तकनिक को रेनवॉटर हार्वेस्टिंग सिस्टम नाम दिया गया है। महज कुछ इन्वेस्ट से ही आप अपनी लाखों की कोठी और फ्लैट में उक्त संयंत्र लगाकर “ रेनवॉटर हार्वेस्टिंग ” कर सकते हैं। यह सहज एवं सरल तकनिक पर आधारित है। इंसान यदि ठान ले तो क्या नहीं कर सकता यदि उसमें दृढ़ निश्चय हो तो अकाल को सुकाल में बदल सकता है। यह साबित हो रहा है आज के समय वॉटर हार्वेस्टिंग के प्रति बढ़ती जागरूकता से और इसी जागरूकता को सार्थक सिद्ध कर रहे हैं दुर्गा नर्सरी रोड स्थित बाबा इन्टरप्राईजेज के मालिक महेश चन्द्र गढ़वाल जो विगत 8 वर्षों से वॉटर हार्वेस्टिंग सिस्टम को कई निजी भवनों में लगा कर उनकी बढ़ती जागरूकता को सार्थक सिद्ध कर रहे हैं।
Rainwater Harvesting
प्रकृति की अनूठी घड़ी
Posted on 18 Oct, 2012 03:59 PM

मानव जाति के आस-पास रहने वाली मधुमक्खियां पर्यावरण का सबसे सुंदर संकेतक हैं। इनके छत्तों को आप प्रकृति की सबसे अ

Bee best indicator of environment
सिमटती दुनिया वन्य जीवों की त्रासदी बना इंसान
Posted on 16 Oct, 2012 01:22 PM जन्म से खूंखार होने के बाद भी बाघ इंसान पर डर के कारण हमला नहीं क
विस्थापन का खतरा
Posted on 13 Oct, 2012 04:58 PM बढ़ते औद्योगीकरण, बांध परियोजनाओं तथा खनन की वजह से विस्थापन का संकट गहराता जा रहा है। जिस रफ्तार से देश विकास और आर्थिक लाभ की दौड़ में भागे जा रहा है उसी रफ्तार से लोग विस्थापित होने का दंश भी झेल रहे हैं। उद्योगों तथा परियोजनाओं का शान्ति से प्रदर्शन कर रहे लोगों पर पुलिस प्रशासन ऐसे हिंसक अत्याचार कर रहा है गोया कि प्रशासन ने लोगों के प्रति सब जिम्मेदारियों से पल्ला ही झाड़ लिया है। जंगल मे
सुलभ नहीं हैं शौचालय
Posted on 13 Oct, 2012 04:37 PM पूर्वी दिल्ली नगर निगम ने भले ही फिर से ऐसी किसी संस्था को शौचालयों का ठेका देने का मन बनाया हो, जिससे पहले एक बार इस काम को छीना जा चुका है, लेकिन राजधानी में शौचालयों की हकीकत आप जानते ही होंगे। जिनका वास्ता इनसे नहीं पड़ता, एक झलक देखिए इन रिपोर्ट में-

