![Bee best indicator of environment](/sites/default/files/styles/node_lead_image/public/hwp-images/Bee%20best%20indicator%20of%20environment_3.jpg?itok=NCSoeUD-)
Bee best indicator of environment
मानव जाति के आस-पास रहने वाली मधुमक्खियां पर्यावरण का सबसे सुंदर संकेतक हैं। इनके छत्तों को आप प्रकृति की सबसे अनुठी घड़ी भी कह सकते हैं। जैसे-जैसे पर्यावरण में बदलाव आता है ये मधुमक्खियां उत्तर की ओर खिसकने लगती हैं। दो, चार, दस सालों में यह बदलाव भले ही खास न दिखता हो लेकिन बीस-तीस सालों में बदलाव साफ दिखते हैं जैसे पहाड़ की तराई में दिख रहा है। चिंता तो होती ही है कि क्या एक दिन ऐसा भी आयेगा जब धरती के इस नकलिस्तान पर मनुष्य अकेला ही रह जाएगा, अपने विज्ञान के साथ?
इंसान जैसे-जैसे विकसित हुआ है वह अकेला पड़ता गया है। प्रकृति में मौजूद दूसरे जीवजंतु, प्राणी, वनस्पतियां सब उससे लगातार दूर होते गये हैं। ऐसा कोई एक दिन में नहीं हुआ लेकिन यह क्रम कभी रूका भी नहीं। जीव-जंतु तो न जाने कब के हमारे लिए पालतू हो गये थे। मनुष्य ने सबसे पहले जिस जानवर को पालतू बनाया वह संभवतः गाय थी। उसके पहले तक का जो इतिहास हम देखते हैं वह यही है कि अस्तित्व में बने रहने के लिए मनुष्य भी पशुओं को उसी तरह मारता था जैसे एक पशु दूसरे को मारता था। लेकिन जिसे विकसित मनुष्य कह सकते हैं उसने जो कुछ किया उससे केवल पशुओं के अस्तित्व पर ही नहीं बल्कि वनस्पतियों के अस्तित्व पर भी संकट आ गया है। पहले मनुष्य ने पशुओं को मारा होगा लेकिन पशु उससे दूर नहीं भागे थे। लेकिन आज प्रकृति में मौजूद जीव धीरे-धीरे मनुष्य से दूर होते जा रहे हैं। याद करिए आखिरी बार आपने कब किसी घोसले को देखा था? याद करिए कि आपने अपने आस-पास किसी मधुमक्खी के छत्ते को कब देखा था?प्रकृति का संदेश देने का तरीका मनुष्य द्वारा ईजाद किये गये तरीकों से श्रेष्ठ है ही। इस पर तो शायद ही कोई सवाल उठाये। इंसानों की पिछली पीढ़िया जब विज्ञान को इतने अवैज्ञानिक तरीके से इस्तेमाल नहीं करती थीं तब हम प्रकृति के उपकरणों के सहारे प्रकृति के संदेशों को ज्यादा आसानी से समझ लेते थे। लेकिन हम जितने वैज्ञानिक हुए उतना ही हमने अपने उपकरणों पर भरोसा करना शुरू कर दिया। इंतहा तो तब हो जाती है जब हम भावनात्मक रोगों को मापने के लिए मशीनों का इस्तेमाल करने लगते हैं। क्या भावनाओं को मशीन से नापा जा सकता है? लेकिन पिछली एक सदी को आप देखिए तो हमारे विकास की वैज्ञानिक सोच ने मनुष्य को लगभग खारिज ही कर दिया है, खारिज करने और खारिज होने का एक अंतहीन सिलसिला सा चल निकला है जो कहीं रुकता दिखाई नहीं देता। पहले मनुष्य ने जानवरों को खारिज किया फिर जन्तुओं और पौधों को भी खारिज कर दिया। ऐसा नहीं है कि यह खारिज करने का सिलसिला अकेले मनुष्य की ओर से ही चलाया जा रहा है।
पशु-पक्षी, जीव-जंतु और पौधे भी हमको खारिज कर रहे हैं। पहाड़ की तराई में कोई 25-30 साल पहले जब मैं जाता था तो वहां मधुमक्खियों का छत्ता आसानी से दिखता था। अब नहीं दिखता। वैसे तो यह कोई बड़ी बात नहीं है। किसी अमराई में मधुमक्खी का छत्ता दिखना या न दिखना कोई निशानी भी हो सकता है इसे तो हमने शायद मानना ही छोड़ दिया है। वैसे भी मनुष्य लगातार असंवेदनशील हुआ है इसलिए आस-पास के अस्तित्व के प्रति भी वह पूरी तरह से उदासीन हो गया है। ऐसे में कहीं मधुमक्खी का छत्ता नहीं दिखता तो हम उसको किसी संकेत के रूप में लेते भी नहीं हैं। लेकिन यह संकेत है और बहुत गहरा संकेत है। स्नो लाईन की तर्ज पर आप इसे एक बी-लाईन मान लीजिए। वैज्ञानिक अवधारणा है कि बर्फ के जमने पिघलने और पुनः जमने की एक सतत प्रक्रिया जिन इलाकों में चलती है मध्य ध्रुव और समुद्र तल के आधार पर उसकी जो रेखा खींची जाती है उसे स्नो लाईन कहते हैं। क्योंकि अंटार्कटिक में बर्फ साल भर जमी रहती है इसलिए स्नो लाईन का केंद्र अंटार्कटिक है। इसी रेंज में जब आप हिमालय में आते हैं यह स्नो लाईन कोई एक निश्चित उचाई पर चली जाती है।
![मधुमक्खी, पर्यावरण का सबसे अच्छा संकेतक मधुमक्खी, पर्यावरण का सबसे अच्छा संकेतक](/sites/default/files/hwp/import/images/beehive_copy.jpg)
इस रेगिस्तान की सूचना पहाड़ में ग्लेशियर दे रहे हैं तो मैदानी इलाकों में मधुमक्खियों के छत्ते हमें बता रहे हैं कि हम संकट के मुहाने पर है। मधुमक्खियों के छत्ते इसलिए क्योंकि पर्यावरण का इससे सुंदर संकेतक दूसरा होना मुश्किल है। इन छत्तों को आप प्रकृति की सबसे अनुठी घड़ी भी कह सकते हैं। मधुमक्खियां अपने आस-पास के दो तीन किलोमीटर से पराग इकट्ठा करती हैं। यहां यह जान लेना महत्वपूर्ण है कि हम केवल उन मधुमक्खियों की बात कर रहे हैं जो मानवीय बस्ती के आस-पास छत्ते लगाती हैं। यानी वे मधुमक्खियां जो मनुष्य के निकट हैं। लेकिन जैसे-जैसे पर्यावरण में बदलाव आता है ये मधुमक्खियां उत्तर की ओर खिसकने लगती हैं। दो चार दस सालों में यह बदलाव भले ही खास न दिखता हो लेकिन बीस-तीस सालों में बदलाव साफ दिखते हैं जैसे पहाड़ की तराई में दिख रहा है। चिंता तो होती ही है कि क्या एक दिन ऐसा भी आयेगा जब धरती के इस नकलिस्तान पर मनुष्य अकेला ही रह जाएगा, अपने विज्ञान के साथ?
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