टॉयलेट की हालत खस्ता, नए पड़े हैं बंद

नहीं साफ हो सकी यमुना : सुप्रीम कोर्ट
Posted on 11 Oct, 2012 01:10 PM राजधानी के वजीरपुर इंडस्ट्रियल एरिया के पिकलिंग कारखानों से बेहद
हर हाल में हानिकर खुला शौच
Posted on 09 Oct, 2012 11:32 AM महात्मा गांधी और विनोबा भावे ने कभी सुचिता यानि स्वच्छता से आत्मदर्शन की कल्पना की थी। ‘शुचिता से आत्मदर्शन’, जिसमें ‘शौचात् स्वांगजुगुप्सा’ तक भौतिक शुचिता से लेकर आध्यात्मिक शुचिता, आत्मानुभूति तक। जिससे भारत के जन-जीवन में शुचिता का दर्शन होगा। वह मानते थे कि तन व मन दोनों जब तक स्वच्छ नहीं होंगे तब तक धर्म, दर्शन व भगवान की बात करना ही बेमायने है। आज से करीब 90 साल पहले गॉंधी ने ग्राम स्वच्छता अभियान की शुरुआत की थी। उन्होंने यह बहुत पहले ही समझ लिया था कि देश में कई एक महामारियों का एक मात्र कारण है-खुले में शौच और घरों के आसपास फैली बजबजाती गंदगी। उस समय हैजा, कालरा, चिकन पॉक्स जैसी जानलेवा बीमारियों से कभी-कभी गांव की पूरी की पूरी आबादी ही साफ हो जाती थी। यही कारण था कि गांधी ने ताउम्र सफाई अभियान की न केवल वकालत की बल्कि गंदी से गंदी बस्ती में जाकर पाखाना साफ किया और लोगों को स्वच्छता के प्रति जागरूक किया। वह खुले में शौच के घोर विरोधी थे। वह गांव-गांव जाकर लोगों को खुले में शौच न करने व साफ-सफाई के विषय में वैज्ञानिक ढंग से समझाते थे।

वैज्ञानिकों के मुताबिक एक मक्खी एक दिन में कम से कम तीन किलोमीटर तक जरूर उड़ती है। इस तरह से मक्खियां एक बस्ती से दूसरी बस्ती, आसपास, खेत व जंगलों का सफर करती रहती हैं। मक्खियां मल पर बैठती हैं और फिर उड़ कर घरों में पहुंच कर खाने-पीने की चीजों पर बैठती हैं। उनके पैरों व पंखों में मल चिपका हुआ रहता है जो खान-पान की चीजों में जाकर घुल जाता है। इससे हैजा, कालरा व डायरिया जैसी जानलेवा बीमारी फैलने में देर नहीं लगती।

सोच, शौच और शौचालय
Posted on 09 Oct, 2012 10:41 AM खुले में शौच तो हमें हर हाल में रोकना ही होगा। खुले में पड़ी टट्टी से उसके पोषक तत्व (नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम) कड़ी धूप से नष्ट होते हैं। साथ ही टट्टी यदि पक्की सड़क या पक्की मिट्टी पर पड़ी है तो कम्पोस्ट यानी खाद भी जल्दी नहीं बन पाती और कई दिनों तक हवा, मिट्टी, पानी को प्रदूषित करती रहती है। मानव मल में मौजूद जीवाणु और विषाणु हवा, मक्खियों, पशुओं आदि तमाम वाहकों के माध्यम से फैलते रहते हैं और कई रोगों को जन्म देते हैं। सुबह-सुबह गांवों में अद्भुत नजारा होता है। रास्तों में महिलाओं की टोली सिर पर घूंघट डाले सड़कों पर टट्टी करती मिल जाएगी। पुरुषों की टोली का भी यही हाल होता है। टोली जहां-तहां सकुचाते, शर्माते और अपने भाई-भाभियों, काका-काकियों से अनजान बनते मलत्याग को डटी रहती है। हिंदुस्तान की बहुत सी भाषाओं में शौच जाने के लिए ‘जंगल जाना’, ‘बाहर जाना’, ‘दिशा मैदान जाना’ आदि कई उपयोगी शब्द हैं। झारखंड में खुले में ‘मलत्याग’ को अश्लील मानते हुए लोगों में एक ज्यादा प्रचलित शब्द है ‘पाखाना जाना’। पर जनसंख्या बहुलता वाले इस देश में न गांवों के अपने जंगल रहे और न मैदान ही। अब तो गांवों को जोड़ने वाली पगडंडियां, सड़कें, रेल की पटरियां, नदी-नालों के किनारे ही ‘दिशा मैदान’ हो गए हैं। परिणाम; गांव के गली-कूचे, घूरे-गोबरसांथ और कच्ची-पक्की सड़कें सबके सब शौच से अटी पड़ी हैं।
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